पिछले कुछ सालों से नरेंद्र मोदी सरकार की विशिष्ट आर्थिक नीतियों के कारण भारत को आत्मनिर्भर बनाने का विषय एक बार पुनः चर्चा में है। 'स्वदेशी' व 'भारत की आत्मनिर्भरता' एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। लेकिन अब जब इनकी बात हो रही है तो कई जगह आशंका का भी माहौल है। ऐसा होना स्वाभाविक भी है क्योंकि अब तक स्वदेशी अर्थशास्त्र के सिद्धांतों के बारे में बहुत ज्यादा चर्चा अपने यहां नहीं हुई है। ऐसा नहीं है कि इस विषय पर काम नहीं हुआ या इन सिद्धांतों का निरूपण नहीं हुआ। पर जैसा अन्य क्षेत्रों में हाल है वैसा ही अर्थशास्त्र में भी है।
पश्चिमी अर्थशास्त्र के सिद्धांतों में पले बढ़े अर्थशास्त्रियों ने 'स्वदेशी' मॉडल का अध्ययन करने वाले अर्थशास्त्रियों को कभी भी मुख्यधारा में शामिल ही नहीं होने दिया। इसका सबसे दिलचस्प उदाहरण नागपुर विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डा. एम. जी. बोकरे का है। बोकरे घनघोर मार्क्सवादी चिंतक थे। अर्थशास्त्र की उनकी कक्षाएं कम्युनिस्टों के लिए भर्ती शिविर की तर्ज पर चलती थीं। पश्चिमी अर्थशास्त्र का उनका गहन अध्ययन था तथा गांधीवादी अर्थशास्त्र पर उनकी पुस्तक को इस विषय पर संदर्भ पुस्तक का दर्जा प्राप्त था।
बोकरे ने 'मुक्त व्यापार' को दी चुनौती
बोकरे की मित्रता प्रखर चिंतक और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक दत्तोपंत ठेंगड़ी से भी थी। ठेंगड़ी का भी इस विषय पर गहन अध्ययन था और वह 1960 के दशक से ही कह चुके थे कि दुनिया को न पूंजीवाद बचा सकता है न साम्यवाद। वह पंरपरागत 'मुक्त व्यापार' के उस सिद्धांत को भी लगातार चुनौती दे रहे थे। जिसके कारण दुनिया भर में शोषण में लगातार वृद्धि हुई तथा आर्थिक सुधारों के नाम पर गरीब और गरीब होता चला गया तथा अमीर और अमीर होता चला गया। ठेंगड़ी ने बोकरे को प्रेरित किया कि वह हिंदू धर्मशास्त्रों का अध्ययन कर यह जानने का प्रयास करें कि वहां अर्थशास्त्र अथवा आर्थिक सिद्धांतों के बारे में कितनी जानकारी है। ये जानकारी अथवा शास्त्रीय सिद्धांत कितने प्रासंगिक हैं। बतौर वामपंथी बोकरे ने हिंदू शास्त्रों का गहन अध्ययन आरंभ किया और कुछ ही समय में उनकी सोच ही बदल गई।
अंतत: अथक परिश्रम के बाद उन्होंने 1990 के दशक के आरंभिक वर्षों में एक पुस्तक प्रकाशित की जिसका शीर्षक था 'हिंदू इकोनॉमिक्स'। इस पुस्तक में स्वदेशी मॉडल की बड़ी स्पष्ट रूपरेखा दी गई है। बोकरे ने कहा है कि यूरोप और अमेरिका के अर्थशास्त्री यह साबित करने का प्रयास करते रहे हैं कि भारत के पास अर्थशास्त्र की कोई प्राचीन परंपरा नहीं है और अर्थशास्त्र का जो भी ज्ञान उपजा वह पश्चिम में ही उपजा है।
लेकिन सच यह है कि एडम स्मिथ की 'वेल्थ ऑफ नेशन्स' तथा डेविड रिकार्डो की 'प्रिन्सिपल्स ऑफ पॉलिटिकल इकोनॉमी' प्रकाशित होने से हज़ारों वर्ष पहले ही भारत की प्राचीन स्मृतियों व वेदों में हर उस आर्थिक सिद्धांत के बारे में विस्तार से जानकारी है। जिसकी किसी भी व्यक्ति, समाज या प्रशासन को आवश्यकता हो सकती है। ये सिद्धांत पश्चिम के अस्थायी सिद्धांतों की तुलना में कहीं ज्यादा स्थायी हैं। आज पहले से भी ज्यादा प्रासंगिक हैं। इसका एक उदाहरण बोकरे ने इस पुस्तक में एक अध्याय में दिया है। जहां उन्होंने हिंदू अर्थशास्त्र के आधार पर पूरी तरह से कर मुक्त बजट की अवधारणा का सैद्धांतिक ही नहीं व्यवहारिक निरूपण भी किया है।
बोकरे के अतिरिक्त स्वयं ठेंगड़ी द्वारा स्वदेशी मॉडल का विस्तार से निरूपण किया गया है। जिन्हें भी स्वदेशी मॉडल को लेकर किसी भी प्रकार की आशंका है। उन्हें बोकरे और ठेंगड़ी की पुस्तकों और टिप्पणियों को पढ़ना और सुनना चाहिए। ठेंगड़ी ने 'थर्ड वे' में स्पष्ट कहा है कि भारत को आत्मनिर्भर बनाने का अर्थ यह नहीं है कि हम दुनिया भर से अपने को काट कर अलग—थलग कर लेंगे। 'स्वदेशी अर्थशास्त्र' में कहा गया है कि हम सभी देशों से आर्थिक सहयोग करेंगे। लेकिन अपने हितों को सुरक्षित रखते हुए। इसलिए 'स्वदेशी' के विचार तथा आत्मनिर्भरता के इस अभियान का स्वागत करने की ज़रुरत है। इससे आशंकित होने की जरूरत नहीं है।