Bihar Chunav 2025: बिहार की राजनीति का अनोखा किस्सा, जब सरकार में थे सिर्फ एक मुख्यमंत्री, न कोई मंत्री, 10 दिन में छोड़ी कुर्सी
Bihar Election 2025: इस समय कांग्रेस की स्थिति कमजोर हो गई थी, उसे सिर्फ 318 सदस्यों वाली विधानसभा में 118 सीटें मिलीं। वहीं संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी को 52, भारतीय जनता संघ को 34, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को 25, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी को 18 और राजा कमाख्य नारायण सिंह की जनता पार्टी को 14 सीटें मिलीं। यह बिहार के इतिहास का सबसे विभाजित परिणाम था
Bihar Chunav 2025: हरिहर सिंह ने 26 फरवरी 1969 को बिहार के नौवें मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली
बिहार एक बार फिर विधानसभा चुनाव की तैयारी में है, और इसकी राजनीति का इतिहास बतलाता है कि यहां की सत्ता कभी भी स्थिर नहीं रही है। इसका बड़ा उदाहरण है करीब 50 साल पहले की वो घटना, जब हरिहर सिंह बिहार के मुख्यमंत्री तो बने थे, लेकिन उन्हें अपने मंत्रिमंडल में विभाग बांटने से पहले ही इस्तीफा भी देना पड़ा। 1968 के मध्य में बिहार की राजनीति बहुत अस्थिर थी। भोला पासवान शास्त्री ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था, जिसके बाद लगभग 242 दिन तक राज्य में राष्ट्रपति शासन था। सात महीने बीतने के बाद भी कोई पार्टी बहुमत हासिल नहीं कर पाई। फरवरी 1969 में फिर से चुनाव हुए, लेकिन इसके नतीजे और बिगड़ गए।
इस समय कांग्रेस की स्थिति कमजोर हो गई थी, उसे सिर्फ 318 सदस्यों वाली विधानसभा में 118 सीटें मिलीं। वहीं संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी को 52, भारतीय जनता संघ को 34, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को 25, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी को 18 और राजा कमाख्य नारायण सिंह की जनता पार्टी को 14 सीटें मिलीं। यह बिहार के इतिहास का सबसे विभाजित परिणाम था।
कांग्रेस के अंदर भी कई गुट बने हुए थे, केबी सहाय, महेश प्रसाद सिन्हा और सत्येंद्र नारायण सिन्हा के इर्द-गिर्द। पिछड़ा वर्ग के नेता राम लखन सिंह यादव को टिकट नहीं मिला, जिसने और असंतोष बढ़ाया। कई विधायक पूर्व मुख्यमंत्री बिनोदानंद झा का समर्थन करते थे, जिन्होंने लोकतांत्रिक कांग्रेस दल बनाया था।
राष्ट्रीय स्तर पर भी कांग्रेस दो फाड़ की स्थिति में थी- पुराने गार्ड कांग्रेस (O) और इंदिरा गांधी के कांग्रेस (R) के रूप में।
1969 की शुरुआत में बिहार कांग्रेस नेतागण 1967 की हार दोहराना नहीं चाहते थे। उन्होंने शोषित दल, राजा कमाख्य नारायण सिंह की जनता पार्टी, स्वतंत्र पार्टी और कुछ निर्दलीयों के साथ गठबंधन बनाया। इस गठबंधन का नेतृत्व हरिहर सिंह ने किया, जो बक्सर के राजपूत विधायक थे।
कौन थे हरिहर सिंह?
हरिहर सिंह ने 1952 में कांग्रेस के टिकट पर दुमरांव से चुनाव जीतकर राजनीति में कदम रखा। 1957 में टिकट न मिलने पर निदर्लीय चुनाव लड़ा और हार गए। बाद में स्वतंत्र पार्टी जॉइन की और 1962 में राजौली से हार गए। 1960 से 1966 तक विधान परिषद सदस्य रहे। 1967 में फिर स्वतंत्र रूपे दुमरांव से उम्मीदवार बने और जीत हासिल की। 1969 के चुनाव से पहले फिर से कांग्रेस में शामिल हो गए।
हरिहर सिंह भोजपुरी के कवि भी थे और बीपी मंडल के करीब थे। मंडल सरकार में कृषि मंत्री रह चुके थे। उन्होंने महमाया प्रसाद सिन्हा की सरकार गिराने में मदद की थी।
हरिहर सिंह 26 फरवरी 1969 को बिहार के नवें मुख्यमंत्री बने, राष्ट्रपति शासन के 242 दिन बाद। उनकी सरकार कमजोर गठबंधन थी और दरोगा प्रसाद राय का गुट इसका विरोध करता था। राजा कमाख्य नारायण सिंह, जिन्हें कानूनी पाबंदियां थीं, को लेकर विवाद हुआ। इससे कोई मंत्री तुरंत नियुक्त नहीं हुए। पहला मंत्रिमंडल 7 मार्च को शपथ ली, लेकिन राय समारोह का बहिष्कार कर दिया।
गठबंधन में आखिरकार दबाव के तहत राजा कमाख्य नारायण सिंह ने 28 मार्च को इस्तीफा दे दिया। उनकी जगह उनकी मां शशांक मंजरी देवी ने अप्रैल में मंत्री पद संभाला, जो मंत्रीमंडल की एकमात्र महिला थीं।
हरिहर सिंह के मंत्रीमंडल में 33 सदस्य
हरिहर सिंह के मंत्रीमंडल में 33 सदस्य थे, जिसमें कांग्रेस, जनता पार्टी, झारखंड, हुल झारखंड और शोषित दल के लोग शामिल थे। मंत्रिमंडल में ऊंची जाति के ज्यादा सदस्य थे, लेकिन पिछड़े, अनुसूचित जाति, जनजाति और मुस्लिम भी थे। कई मंत्री पद संभाले लेकिन उन्हें विभाग नहीं मिले क्योंकि सरकार ज्यादा दिन नहीं चल पाई।
4 महीने के भीतर ही, 20 जून 1969 को हरिहर सिंह की सरकार गिर गई। पशुपालन विभाग के बजट पर वोटिंग में 164 के मुकाबले 143 वोट से हार मिली। कई मंत्री अलग हो गए या मतदान से बच गए, जिससे सरकार गिर गई।
कुछ ही दिनों बाद कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर भी दो हिस्सों में बंट गई—कांग्रेस (O) और कांग्रेस (R)। यह बिहार की अस्थिरता का एक आईना था।
हरिहर सिंह मार्च 1994 में स्वर्गवास पाए। उनका राजनीतिक वारिस उनके बेटे अमरेंद्र प्रताप सिंह और मृगेंद्र प्रताप सिंह हैं, जो राजनीति में सक्रिय रहे।
इस प्रकार बिहार की राजनीति ने दिखाया कि यहां सत्ता की राह कभी आसान नहीं रही और गठबंधन बड़ी चुनौती रहा है। सत्ता के लिए राजनीतिक दलों के बीच जद्दोजहद और जातिगत समीकरण बिहार की राजनीतिक कहानी की मुख्य धुरी हैं।