चंदन श्रीवास्तव

पिछला बजट पेश हुआ तो सेहत और पोषण के मोर्चे पर देश की दशा सुधारने के लिए 35,600 करोड़ रुपये की राशि आबंटित की गई। साल 2019-20 के बजट से तुलना करें तो पोषण के कार्यक्रमों के लिए आबंटित राशि में कुल 22 फीसदी का इजाफा हुआ था।

जाहिर है, समाचारों में इस इजाफे की सराहना हुई। वित्तमंत्री ने अपने बजट-भाषण में पोषण के कार्यक्रमों को नीति के स्तर पर एक बड़े फलक पर देखते हुए पुरउम्मीद आवाज में कहा था: “पोषण (न्यूट्रीशन) सेहत के लिहाज से बड़ा अहम है। बच्चों (0-6 वर्ष), किशोरियों, गर्भवती महिलाओं और प्रसूति महिलाओं के पोषण से जुड़े हालात सुधारने के लिए प्रधानमंत्री ने साल 2017-18 में पोषण अभियान की शुरुआत की। दस करोड़ से ज्यादा परिवारों की पोषण की दशा को दर्ज करने के लिए छह लाख से ज्यादा आंगनबाड़ी-कर्मियों को स्मार्टफोन से लैस किया गया है। यह अपने आप में अभूतपूर्व विकास है।”

पोषण का मोर्चा और देश की तस्वीर

इस साल का बजट पेश करते वक्त वित्तमंत्री के ये ही शब्द उनके लिए एक चुनौती साबित होने जा रहे हैं। स्मार्टफोन से लैस छह लाख आंगनबाड़ी-कर्मियों के बूते 10 करोड़ से ज्यादा परिवारों के जो आंकड़े सामने आये हैं उनसे पोषण के मोर्चे पर देश की कैसी तस्वीर उभरती है ? जवाब के लिए ज्यादा दूर क्यों जाना, बेहतर है यहां कुछ माह पहले (अक्तूबर2020) आये ग्लोबल हंगर इंडेक्स के भारत-विशेषी तथ्यों को ही याद कर लिया जाये।

ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत को 107 देशों की सूची में 94वां मुकाम हासिल हुआ। रिपोर्ट में भारत को भुखमरी की चपेट झेल रहे उन देशों की श्रेणी में रखा गया जहां हालत "सीरियस" है। हंगर इंडेक्स पर भारत को कुल  27.2 का स्कोर हासिल हुआ, मतलब भारत भुखमरी के मोर्चे पर अपने पड़ोसी नेपाल (73 वां स्थान), पाकिस्तान (88) और बांग्लादेश (75) से भी पीछे रहा। याद करें 2019 की ग्लोबल हंगर रिपोर्ट के आंकड़े ताकि एक साल के दरम्यान हुई प्रगति के बारे में कुछ अनुमान लगाया जा सके। साल 2019 की रिपोर्ट में भारत 117 देशों के बीच 102 नंबर पर था। तब भी पोषण के मोर्चे पर पड़ोसी देश नेपाल (73), श्रीलंका (66), बांग्लादेश (88), म्यामार (69) और पाकिस्तान (94) हमसे आगे थे।

साल दर साल एक सा हाल

ग्लोबल हंगर इंडेक्स पर किसी देश के स्थान की गिनती के लिए कुल चार बातों का ध्यान रखा जाता है। देखा जाता है कि 1.आबादी में भोजन की कमी यानि अंडरन्यूरिश्ड लोगों का अनुपात कितना है, 2. अवरुद्ध विकास यानि वेस्टिंग(उम्र के हिसाब से वजन का मानक से कम होना) के शिकार पांच साल तक की उम्र के बच्चों की संख्या किस अनुपात में हैं, 3. स्टंटिंग यानि अवरुद्ध बढ़वार (उम्र के हिसाब से लंबाई का मानक से कम होना) के शिकार पांच साल तक की उम्र के बच्चों का अनुपात क्या है, और 4. पांच साल तक की उम्र के बच्चों की मृत्यु दर क्या है।

इन चार कसौटियों के आधार पर ग्लोबल हंगर इंडेक्स में 0-100 के स्केल पर देशों को अंक दिये जाते हैं। इन चार कसौटियों को ध्यान में रखते हुए गिनती करने पर अगर किसी देश का स्कोर 20 - 34.9 के बीच रहता है तो इंडेक्स में उसे भुखमरी की गंभीर हालत वाला देश माना जाता है। अगर ग्लोबल हंगर इंडेक्स पर भारत पिछले सालों के परफार्मेंस को याद करें तो नजर आयेगा कि भारत का जीएचआई स्कोर पंद्रह सालों में घटता गया है। साल 2005 में भारत का जीएचआई स्कोर 38.9 था जो 2010 में 32 पर पहुंचा और 2010 से 2019 में 30.3 पर आ गया। साल 2020 का जीएचआई स्कोर(27.2) तो ऊपर आप पढ़ ही आये हैं। जाहिर है, 2010 से 2020 के बीच भारत भुखमरी के मोर्चे पर अक्सर गंभीर हालात झेल रहे देशों की श्रेणी में रहा है।

ग्लोबल हंगर इंडेक्स के आंकड़ों से पोषण के मोर्चे पर जो संगीन तस्वीर उभर रही है उसकी पुष्टी नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे(एनएफएचएस-5) के नये आंकड़ों से भी होती है। सवा माह पहले आये इन आंकड़ों के बारे में पत्र सूचना कार्यालय (PIB) ने जो जानकारी दी उसमें ये भी दर्ज है कि महिलाओं और बच्चों में एनीमिया का प्रसार अब भी गंभीर चिन्ता का विषय बना हुआ है। कुल 13 राज्यों में 50 प्रतिशत से ज्यादा महिलाएं और बच्चे एनीमिया की चपेट में हैं। देश के 50 फीसद राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों में गर्भवती महिलाओं में एनीमिक महिलाओं की संख्या पिछली गिनती (NFHS-4) की तुलना में बढ़ गई है।

NFHS-5 के तथ्य बताते हैं कि शिशु और बाल मृत्यु दर (पांच साल से कम उम्र के बच्चे) और अवरुद्ध विकास (स्टटिंग और वेस्टिंग) के शिकार बच्चों का अनुपात सरीखे कुपोषण को इंगित करने वाले इंडिकेटरस् कई राज्यों में घटती की जगह बढ़त या फिर ठहराव की सूचना दे रहे हैं। इसका एक मतलब हुआ कि साल 2014 से 2019 के बीच भारत के कुछ राज्यों में जिन बच्चों का जन्म हुआ है वे अपने से पहले वाली पीढ़ी के बच्चों की तुलना में कहीं ज्यादा कुपोषित हैं।

अब आप चाहें तो भुखमरी और कुपोषण की इस तस्वीर के बरक्स वित्तमंत्री निर्मला सीतारामन के पिछले बजट के शब्दों को रखकर देख सकते हैं कि सच्चाई क्या है और जरुरत कितना कुछ करने की है। पिछले बजट में पोषण के मद में राशि-आबंटन में इजाफे का एलान करने के क्रम में वित्तमंत्री ने कहा था- “भारत की उत्तरोत्तर प्रगति के साथ महिलाओं के लिए उच्च शिक्षा और करिअर के अवसर खुलते जा रहे हैं। ऐसे में बहुत जरुरी है कि मातृ मृत्यु दर कम करने के साथ-साथ पोषण का स्तर सुधारा जाये। लड़कियों के मातृत्व की अवस्था में प्रवेश करने के पूरे मसले को इसी रोशनी में देखा जाना चाहिए।”

पोषण के मोर्चे पर पिछड़ने की वजह क्या है?

मिड डे मील स्कीम और समेकित बाल विकास कार्यक्रम जैसी विशाल योजना के बावजूद आखिर पोषण के मोर्चे पर भारत अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी के बीच एक सम्मानजनक स्थान पाने से इतना दूर क्यों है? विषय के विद्वान इसकी जो वजह बताते हैं उनमें एक ये है कि भारत में छोटे और सीमांत किसानों की उपज कई कारणों से या तो ठहराव का शिकार है या फिर उसमें कमी आयी है। ऐसे कारणों में मुख्य हैं जमीन की उर्वरा शक्ति में कमी, जोतों का लगातार छोटा होना और कृषि उपज के बाजार मूल्य में तेज कमी-बेशी।

 याद रहे कि देश के 5 करोड़ परिवार से ज्यादा परिवार छोटे और सीमांत किसानों की श्रेणी में आते हैं. सो, एक तरफ तो ये दिखता है कि एफसीआई के गोदाम अनाज से ठसाठस भरे हैं लेकिन दूसरी तरफ 5 करोड़ से ज्यादा किसान परिवार ऐसे भी हैं जो अपने साल भर के भरण-पोषण लायक अनाज नहीं उपजा पाते।

दूसरे, भारतीय समाज में एक बड़ा तबका ऐसा भी है जिसकी आमदनी (अगर समाज के दूसरे तबकों से तुलना करें तो) लगातार घट रही है।ये तबका महंगाई बढ़ने की स्थिति में अपनी जरुरत भर का भोजन नहीं खरीद पाता(यह सबसे ज्यादा दिखा कोविड काल में, याद करें आप्रवासी मजदूरों की दशा)। 

इस सिलसिले की तीसरी बात ये है कि देश की कामगार आबादी का एक बड़ा हिस्सा(जैसे खेतिहर मजदूर) ऐसे कामों में लगा है जहां काम के दाम रोजगार के अन्य क्षेत्रों में लगे लोगों से बहुत कम मिलते हैं।

और, चौथी बात है सरकारी पोषण के कार्यक्रमों और PDS (सार्वजनिक वितरण प्रणाली) का बहुत से राज्यों में सही तर्ज पर ना चल पाना। थोड़े में कहें तो भारत के 50 फीसद से ज्यादा परिवार साल के कई महीनों में ऐसी आर्थिक स्थिति से गुजरते हैं जब उनकी जेब में जरुरत भर का भोजन हासिल करने लायक रकम नहीं होती।

कोविड-काल की बंदी में ये हालत और संगीन हुई है। हाल (दिसंबर 2020) में हंगर व़ॉच नाम के एक सर्वेक्षण के निष्कर्ष प्रकाशित हुए। राइट टू फूड कंपेन तथा सेंटर फॉर इक्विटी स्टडीज ने देश के 11 राज्यों के लगभग चार हजार लोगों के बीच एक सर्वेक्षण किया। इसके तथ्य बताते हैं कि वंचित तबके जैसे SC, ST, OBC, विशेष जनजातीय समूह, झुग्गीवासी, दिहाड़ी मजदूर, किसान और एकल महिला के आमदनी पर आधारित परिवारों की आमदनी में लॉकडाउन से पहले की तुलना में सितंबर-अक्तूबर (2020) के दौरान कमी आयी है। सर्वेक्षण के कुल उत्तरदाताओं में लगभग एक-चौथाई उत्तरदाताओं की आय लॉकडाउन से पहले की तुलना में सितंबर-अक्टूबर के दौरान आधी हो गई।

आमदनी में हुई इस कमी का इन परिवारों की पोषण की दशा पर क्या असर हुआ है इसका अनुमान इन तथ्यों से लगाइएगा-सर्वेक्षण में शामिल कुल दो-तिहाई लोगों ने बताया कि उनके भोजन की मात्रा लॉकडाउन अवधि की तुलना में अब बहुत कम हो गई है। लगभग 28 प्रतिशत का कहना था कि उनके परिवार में पोषण की गुणवत्ता और मात्रा दोनों ही बहुत कम हो गये हैं। लगभग 45 प्रतिशत का कहना था कि लॉकडाउन के पहले की तुलना में उन्हें बाद के महीनों में भोजन की खरीदारी के लिए रुपये उधार लेने पड़े।

वित्तमंत्री जब इस साल का बजट पेश करेंगी तो उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती समाज के वंचित तबके के ऐसे ही लगभग 10 करोड़ परिवारों के पोषण की दशा को सुधारने की होगी। इस काम के लिए पोषण के कार्यक्रमों के मद में बजट आवंटन बढ़ाना तो जरुरी होगा ही, उससे भी ज्यादा जरुरी होगा 10 करोड़ परिवारों की आमदनी बढ़ानी होगी।

(लेखक सामाजिक और सांस्कृतिक स्कॉलर हैं) 

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