भुवन भास्कर

आर्थिक सर्वेक्षण पेश हो चुका है। सर्वेक्षण की समीक्षा के लिए यदि कोई एक शब्द सबसे सही हो सकता है, तो वह है-जिजीविषा। जिजीविषा को अंग्रेजी में रेजिलियंस कह सकते हैं, जिसका अर्थ होता है कितनी भी बुरी परिस्थिति से आप गुजरे हों, न तो आप टूटे हैं और न हारे हैं और आप में न सिर्फ जीने की, बल्कि आगे बढ़ने की लालसा बरकरार है। यह छोटी बात नहीं है कि क्योंकि यह सर्वेक्षण उस वर्ष के लिए है, जिसने पिछले कई दशकों का सबसे भयावह आर्थिक मंजर देखा है, भीषण छंटनी देखी है, मौतें देखी हैं, और आमलोगों की आदमनी में अभूतपूर्व गिरावट देखी है।

इस परिप्रेक्ष्य में मुख्य आर्थिक सलाहकार कृष्णमूर्ति वी. सुब्रह्णण्यम और उनकी टीम द्वारा लिखित सर्वेक्षण की सबसे मुख्य बात यही है कि भारत अगले दो वर्षों में दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था बनकर उभर सकता है। सर्वे के मुताबिक 2021-22 में देश की आर्थिक तरक्की की रफ्तार 11% रहने की उम्मीद है। यह तब है जब सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के मुताबिक कोरोना वायरस के कारण लगे लॉकडाउन के दौरान 2020 में कुल 2.1 करोड़ नौकरियां खत्म हो गईं। उस तिमाही में जीडीपी 23.9% नीचे गई और सर्वे के मुताबिक 2020-21 में जीडीपी 7.7% सिकुड़ने की आशंका है।

सर्वे में कहा गया है कि वित्तीय घाटा अपने लक्ष्य से काफी आगे चला गया है, लेकिन इसके बावजूद अगले वर्ष 11% वृद्धि दर के लिए जो रोडमैप दिया गया है, उसमें सार्वजनिक क्षेत्र के खर्च को सबसे बड़ा उत्प्रेरक (स्टिमुलेटर) बताया गया है। यह काफी रोचक है क्योंकि इससे 1 फरवरी को पेश होने वाले बजट का संकेत भी मिलता है। सर्वे में कहा गया है कि सरकारी खर्च को जीडीपी के मौजूदा 1% से बढ़ाकर 2.5 से 3% तक ले जाने की आवश्यकता है। यानी यदि मान लें कि वित्तीय घाटा पहले ही 7% पहुंच चुका है, तो इसका मतलब है कि लगभग 14 लाख करोड़ का घाटा पहले ही हो चुका है। अब यदि 11% जीडीपी वृद्धि दर के लिए 5-6 लाख करोड़ रुपये और खर्च करने की शर्त है, तो इसका सीधा मतलब है कि सर्वे में जाहिर की गई इस उम्मीद की व्यावहारिकता पर सवाल उठेंगे।

सवाल न उठें, इसके लिए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन को सरकार की आमदनी बढ़ाने की ठोस योजना सामने रखनी होगी। कर्ज लेने की सरकार की एक सीमा है और यदि वह 5-6 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा कर्ज से जुटाने की योजना बनाती है, तो यह अर्थव्यवस्था के लिए दूरगामी दुष्परिणाम लेकर आएगा। यानी सरकार को 14-15 लाख करोड़ रुपये आंतरिक स्रोतों से जुटाना होगा। इसमें 2-2.5 लाख करोड़ रुपये तो विनिवेश से जुटाने का लक्ष्य रखा जा सकता है, लेकिन उसमें भी सरकार कितना सफल होगी, इस पर सवालिया निशान है क्योंकि साल दर साल, सरकारें विनिवेश के लिए रखे लक्ष्य पर बड़े अंतर से चूकती रही हैं।

सर्वे में एक संकेत दिया गया है, जिससे फंड जुटाने की सरकार की रणनीति का कुछ अंदाजा मिल रहा है। इसमें कहा गया है कि राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 में की गई घोषणा के मुताबिक स्वास्थ्य सेक्टर पर होने वाले कुल खर्च में OOPE यानी आउट ऑफ पॉकेट एक्सपेंडिचर 65% से घटाकर 30% तक लाया जा सकता है। यानी बाकी खर्च में निजी क्षेत्र की भागीदारी सुनिश्चित की जाएगी। माना जा रहा है कि आने वाले बजट में स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए बड़ा आवंटन किया जा सकता है, ऐसे में आर्थिक सर्वेक्षण से जाहिर होने वाला यह संकेत काफी महत्वपूर्ण है। इस संकेत को यदि बजट घोषणाओं में बदलें तो आने वाला बजट 1991 के आर्थिक सुधारों की तर्ज पर निजी क्षेत्र के लिए व्यापक सुधारों का दरवाजा खोल सकता है। क्योंकि यदि ऐसा नहीं हुआ, तो भारत के लिए 2021-22 के दौरान 11% जीडीपी हासिल कर पाना सपने जैसा ही होगा।

सुब्रह्णण्यम ने सर्वे की भूमिका में भारतीय अर्थव्यवस्था की V-आकार की रिकवरी की तुलना ऑस्ट्रेलिया गई भारतीय क्रिकेट टीम के दौरे से की है, जो पहले मैच में 36 रन पर ऑल आउट होने के बाद शृंखला जीतने में कामयाब रही। कुछ इसी तर्ज पर भारतीय अर्थव्यवस्था ने भी पहली तिमाही में 24 प्रतिशत का आर्थिक संकुचन (कॉन्ट्रैक्शन) देखने के बाद चौथी तिमाही में अनुमानित 3.1% की वृद्धि दर्ज की है।

लेकिन इन सब उम्मीदों के बीच सर्वे ने अपने कवर पेज पर ही चुनौतियां और ग्रोथ के जोखिम को भी साफ कर दिया है। कोरोना के तराजू पर अर्थव्यवस्था, जिंदगियां और स्वास्थ्य के जोखिम को सुधार, बुनियादी ढांचा, आत्मनिर्भर भारत और वैक्सीन के वजन से हलका होता दिखाया गया है। इस तराजू में 1 फरवरी के बजट की झलक भी है। साफ है कि वित्त मंत्री का यह बजट वैक्सीन के सुरक्षा घेरे में आत्मनिर्भर भारत का लक्ष्य हासिल करने पर केंद्रित होगा और इसके लिए सुधारों की बुनियाद पर इंफ्रास्ट्रक्चर को जरिया बनाया जाएगा।

(लेखक कृषि और आर्थिक मामलों के जानकार हैं)

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