हर्ष वर्धन त्रिपाठी

चीन को लेकर दुनिया के ज्यादातर देश बहुत पहले से आशंकित थे और अमेरिका बाकायदा चीन के साथ पिछले कुछ वर्षों से कारोबारी शीतयुद्ध की मुद्रा में था, लेकिन दुनिया का कोई भी देश के चीन के तानाशाही रवैये के खिलाफ खुलकर नहीं बोल रहा था। कमाल की बात यह भी थी कि दुनिया के सभी देशों के साथ का संबंध बेहद तनवापूर्ण था, लेकिन इसके बावजूद हर देश के साथ चीन कारोबारी घाटटा बढ़ता जा रहा था। यहां तक कि अमेरिकी कंपनियां भी चीन के बाजार का मोह नहीं छोड़ पा रहीं थीं और इसी वजह से चीन से अपनी मैन्युफैक्चरिंग दुनिया के दूसरे देशों में ले जाना बड़ी चुनौती दिख रही थी।

एक तरफ चीन की कंपनियां अमेरिका, यूरोपीय यूनियन, जापान, ऑस्ट्रेलिया और भारत के बाजार में घुस रहीं थीं, वहीं दूसरी तरफ चीन की कंपनियां उन्हीं देशों से कमाई करके उन देशों की बड़ी कंपनियों में निवेश करके उसमें अपनी हिस्सेदारी बढ़ा रहीं थीं। यह स्थिति वैसे ही बेह खतरनाक हो रही थी और अमेरिका सहित दुनिया के बड़े देशों को चीन के साथ संतुलन की स्थिति से दूर करती जा रहीं थीं और यही वजह थी कि चाइनीज वायरस के आने के ठीक पहले अमेरिका और चीन एक बार फिर से कारोबारी शीत युद्ध को खत्म करने पर सहमत हो गये। दुनिया का हर देश यह कोशिश कर रहा था कि चीन के साथ कारोबारी रिश्ते बेहतर रखते हुए अपना हिस्सा कैसे बढ़ाया जा सके, लेकिन किसी भी देश को उसमें सफलता नहीं मिल पा रही थी।

दुनिया का सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता बन गया चीन हर देश को अपनी इस स्थिति की वजह से धमकाता भी रहता था और उसके साथ चीन की सीमाओं पर विस्तारवादी नीति भी स्पष्ट नजर आ रही थी। इस सबके बीच 15 जनवरी को अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अमेरिका और चीन के बीच पहले दौर की वार्ता सफल होने के बाद हुए समझौते पर कहा कि अमेरिका और चीन पहले के गलत को सही करने जा रहे हैं और इससे अमेरिकी कर्मचारियों, किसानों और परिवारों को सुरक्षा मिलेगी। यह पहले चरण की बात थी और नवम्बर में होने वाले राष्ट्रपति चुनावों के पहले दूसरे चरण पर भी सहमति बननी थी, लेकिन इसी बीच चाइनीज वायरस ने दुनिया भर में अपना प्रकोप दिखाना शुरू कर दिया और अमेरिका पर इसका सबसे बुरा प्रभाव पड़ रहा था।

यूरोपीय यूनियन के देश ठप हो गये थे। अपने तीखे बयानों के लिए मशहूर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने चीन पर वायरस के मामले में गड़बड़ी का आरोप लगा दिया। वुहान शहर से कुछ नमूने इकट्ठे करने वाले अमेरिकी अधिकारियों की तलाशी ली गई और चीन और अमेरिका के रिश्तों में 18 महीने के कारोबारी शीत युद्ध के बाद आई नरमी फिर से बड़ी कड़वाहट में बदल गई। अमेरिका के साथ देशों ने भी चीन के खिलाफ बोलना शुरू कर दिया, लेकिन इतना सब बयानबाजी के बावजूद अभी तक किसी भी देश ने चीन पर कारोबारी प्रतिबंध नहीं लगाया था।

भारत में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के साथ ही तेजी से बढ़ रहे व्यापार घाटे को संतुलित करना प्राथमिकता में रहा, लेकिन नरेंद्र मोदी बिना एजेंडा की बैठकों और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग से निजी संबंधों के जरिये भारत और चीन के बीच नया रिश्ता कायम करने की नीति पर काम कर रहे थे। इन सब कोशिशों के बीच 2017 में डोकलाम ने भारत की नीति में बड़े परिवर्तन की जरूरत बताई। और, इसके बाद भारत की नीतियों में एक जबरदस्त परिवर्तन यह देखने को मिला कि आमतौर पर अंतर्राष्ट्रीय मसलों पर चीन के खिलाफ होने वाली गोलबंदी में गलती से भी सीधे तौर पर शामिल न दिखने वाला भारत, चीन के खिलाफ होने वाली गोलबंदी की धुरी बनने लगा।

भारत ने चीन के अतिमहत्वाकांक्षी बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव (BRI) में शामिल होने से पहले ही इनकार कर दिया था और अब चाइना पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरीडोर के पाकिस्तान के कब्जे वाले भारतीय कश्मीर में होने वाली परियोजनाओं पर एतराज जताना भी शुरू कर दिया था, लेकिन बड़ा निर्णायक अवसर था, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बैंकॉक में हुई RCEP (Regional Comprehensive Economic Partnership) की बैठक में कहाकि मौजूदा स्वरूप में RCEP भारत के हितों की सुरक्षा नहीं करता है और आरसीईपी के मूल सिद्धांतों के खिलाफ है। और, इसी के साथ भारत, चीन और आसियान समूह के देशों के साथ बनने वाले महत्वपूर्ण कारोबारी समूह RCEP से बाहर हो गया। बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव के बाद RCEP से भारत का बाहर होना चीन के लिए बहुत बड़ा झटका था क्योंकि जैसे बीआरआई, भारत के न रहने से अप्रासंगिक हो रहा था, वैसे ही RCEP भी किसी काम का नहीं रहा।

राष्ट्रपति शी जिनपिंग पर पहले से ही घरेलू मोर्चे पर दबाव बढ़ रहा था। अमेरिकी कंपनियों के चीन से बाहर जाने की तैयारियों से आर्थिक तौर पर चीन के ऊपर दबाव बहुत बढ़ गया था और दूसरी तरफ चीन की सामरिक शक्ति को अमेरिकी, जापान, ऑस्ट्रेलिया और भारत के साथ आने से बड़ी चुनौती मिल रही थी। और, इन सब दबाव में चीन ने बड़ी गलती कर दी। डोकलाम में बुरी तरह से मात खाने के बावजूद तानाशाह चीन ने भारतीय सीमाओं में और भीतर घुसने का निर्णय कर लिया।

भारत अहिंसा परमो धर्म: की नीति पर चलता है और 1962 के युद्ध के परिणाम से भारत की सरकार और भारतीयों के मन में चीन को लेकर हमेशा आशंका भी रहती है। चीन इसी का लाभ उठाकर पूर्वी लद्दाख में ज्यादा भीतर तक घुस आया। दोनों देशों के बीच तय प्रोटोकॉल के तहत बातचीत करके उसका रास्ता निकलता, उससे पहले ही बुरी नीयत से चीन ने रंगरूट सैनिकों को तैनात करके भारतीय सैनिकों पर हमला कर दिया। 20 भारतीय जवान वीरगति को प्राप्त हो गये और अलग-अलग अंतर्राष्ट्रीय स्रोतों के मुताबिक करीब 100 चीनी सैनिकों की गर्दन भारतीय सैनिकों को ने तोड़ दी।

संचार क्रांति के युग में अपने सैनिकों के मारे जाने को चीन ने बहुत छिपाने की कोशिश की, लेकिन दुनिया को चीन के सामारिक शक्ति का सही अनुमान लग चुका था और इस बार चीन के नागरिकों को भी यह बात पता चल गई थी। पहली बार चीन के सोशल मीडिया वीबो पर मारे गये चीनी सैनिकों के बारे में जमकर चर्चा हो रही थी। भारतीय गुस्से में थे और भारत की सरकार ने मजबूत फैसले लेकर 1962 की ग्रंथि को तोड़ने में मदद की। भारत सरकार और भारतीय दोनों ही चीन के खिलाफ आर-पार की लड़ाई के लिए पूरी तरह बनाने लगे और भारत सरकार ने 59 चाइनीज एप पर प्रतिबंध के साथ की शुरुआत को आगे बढ़ाते हुए बड़ा फैसला लेकर कई टेंडर रद्द कर दिए और एक महत्वपूर्ण निर्णय के तहत भारत सरकार ने जनरल फाइनेंशियल रूल्स 2017 में संशोधन कर दिया, इससे भारत के साथ सीमा साझा करने वाले देशों से सरकारी खरीद पर प्रतिबंध लग गया है।

भारत सरकार के 59 चीनी ऐप पर प्रतिबंध के बाद दुनिया के लगभग हर देश में प्रतिबंध लगना शुरू हो गया। हुवेई और दूसरी चीनी कंपनियों को दिए गये ठेके भारत ने राष्ट्रीय सुरक्षा के आधार पर रद्द कर दिए। अब अमेरिकी कंपनियां हुवेई के साथ पूरी तरह से कारोबारी रिश्ते खत्म कर रही हैं। अमेरिका, यूरोपीय यूनियन के देश, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया और जापान अब चीन के खिलाफ मुखर हैं। भारत की राजनयिक सफलता दिखने लगी है। फ्रांस ने संयुक्त राष्ट्र से चीन के शिनजियांग प्रांत में उइघर मुसलमानों पर हो रहे अत्याचारों की जांच के लिए साझा मिशन भेजने की मांग की है।

अमेरिका और उसके साथी देश पहले भी चीन के खिलाफ अभियान चलाते रहे हैं, लेकिन दुनिया में अमेरिका की छवि भी यही है कि अपने हितों के लिए दूसरे देशों में भी वह दखल देता रहता है, लेकिन भारत को लेकर पूरी दुनिया स्पष्ट है कि भारत नेपाल और भूटान जैसे बेहद छोटे पड़ोसी देशों के साथ भी किसी तरह की विस्तारवादी नीति नहीं अपनाता है, इसीलिए भारत के साथ पूरी दुनिया खड़ी हो गई है। भारत के प्रति इसी भरोसे ने पहले से ही चीन की विस्तारवादी नीतियों से नाराज दुनिया को एक कर दिया है। हम भारतीय बेहद धार्मिक होते हैं और इसीलिए किसी पापी के बढ़ते जाने पर यह कहकर संतोष करते हैं कि अभी इसका पाप का घड़ा शायद नहीं भरा होगा। उस नजरिये से 15 जून 2020 चाइनीज कम्युनिस्ट पार्टी के तानाशाह शासन वाले चीन के लिए पाप का घड़ा भर जाने की तारीख थी, जिसका परिणाम अब उसे भुगतना ही पड़ेगा।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और हिंदी ब्लॉगर हैं)

सोशल मीडिया अपडेट्स के लिए हमें Facebook (https://www.facebook.com/moneycontrolhindi/) और Twitter (https://ttter.com/MoneycontrolH) पर फॉलो करें।