NANDAN UNNIKRISHNAN

आर्मेनिया और अजरबैजान (Armenia-Azerbaijan war) ने विवादित क्षेत्र नागोर्नो काराबाख को लेकर जारी संघर्स ने दुनिया को एक नए सीरे से सोचने पर मजबूर कर दिया है। दोनों देशों के बीच युद्ध का एक नया दौर शुरू हो गया है। ये विवाद लंबे समय से ठंडे बस्ते में था। मगर इस बार का संघर्ष इतना हिंसक है कि इसके भयंकर युद्ध में परिवर्तित होने से इनकार नहीं किया जा सकता है। ऐसा हुआ, तो क्षेत्र के अन्य बड़े ताकतवर देश तुर्की और रूस भी इसमें कूद सकते हैं। अजरबैजान और आर्मेनिया, दोनों ने ही अपने अपने यहां मार्शल लॉ लागू करने का ऐलान कर दिया है। अब दोनों ही देशों में बड़े पैमाने पर युद्ध के लिए मोर्चेबंदी शुरू हो गई है।

दरअसल, आर्मेनिया का दावा है कि इस बार की युद्ध शुरू करने के लिए अजरबैजान ही जिम्मेदार है, क्योंकि उसने ही सुबह सात बजे लाइन ऑफ कॉन्टैक्ट पर मिसाइल दागी। एक क्षेत्रीय न्यूज पोर्टल इंटेलिन्यूज के अनुसार, इस मिसाइल हमले में अजरबैजान की सेना ने नागोर्नो काराबाख की राजधानी स्टेपनाकर्ट को भी निशाना बनाया। वहीं, दूसरे सूत्रों का कहना है कि अजरबैजान ने दावा किया है कि उसके हमले में 550 से ज्यादा आर्मेनियाई नागरिक या तो मारे गए हैं या फिर घायल हुए हैं।

अजरबैजान का ये भी दावा है कि उसने नागोर्नो काराबाख में आर्मेनिया के गोला बारूद और दूसरे सैन्य संसाधनों के एक बड़े हिस्से को भी तबाह कर दिया है। इसी तरह, आर्मेनियाई सरकार का दावा है कि अजरबैजान को इस संघर्ष में अपने 200 सैनिक गंवाने पड़े हैं। उसके हथियार और गोला बारूद भी युद्ध में तबाह कर दिए गए हैं। इनमें टैंक, बख्तरबंद गाड़ियां, हेलीकॉप्टर और ड्रोन शामिल हैं। इंटरनेट पर दोनों ही पक्षों की ओर से ऐसे वीडियो पेश किए जा रहे हैं, जिनमें गोलीबारी और बारूदी सुरंगों से सैन्य हथियारों की क्षति दिखाई गई है। हालांकि, इन वीडियोज की प्रामाणिकता पर भी सवाल उठ रहे हैं।

दोनों देशों के बीच पहली बार हिंसक संघर्ष, 20वीं सदी की शुरुआत में छिड़ा था, जब 1917 में रूस में जार की हुकूमत का विघटन हो गया था। जब, रूस पर कम्युनिस्टों की सोवियत का कब्जा हुआ, तब जाकर आर्मेनिया और अजरबैजान के बीच शांति बहाल हो सकी थी। नागोर्नो काराबाख एक छोटा सा पहाड़ी इलाका है, जो चारों ओर से अजरबैजान से घिरा है। लेकिन, यहां की अधिकतर आबादी आर्मेनियाई मूल के लोगों की है। आर्मेनिया के नागरिक ईसाई हैं। वहीं, अजरबैजान में मुसलमान बहुसंख्यक हैं। जब भी इस इलाके में किसी साम्राज्य का विघटन हुआ है, तब तब अजरबैजान और आर्मेनिया में हिंसक संघर्ष छिड़ने की मिसालें देखने को मिलती हैं।

दोनों देशों के बीच, युद्ध का दूसरा दौर 1988 में तब शुरू हुआ, जब सोवियत संघ के विघटन की आशंका मंडरा रही थी। ये युद्ध 1994 में तब जाकर खत्म हो सका था, जब रूस, फ्रांस और अमेरिका ने दोनों देशों के बीच मध्यस्थता से युद्ध विराम कराया था। तब बिश्केक घोषणा के जरिए, आर्मेनिया और अजरबैजान के बीच शांति बहाल हुई थी। हालांकि, ये युद्ध विराम तब लागू हो सका था, जब आर्मेनिया ने एक बड़े इलाके पर कब्जा कर लिया था और नागोर्नो काराबाख के एनक्लेव से जमीनी तौर पर खुद को जोड़ लिया था। तब नागोर्नो काराबाख ने खुद को एक स्वतंत्र गणराज्य घोषित कर दिया था।

कुछ अनुमानों के अनुसार, आर्मेनिया और अजरबैजान के बीच उस युद्ध में 15 हजार से ज्यादा लोगों की जान गई थी और युद्ध के दौरान अजरबैजान में दो सरकारें भी चली गई थीं। उसके बाद से ही दोनों पक्षों को बातचीत की टेबल पर लाने की कोशिशें की जा रही थीं, लेकिन इसमें कुछ खास सफलता नहीं मिल सकी थी। शांति बहाली और बातचीत में इस असफलता के कारण ही एक बार फिर आर्मेनिया और अजरबैजान युद्ध के मैदान में आमने सामने खड़े हैं।

पिछले युद्ध में हार अजरबैजान को तंग करती रही है। इसी वजह से उसने अपने सैन्य बलों के आधुनिकीकरण करने और उन्हें नए नए हथियारों से लैस करने में काफी रकम खर्च की है। पिछले कुछ वर्षों में कच्चे तेल के दाम में बढ़ोत्तरी ने अजरबैजान के हौसले और बढ़ा दिए थे, लेकिन कोविड-19 के कारण अर्थव्यवस्था में सुस्ती और महामारी के कारण पैदा हुई चुनौतियों ने अजरबैजान के लोगों के बीच अपनी सरकार के प्रति नाखुशी बढ़ा दी है, क्योंकि लोगों के रहन सहन के स्तर में गिरावट आई है। ऐसे में एक युद्ध की शुरुआत करके निश्चित रूप से अजरबैजान की सरकार, घरेलू समस्याओं से अपनी जनता का ध्यान बंटाना चाहती है।

यहां एक बात और भी महत्वपूर्ण है। आर्मेनिया और अजरबैजान दोनों के बीच सैन्य स्तर पर कोई खास फर्क नहीं है। दोनों में से कोई भी इतना ताकतवर नहीं है कि वो दूसरे पक्ष पर निर्णायक जीत हासिल कर सके। ऐसे में, आर्मेनिया हो या अजरबैजान, कोई भी इस लड़ाई को लंबा खींचने के पक्ष में नहीं होगा, क्योंकि, अगर युद्ध से मौतों का आंकड़ा बढ़ा और अर्थव्यवस्था पर विपरीत प्रभाव पड़ा, तो इससे उनके देश की जनता अपनी सरकारों के खिलाफ हो सकती है।

वहीं, आर्मेनिया के मौजूदा राष्ट्रपति निकोल पशिनयान, 2018 में उस वक्त की सरकार के खिलाफ जनता के आंदोलन के नेता के तौर पर सत्ता में आए थे। उनके सामने और भी बड़ी चुनौती है। राजनीतिक विरोधी, पशिनयन को कई मसलों पर घेर रहे हैं। यानी आर्मेनिया का मौजूदा सत्ताधारी वर्ग भी घरेलू स्तर पर कई चुनौतियों से दो-चार है। ऐसे में उसे भी घरेलू समस्याओं से अपनी जनता का ध्यान बंटाने के लिए एक छोटे मोटे युद्ध से कोई परहेज नहीं है। यहां एक बात और भी महत्वपूर्ण है। आर्मेनिया और अजरबैजान दोनों के बीच सैन्य स्तर पर कोई खास फर्क नहीं है।

दोनों में से कोई भी इतना ताकतवर नहीं है कि वो दूसरे पक्ष पर निर्णायक जीत हासिल कर सके। ऐसे में, आर्मेनिया हो या अजरबैजान, कोई भी इस लड़ाई को लंबा खींचने के पक्ष में नहीं होगा, क्योंकि अगर युद्ध से मौतों का आंकड़ा बढ़ा और अर्थव्यवस्था पर विपरीत प्रभाव पड़ा, तो इससे उनके देश की जनता अपनी सरकारों के खिलाफ हो सकती है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ज्यादातर विश्लेषकों की राय यही है। ऐसे में उनका आकलन है कि आर्मेनिया और अजरबैजान की ये लड़ाई बहुत लंबी नहीं चलेगी। रूस, फ्रांस, जर्मनी, यूरोपीय संघ और दूसरे अंतरराष्ट्रीय संगठन कई बार आर्मेनिया और अजरबैजान से युद्ध विराम करने की अपील कर चुके हैं।

लेकिन, आर्मेनिया और अजरबैजान के बीच इस बार के युद्ध में कुछ ऐसे कारक मौजूद हैं, जो विश्लेषकों के पूर्वानुमान को गलत साबित कर सकते हैं। इनमें से एक है, इस संघर्ष में तुर्की की भूमिका। तुर्की इस वक्त खुलकर अजरबैजान का समर्थन कर रहा है। कुछ अपुष्ट खबरें तो ये भी दावा कर रही हैं कि तुर्की ने अजरबैजान की ओर से लड़ने के लिए सीरिया में उसके लिए लड़ने वाले जिहादी भी भी अजरबैजान भेजे हैं। इसके अलावा तुर्की ने अजरबैजान को अपने बैराक्टर TB2 हथियारबंद ड्रोन भी मुहैया कराए हैं।

तुर्की ने आर्मेनिया को चेतावनी दी है कि वो अजरबैजान से युद्ध को तुरंत रोक दे, वरना इससे पूरा इलाका जल उठेगा। तुर्की इस युद्ध में सीधे तौर पर शामिल होने का फैसला करता है, तो इससे निश्चित रूप से रूस भी आर्मेनिया की ओर से युद्ध में कूदने को मजबूर हो जाएगा, क्योंकि आर्मेनिया असल में रूस के नेतृत्व वाले कलेक्टिव सिक्योरिटी ट्रीटी ऑर्गेनाइजेशन (CSTO) का सदस्य है। इस संगठन के सभी सदस्य किसी एक देश के ऊपर बाहर से आक्रमण होने की स्थिति में एक दूसरे का साथ देने के लिए वचनबद्ध हैं। अगर हालात ऐसे बनते हैं, तो इसका असर कॉकेशस क्षेत्र के बाहर भी महसूस किया जाएगा। फिर तो आर्मेनिया और अजरबैजान के बीच युद्ध का असर हम उत्तरी अफ्रीका से लेकर पश्चिमी एशिया तक होते देखेंगे।

रूस के मशहूर विदेशी मामलों के विशेषज्ञ दिमित्री ट्रेनिन ने इन परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए ट्वीट किया था कि अगर तुर्की ने आर्मेनिया पर हमला किया तो इससे CSTO समझौता अपने आप लागू हो जाएगा और इससे हो सकता है कि नैटो भी इस युद्ध में कूद पड़े। ये सोचना ही बड़ा भयानक है। ट्रेनिन ने अपने ट्वीट में आगे लिखा था कि नागोर्नो काराबाख का मामला अब केवल युद्ध विराम के उल्लंघन का सीमा पर सीमित संघर्ष का मसला नहीं रह गया है। युद्ध जारी है। समय आ गया है कि रूस, अमेरिका और फ्रांस अलग अलग या आपस में मिलकर इस युद्ध को रोकने की कोशिश करें।

हालांकि, अच्छी बात ये है कि इस समय तुर्की और रूस के संबंध बेहद अच्छे दौर से गुजर रहे हैं। तुर्की के राष्ट्रपति अर्दोआन और रूस के प्रेसिडेंट पुतिन आपस में बात करके किसी भी आपसी मतभेद को सुलझाने में सक्षम हैं। दोनों ही नेता अब तक आपसी संबंधों को सीरिया, लीबिया और भूमध्य सागर से संबंधित विवादों के बीच से सुरक्षित निकाल कर आपसी सहयोग के रास्ते पर ले आए हैं। आर्मेनिया और अजरबैजान के बीच इस संघर्ष में शायद रूस सबसे अहम खिलाड़ी है, क्योंकि, रूस के आर्मेनिया और अजरबैजान, दोनों से ही बहुत अच्छे संबंध हैं।

ऐसे में देखना ये होगा कि रूस किस तरह से आर्मेनिया और अजरबैजान के साथ अपने रिश्तों में संतुलन बनाए रखते हुए युद्ध विराम करा पाता है। इसी से नागोर्नो कारबाख के संघर्ष की दशा और दिशा तय होगी। अच्छी बात ये है कि रूस समेत दुनिया के ज्यादातर देशों ने नागोर्नो काराबाख को एक स्वतंत्र देश के तौर पर मान्यता नहीं दी है।

सोशल मीडिया अपडेट्स के लिए हमें Facebook (https://www.facebook.com/moneycontrolhindi/) और Twitter (https://twitter.com/MoneycontrolH) पर फॉलो करें।