आश्चर्यचनक किंतु सत्य! सिर्फ पांच साल के भीतर बिहार में एक की जगह बारी-बारी कुल नौ मुख्यमंत्री बने। राजनीतिक अस्थिरता और दल बदल की आंधी के बीच साल 1967 से 1972 तक राज्य में बारी-बारी से नौ मुख्यमंत्री रहे। देश में संभवतः ऐसे मामले में यह एक रिकार्ड था। यह भी रिकॉर्ड ही था कि भोला पासवान शास्त्री उसी पांच साल के भीतर तीन बार मुख्यमंत्री बने। उस बीच सन 1969 मे बिहार विधान सभा का मध्यावधि चुनाव भी करवाना पड़ा।
सबसे पहले उन मुख्यमंत्रियों के नाम जान लीजिए। महामाया प्रसाद सिन्हा,सतीश प्रसाद सिंह, बी.पी.मंडल,भोला पासवान शास्त्री,सरदार हरिहर सिंह, दारोगा प्रसाद राय और कर्पूरी ठाकुर। कांग्रेस विरोधी हवा के बीच सन 1967 में हुए आम चुनाव के बाद संयुक्त मोर्चा की सरकार बिहार में बनी। उस सरकार के मुख्य मंत्री थे महामाया प्रसाद सिन्हा। पर,संयुक्त मोर्चा में शामिल और उसके समर्थक 33 विधायकों ने दल बदल करके महामाया सरकार को गिरा दिया। बीपी मंडल को विधान परिषद का सदस्य मनोनीत करने के लिए चार दिनों के सतीश प्रसाद सिंह मुख्य मंत्री बने। यह भी एक रिकार्ड ही था।
बीपी मंडल की सरकार सिर्फ 50 दिनों तक चली
सतीश प्रसाद सिंह के बाद बीपी मंडल के नेतृत्व में मंत्रिमंडल का गठन हुआ। संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के नेताओं का आरोप था कि कांग्रेस ने संयुक्त मोर्चा में दल बदल को इसलिए बढ़ावा दिया ताकि उसके नेता अय्यर आयोग की जांच के प्रभाव से बच सकें। पर, बीपी मंडल सरकार सिर्फ 50 दिनों तक ही चल सकी। क्योंकि मंडल सरकार को बाहर से समर्थन दे रही कांग्रेस में विद्रोह हो गया।
बिहार विधान सभा के पूर्व स्पीकर और कांग्रेसी नेता लक्ष्मी नारायण सुधांशु के नेतृत्व में लोकतांत्रिक कांग्रेस का गठन हुआ। इस संगठन ने समर्थन देकर भोला पासवान शास्त्री को 22 मार्च 1968 को मुख्यमंत्री बनवा दिया। शास्त्री जी देश के प्रथम दलित मुख्यमंत्री बने। उनकी छवि स्वच्छ थी। राजनीतिक उथल-पुथल और अस्थिरता के बीच सन 1969 में बिहार विधान सभा का मध्यावधि चुनाव करवाना पड़ा। उस चुनाव के बाद कांग्रेस के सरदार हरिहर सिंह मुख्य मंत्री बने।
हरिहर सिंह की सरकार सिर्फ 116 दिन चली
सन 1969 के चुनाव में कांग्रेस ने उन छह नेताओं को टिकट नहीं दिया जिनके खिलाफ अय्यर आयोग जांच कर रहा था। कांग्रेस के कई नेता तब एक हद तक गरिमा का पालन करते थे। इन छह टिकट वंचित नेताओं में से किसी ने पार्टी से विद्रोह करके चुनाव नहीं लड़ा, न ही अपने परिजन को अपनी सीट से लड़वाया। पर, सरदार हरिहर सिंह की सरकार भी 116 दिन ही चल सकी।
भोला प्रसाद शास्त्री की सरकार सिर्फ 12 दिन चली
एक बार फिर भोला पासवान शास्त्री मुख्य मंत्री बने। शास्त्री जी इस बार सिर्फ 12 दिनों तक ही अपने पद पर बने रहे। उन दिनों बिहार की राजनीति में दल बदल की आंधी चल रही थी। 16 फरवरी, 1970 को कांग्रेस के दारोगा प्रसाद राय मुख्यमंत्री बने। वैसे दारोगा प्रसाद राय की जगह सरकार बनाने का अवसर संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (संसोपा) को पहले मिला था। संसोपा ने अपने सहयोगी दलों को मिलाकर अपना बहुमत भी बना लिया था। रामानंद तिवारी नेता भी चुन लिये गये थे। उन्हें राज भवन जाकर सिर्फ शपथ ग्रहण करना था। पर अंतिम क्षणों में तिवारी जी ने यह कह दिया कि मैं भारतीय जनसंघ जैसे सांप्रदायिक दल के साथ मैं सरकार नहीं बनाऊंगा।
दारोगा प्रसाद राय की सरकार 309 दिनों तक चली
तिवारी जी के मना करने के बाद दारोगा प्रसाद राय ने मुख्य मंत्री पद की शपथ ग्रहण कर ली। उस समय राजनीतिक हलकों में यह कहा गया था कि संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी का कर्पूरी ठाकुर गुट यह नहीं चाहता था कि तिवारी जी मुख्यमंत्री बनें। राजनीतिक अस्थिरता और विधायकों की सौदेबाजी के माहौल के बावजूद दारोगा प्रसाद राय की सरकार 309 दिनों तक चली। लेकिन, वह अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई। दल बदल के कारण उनकी सरकार गिर गई।
22 दिसंबर 1970 को संसोपा के कर्पूरी ठाकुर पहली बार मुख्यमंत्री बने। कर्पूरी ठाकुर सरकार को भारतीय जनसंघ और संगठन कांग्रेस के साथ-साथ कुछ अन्य छोटे दलों का समर्थन हासिल था। विडंबना यह रही कि जिस रामानंद तिवारी ने मुख्यमंत्री बनने से इनकार कर दिया था,उन्होंने कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व वाली उस सरकार में मंत्री बनना मंजूर कर लिया जिसमें जनसंघ साझीदार था।
कर्पूरी ठाकुर की सरकार सिर्फ 162 दिनों तक चली
एक और ऐसी बात हुई जिससे गैर कांग्रेसी दलों की नैतिक धाक घटी। जिस महामाया सरकार ने अय्यर आयोग का गठन किया था, उस सरकार में कर्पूरी ठाकुर और रामानंद तिवारी भी शामिल थे। आयोग ने छह कांग्रेसी नेताओं के खिलाफ आरोपों की जांच की थी। पर कर्पूरी ठाकुर की सन 1970 वाली सरकार ने उन छह में से एक नेता को बिहार वित्तीय निगम का अध्यक्ष बना दिया। याद रहे कि आयोग ने इन छह कांग्रेसियों में से किसी को भी दोषमुक्त घोषित नहीं किया था।
इस समझौते के बावजूद कर्पूरी ठाकुर की सरकार सिर्फ 162 दिन ही चल सकी। 2 जून 1971 को एक बार फिर भोला पासवान शास्त्री के नेतृत्व में वैकल्पिक सरकार बन गई। वह सरकार 9 जनवरी 1972 तक चली। 1972 में बिहार विधान सभा का आम चुनाव हुआ। बांग्ला देश युद्ध की पृष्ठभूमि में वह चुनाव हुआ। कांग्रेस ने चुनाव में युद्ध में जीत का प्रचार किया। कांग्रेस को पूर्ण बहुमत मिल गया। उसके बाद बिहार में राजनीतिक स्थिरता आ गई।