बीजेपी ने बिहार में जीत का जश्न मनाना शुरू कर दिया है। बीजेपी की यह जीत एकतरफा दिख रही है। वह दिन खत्म हुए जब बीजेपी को अगड़ी जातियो के सपोर्ट वाली 'शहरी-ब्राह्मण-बनिया' पार्टी माना जाता था। इसने अब ग्रामीण इलाकों में अति पिछड़ी जतियों (ईसीबी) और महादलितों में पैठ बना ली है।
मुस्लिम-यादव आधारित लालू प्रसाद यादव की राजनीति का मिथ तो 2005 में ही खत्म हो गया था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जो खुद पिछड़ी जाती से आते हैं, उनका बिहार से खास लगाव है। उन्होंने राज्य के विकास को लेकर प्रतिबद्धता जताई है। 'पलटू राम' की छवि के बावजूद उन्होंने नीतीश कुमार पर भरोसा बनाए रखा। यह गेम चेंजर साबित हुआ।
बिहार की राजनीति में जातियों की बड़ी भूमिका है। 2022-23 के जाति-सर्वे के मुताबिक, राज्य में ईबीसी की आबादी 36 फीसदी, ओबीसी की आबादी 27.1 फीसदी, एससी की 19.6 फीसदी, अगड़ी जातियों की 15.5 फीसदी और एसटी की 1.6 फीसदी है। जाति आधारित राजनीति वाले बिहार में विकास का मसला पीछे रह जाता है। हर जाति के अपने नेता रहे हैं। कर्पूरी ठाकुर 1970 के दशक में पिछड़ी जातियों के नेता बनकर उभरे थे। बाद में लालू यादव, नीतीश कुमार और राम विलास पासवान ने दलितों और पिछड़ी जातियों की नुमाइंदगी की।
इनमें लालू प्रसाद यादव सबसे स्मार्ट थे। यादवों के मजबूत समर्थन के दम पर लालू ने खुद को अल्पसंख्यकों के मसीहा के रूप में पेश किया। उन्होंने ईबीसी और महा दलितों को भी साधा। उन्होंने राजपूतों को भी भरोसे में लिया। उनके करीबी सहयोगी रघुवंश प्रताप सिंह इसके उदाहरण थे। बाद में नीतीश कुमार और राम विलास पासवान ने जनता दल से नाता तोड़ लिया। कुर्मी-कुशवाहा और दलित मतदाताओं पर लालू की पकड़ ढीली पड़ गई।
1990 के विधानसभा चुनावों में 4 बड़ी जातियों-यादव, कुर्मी, कोयरी और बनिया की राजनीतिक ताकत में बड़ा बदलाव आया। दलित आबादी में ज्यादा होने के बावजूद अगड़ी और पिछड़ी जातियों वाली इस राजनीति से बाहर रहे। लालू यादव के अच्छे दिन 2005 तक जारी रहे, जब अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई वाली भाजपा के समर्थन से नीतीश कुमार ने लालू के किले में बड़ी सेंध लगाई। यह 15 सालों के लालू के शासन के खात्मा का संकेत था, जो भ्रष्टाचार, अपराध, कुशासन, गरीबी और लालू परिवार से जुड़े यादवों के अत्याचार की वजह से बदनाम हो चुकी थी।
बिहार में दलित की आबादी 19.5 फीसदी है। इसमें पासवान 5.31 फीसदी, रविदास 5.25 फीसदी और मुशहर 3.1 फीसदी हैं। आबादी के हिसाब से दलितों का बिहार में दमदार पोजीशन होनी चाहिए थी। लेकिन, गरीबी की वजह से ऐसा नहीं था। किसी दलित के पास 10 एकड़ या इससे ज्यादा जमीन नहीं थी। बिहार में 44 फीसदी दलित भूमिहीन हैं। इसके मुकाबले अगड़ी जातियों में सिर्फ 2.9 फीसदी आबादी भूमिहीन है।
बिहार में बीजेपी की तब तक मामूली मौजूदगी थी जब तक लालू के उभार को जॉर्ज फर्नांडीस और नीतीश कुमार का साथ मिलता रहा। 1995 में दोनों नेताओं ने बीजेपी से हाथ मिला लिया। फिर नीतीश कुमार के कुर्मी मतदाताओं के समर्थन में बीजेपी की स्थिति मजबूत होने लगी। फिर इसे गैर-यादवों, महादलित और ईबीसी का समर्थन मिलना शुरू हो गया। इससे एनडीए का अच्छा वोट बैंक बना। बिहार की राजनीति की दिशा तब बदली जब नवंबर 2005 में 15 साल के लालू के कुशासन के बाद नीतीश ने एनडीए की सरकार बिहार में बनाई।
नीतीश कुमार की छवि धर्मनिरपेक्ष और ईमानदार नेता की रही है। नीतीश खुद पिछड़ी जाति से आते हैं। इससे बिहार में एनडीए को पैठ बढ़ाने में मदद मिली है। हालांकि, 2015 और 2020 के बीच नीतीश कुमार कभी इस गठबंधन के साथ तो कभी उस गठबंधन के साथ जाते रहे। इसके बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उन्हें एनडीए के साथ लाने में कामयाब रहे। यह कहा जा सकता है कि पीएम नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के साथ ही पिछड़ी जाति के नीतीश पर उनके अटूट भरोसे से 2025 में एनडीए की जीत में बड़ी भूमिका निभाई।