जिंदगी ने दर-ब-दर कर दिया, लेकिन किस्मत ने फिर बुलंदी पर पहुंचाया। ये कहानी उतनी ही फिल्मी है, जितना मसाला इनकी फिल्मों में होता था। गोपालदास परमानंद सिप्पी जब कराची में अपना सब कुछ छोड़ कर निकले, तो उन्हें खबर भी नहीं थी कि जिंदगी अब कौन सा रंग दिखाएगी। लेकिन अपनी सोच और जज्बे के दम पर उन्होंने वो कर दिखाया, जिसे करने के लोग सिर्फ सपने देखते हैं।
1947 में भारत-पाकिस्तान के बंटवारे के बाद अपना बसा-बसाया कारोबार, आलिशान घर और जिंदगी छोड़ कर परिवार के साथ मुंबई (तब के बॉम्बे) आ गए। यहां छोटा-मोटा कारोबार शुरू किया। न्यू यॉर्क टाइम्स में छपी रिपोर्ट के मुताबिक जीपी सिप्पी ने कभी सड़कों पर कालीन बेची तो कभी मुंबई में रेस्तरां खोला। उन्होंने कंस्ट्रक्शन बिजनेस में काम करना शुरू किया और इसी दौरान कुछ ऐसा हुआ, जिसने उनकी जिंदगी का रुख मोड़ दिया। मुंबई में उस समय के कुछ शुरुआती अपार्टमेंट भी बनाए।
जीपी सिप्पी जब तब की बॉलीवुड सुपरस्टार नर्गिस दत्त के लिए घर बना रहे थे, तो फिल्मी दुनिया को करीब से जानने का मौका मिला। धीरे-धीरे इस दुनिया के लिए उनका लगाव बढ़ने लगा और वो खुद को इसके आकर्षण से दूर नहीं रख पाए। उन्होंने एक शॉर्ट फिल्म में काम किया, जो चली नहीं। इसके बाद उन्होंने कुछ कम बजट वाली क्राइम फिल्में भी बनाईं। लोग अक्सर उन्हें पूरी तरह से फिल्म के कारोबार में उतरने के लिए कहते थे। उन्होंने 1953 में फिल्म ‘सजा’ प्रोड्यूस करने के साथ बॉलीवुड के साथ अपना वो सफर शुरू किया, जिसने उन्हें आसमान की बुलंदियों पर पहुंचा दिया। फिल्म को खास तवज्जो नहीं मिली।
जीपी सिप्पी ने कई फिल्मों में निवेश किया, डायरेक्टर बने, प्रोड्यूसर बने, मगर सफलता बहुत दूर थी। उन्हें नए नजरिये की जरूरत थी। सो अपने बेटे रमेश को वो लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से वापस भारत ले आए और कारोबार संभालने को कहा। इसके बाद 1975 में हिंदी फिल्म इंडस्ट्री का वो करिश्मा हुआ, जिसे दुनिया ‘शोले’ के नाम से जानती है। इसे रमेश सिप्पी ने डायरेक्ट किया और कहानी और डायलॉग सलीम-जावेद की जोड़ी ने लिखे। ‘शोले’ ने भारतीय सिनेमा के नए मायने गढ़े। ये फिल्म कल्ट क्लासिक बनी। अमिताभ बच्चन, जया बच्चन, धर्मेंद्र, हेमा मालिनी, संजीव कुमार और गब्बर के रोल में अमजद खान ने अपने करियर का कभी न भूलाने वाला रोल किया। तीन करोड़ के बजट में बनी फिल्म पांच साल तक सिनेमाघरों से नहीं उतरी। इस फिल्म ने अपनी कहानी कहने की कला, अद्भुत किरदार और बेमिसाल डायलॉग से एक खास मुकाम हासिल किया। इसके अलावा सिप्पी ने ‘शान’, ‘सीता और गीता’, ‘सागर’, ‘राजू बन गया जेंटलमैन’, ‘पत्थर के फूल’ जैसी कई फिल्में बनाईं। 2007 में 93 साल की उम्र में जीपी सिप्पी ने अंतिम सांस ली।