Dussehra 2025 Special: दिल्ली में जन्मे अभिनेता अमोल पाराशर दिल से खाने के शौकीन हैं। जब दशहरा आता है, तो वह पुरानी दिल्ली की मशहूर चाट का लुत्फ़ उठाने का मौका बिल्कुल नहीं छोड़ते। हाल ही में, राजधानी में, अपना स्टेज शो करने के लिए, 39 वर्षीय अभिनेता लाल किला मैदान में चल रही एक प्रतिष्ठित रामलीला में घुस गए और श्री धार्मिक रामलीला समिति की रामलीला के फ़ूड कोर्ट में स्ट्रीट फ़ूड का स्वर्ग देखकर उनकी खुशी का ठिकाना नहीं था। वेब सीरीज़ ट्रिपलिंग और बॉलीवुड फिल्म सरदार उधम (2021) के लिए मशहूर इस अभिनेता ने अपना अनुभव शेयक किया।
हिंदुस्तान टाइम्स से बात करते हुए अमोल ने बात करते हुए अपना अनुभव शेयर किया है। एक्टर ने लाल किला मैदान गए, उसकी नज़र फ़ूड कोर्ट पर पड़ी, जिसमें मटर कुल्चा से लेकर पाव भाजी तक दिल्ली के प्रसिद्ध व्यंजन मौजूद थे और वह सीधे चाट की दुकान पर पहुंच गए। स्ट्रीट फ़ूड के प्रति अपने प्रेम को साझा करते हुए, उन्होंने कहा कि दिल्ली अपने स्ट्रीट फ़ूड के लिए जानी जाती है और लंबे समय से इस शहर की चाट ने हमेशा मेरे मुंह में पानी ला दिया है।
एक्टर ने कहा कि मैं अक्सर कहता हूं कि भले ही मुझे मीठा पसंद न हो, लेकिन चाट ज़रूर पसंद है! पापड़ी चाट और गोलगप्पे हमेशा मेरे पसंदीदा रहेंगे। मुझे वो चाट बहुत पसंद है, जो मुझे पसीना दिला दे, और इसे खाने का पूरा मज़ा यही है। तो चाट का मज़ा तभी है जब वो तीखी हो।”
अमोल याद करते हैं, "मेरी नानी चांदनी चौक में रहती थीं और मैं बचपन में उनके घर पर काफ़ी समय बिताता था। नानी के घर पर छुट्टियां और त्यौहार बिताने की मेरी बहुत ही खूबसूरत यादें हैं, जो आज भी मेरे ज़ेहन में ताज़ा हैं। उन दिनों जब भी मैं पुरानी दिल्ली जाता था, रामलीला ज़रूर जाता था!
अमोल ने बताया कि मुझे अच्छी तरह याद है कि उस समय भी रामलीला का कितना बड़ा तमाशा होता था, लोगों की भारी भीड़, धूमधाम और उत्साह इतना साफ़ दिखाई देता था कि मानो कोई भव्य आयोजन हो। समय के साथ, रामलीला का मंचन काफ़ी बड़ा हो गया है, लेकिन आज भी उत्सवी माहौल वही है।"
अमोल याद करते हैं, "बचपन में, मुझे याद है कि एक बार मैंने अपनी कॉलोनी में रामलीला में हिस्सा लिया था। यह स्थानीय बच्चों द्वारा आयोजित की गई थी, इसलिए यह कोई पेशेवर आयोजन नहीं था, लेकिन फिर भी इसमें बहुत मज़ा आता था! हर किसी के पास मंच के पीछे की कहानियाँ होती थीं, मंच पर अप्रत्याशित बदलाव होते थे, और आखिरी समय में कलाकारों का चयन होता था।
यही सब इसे यादगार बनाता था।" उन्होंने आगे कहा, "यह बहुत ही दिलचस्प है कि रामायण या रामचरितमानस, जिसे हम रामलीला कहते हैं, के दृश्यों के मंचन की परंपरा इतने लंबे समय से चली आ रही है। बुराई पर अच्छाई की जीत की इस महाकाव्य में नैतिकता और न्याय के कई सबक छिपे हैं। जब जनसंचार के कोई और साधन नहीं थे, तब शायद यही इन सबकों को फैलाने का सबसे अच्छा तरीका था।
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