
Moheener Ghoraguli: रॉक कल्चर आज की जनरेशन को भी अपनी ओर तेजी से खींच रहा है। रॉक म्यूजिक के युवा दीवाने हो रहे हैं। ये भारत में भी नया नहीं है। रॉक म्यूजिक की बात करें तो 1975 में देश के पहले रॉक बैंड को बनाया गया था। आप भारत के पहले रॉक बैंड के बारे में जानते हैं?
भारत का पहला रॉक बैंड 1975 में कोलकाता में बनाया गया था। गौतम चट्टोपाध्याय के नेतृत्व वाले इस बैंड का नाम मोहिनर घोड़ागुली (जिसका अर्थ है मोहिन के घोड़े) था। मेन म्यूजिशियन गौतम चट्टोपाध्याय (स्वर, मुख्य गिटार, सैक्सोफोन, लोक वाद्ययंत्र, गीत) के अलावा, मोहिनर घोड़ागुली में प्रदीप चटर्जी (बास गिटार, बांसुरी), तापस दास (गीत, स्वर, गिटार), रंजन घोषाल (गीत, एमसी, दृश्य, मीडिया संबंध), बिश्वनाथ (बिशु) चट्टोपाध्याय (ड्रम, बास वायलिन), अब्राहम मजूमदार (पियानो, वायलिन) और तपेश बंदोपाध्याय (स्वर, गिटार) शामिल थे।
बैंड की खासियत थी इसका बंगाली फोक (लोकगीत), बाउल, शहरी अमेरिकी फोक और जैज़ सहित कई प्रकार के गाने। यह बैंड पश्चिमी रॉक संगीत को पारंपरिक बंगाली लोक और बाउल संगीत के साथ मिक्स म्यूजिक देने के लिए जाना जाता था, जिससे एक नई और अनोखे जॉनर का निर्माण हुआ, जिसे अक्सर "बाउल जैज़" कहा जाता है।
'मोहिनीर घोड़ागुली' में गिटार, सैक्सोफोन, ड्रम जैसे विभिन्न प्रकार के म्यूजिकल इंस्ट्रूमेंट के साथ-साथ इकतारा, वायलिन, बांसुरी आदि का प्रयोग किया गया था, जिन्हें बंगाली रॉक संगीत में प्रयोग किया गया था। गौतम चटर्जी ने बाउल, रॉक और लैटिन संगीत के टैंगो-साल्सा को मिलाकर संगीत की एक नई दुनिया रच डाली थी। बोलों की विविधता और स्टेज परफॉमेंस के साथ, उन्होंने गानों को एक ऐसा रूप दिया जो सत्तर के दशक के लिए क्रांतिकारी था।
मोहीनर घोरागुली ने अपने गीतों के जरिए सामाजिक मुद्दों, शहरी संस्कृति और कोलकाता में आधुनिक जीवन की परेशानियों के बारे में बात की। उनके गानों को अक्सर 1960 के दशक में बॉब डायलन के नेतृत्व वाले शहरी लोक आंदोलन के समान, व्यक्तिगत और सामाजिक प्रकृति के रूप में पेश किया गया।
उनके एल्बमों का टाइटल "शोंगबिग्नो पाखीकुल ओ कोलकाता बिशायक" (1977), "अजाना उरोंतो बोस्तु बा औ-ऊ-बाव" (1978), "दृश्योमान मोहीनेर घोड़ागुली" (1979), "आबार बोछोर कुरी पोरे" (1995), "झोरा सोमॉयर गान" (1996), और "माया" (1997) हैं।
हालांकि अपने सक्रिय काल (1975-1981) के दौरान बैंड को उम्मीद के मुताबिक नेम और फेम नहीं मिल पाई थी। फिर भी उनके म्यूजिक और गाने लिखने के तरीके का बंगाली म्यूजिक पर, विशेष रूप से 1990 के दशक में आधुनिक बंगाली बैंड परिदृश्य को आकार देने में, गहरा प्रभाव पड़ा।
मोहिनीर घोड़ागुली की विरासत शैलियों के उनके अभिनव सम्मिश्रण, उनके सामाजिक रूप से जागरूक गीतों और एक विशिष्ट बंगाली रॉक संगीत परिदृश्य की स्थापना में उनकी भूमिका में अहम है। उन्हें एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक शक्ति के रूप में याद किया जाता है, जिसने परंपराओं को चुनौती दी और बंगाल में संगीतकारों की भावी पीढ़ियों को प्रेरित किया।
मोहिनीर घोड़ागुली को "जीबोनमुखी गान" या 'साधारण जीवन के गीत' की शैली के लिए भी मान्यता प्राप्त है, जिसे 1990 के दशक में कबीर सुमन, नचिकेता और अंजन दत्ता जैसे कलाकारों ने लोकप्रिय बनाया। मोहिनर घोड़ागुली के मुख्य गायक, गीतकार और लोकप्रिय एल्बमों के रचयिता गौतम चट्टोपाध्याय अपने समय से बहुत आगे थे। उन्होंने मोहिनर घोड़ागुली की स्थापना उस समय की थी जब बंगाली दर्शक बांग्ला रॉक के लिए तैयार नहीं थे! मोनी दा के नाम से लोकप्रिय गौतम ने न केवल बंगाल में, बल्कि पड़ोसी बांग्लादेश में भी अनगिनत युवा गायकों को प्रेरित किया।
उनके नेतृत्व में ही 1970 के दशक के मध्य में कोलकाता में बंगाली संगीत में एक नया चलन शुरू हुआ। 'मोहिनर घोरागुली' को 1960 के दशक में दुनिया भर में लोकप्रिय 'अर्बन फोक' शैली का अनुयायी कहा जा सकता है। संगीत की पारंपरिक भावना से आगे बढ़कर, गौतम और उनके बैंड के साथी राजनीति—क्रांति, प्रेम, गरीबी, अन्याय, स्वतंत्रता—को अपने गीतों में उस समय की हर प्रासंगिकता के साथ लाने में सक्षम थे। गौतम कथित तौर पर उस समय नक्सलबाड़ी आंदोलन में शामिल थे। गौतम चट्टोपाध्याय की इस राजनीतिक धारा में भागीदारी ने उनके संगीत को प्रभावित किया होगा।
सत्तर के दशक में ऐसे गीतों को समझने और स्वीकार करने वाले लोग बहुत कम थे। उस समय की संगीत कंपनियां भी इस बैंड को बनाए रखने की ताकत नहीं रखती थीं। इसलिए, अपनी स्थापना के बाद, मोहिनीर घोड़ागुली 1976 से 1981 तक, केवल छह साल ही सक्रिय रहा। उसके बाद, बैंड के सदस्य अपनी आजीविका चलाने में व्यस्त हो गए। 1981 में बैंड के अलग होने से पहले, फैंस के पास तीन एल्बमों के केवल आठ गाने, 15 से 20 शो और कुछ अनरिकॉर्डेड गाने ही बचे थे।
अस्सी के दशक में गौतम चट्टोपाध्याय ने कोलकाता में अपने गानों के प्रति एक नया क्रेज देखा गया। ये गाने कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में गाए जाने लगे और कोलकाता के युवाओं के बीच लोकप्रियता हासिल कर रहे थे। युवा गिटार बजा रहे थे और उनके लोकप्रिय गाने गुनगुना रहे थे। प्रशंसक बेचैन होने लगे, सबके मन में बस एक ही सवाल था—मोहिन के घोड़े कब तक सोएंगे?
अपने बढ़ते प्रशंसक आधार के इस आह्वान पर प्रतिक्रिया देते हुए, बैंड ने 1995 के कोलकाता पुस्तक मेले में अपनी वापसी की। 'मोहिनर घोरागुली' ने जल्द 'अबार बोच्चोर कुरी पोरे' एल्बम रिलीज किया। इस बार नए लोगों को काम दिलाने की बारी थी। गौतम चट्टोपाध्याय, एक सच्चे मार्गदर्शक की तरह, सभी को आगे लाए और उन्हें गाने का मौका दिया। 'मोहिनर घोड़ागुली' द्वारा संपादित इस एल्बम ने दर्शकों के बीच अपार लोकप्रियता हासिल की। इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा! 1999 तक, 'मोहिनर घोड़ागुली' के लेबल से कुल चार एल्बम रिलीज़ हुए।
मोहीनर घोड़ागुली के गाने जैसे "तोमे दिलम", "टेलीफोन" और "पृथिबिता नाकी छोटो होते होते" आज भी श्रोताओं के कानों में गूंजते हैं। पचास साल बीत गए लेकिन मोहीनर घोड़ागुली अपने संगीत के जरिए संगीत प्रेमियों के दिलों में आज भी जीवित हैं।
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