Iconic villains: यादगार सिनेमा को चाहिए यादगार खलनायक... धुरंधर का रहमान डकैत इसका नया सबूत
Iconic villains: धुरंधर की सफलता साबित करती है कि यादगार फिल्में यादगार विलेन से बनती हैं। रहमान डकैत की लोकप्रियता गब्बर, मोगैंबो, जोकर और थैनोस की परंपरा का नया सबूत है। जहां खलनायक कहानी की दिशा, वजन और भावनात्मक प्रभाव तय करता है। मिलिए उन खल पात्रों से, जिन्होंने सिनेमा जगत को नई दिशा दी।
कहानी उतनी ही महान होती है, जितना महान उसका विरोध हो।
Iconic villains: सिनेमा को अक्सर हीरो की यात्रा के रूप में देखा जाता है। एक व्यक्ति जो संघर्षों से भरी दुनिया में खड़ा होता है, लड़ता है, टूटता है और अंत में जीतता है। लेकिन 'धुरंधर' की सफलता ने भारतीय सिनेमा को उस गहरे सवाल के सामने फिर से खड़ा कर दिया है, जिसे फिल्म थ्योरी में 'नैरेटिव ऑथरिटी' कहा जाता है: कहानी का असली मालिक कौन होता है? क्या वह जो जीतता है?
या वह जो कहानी को अपनी मौजूदगी, अपने डर, अपनी विचारधारा और अपनी इच्छा शक्ति से ढाल देता है? यानी विलेन! धुरंधर के लिए नायक रनवीर सिंह से ज्यादा तालियां रहमान डकैत का किरदार निभाने वाले अक्षय खन्ना के हिस्से में आ रही हैं। यही अंतर फिल्मों की किस्मत तय करता है।
जब खलनायक के पास तर्क होता है, चाहे वह कितना ही खतरनाक और गलत क्यों न हो,स तब कहानी में नैतिक उलझन पैदा होती है। दर्शक यह समझने लगता है कि यह संघर्ष सिर्फ अच्छा बनाम बुरा नहीं है। यह संघर्ष व्यवस्था बनाम अराजकता, नैतिकता बनाम इच्छा, और मूल्य बनाम अस्तित्व है।
धुरंधर का विलेन रहमान डकैत इसी कैटेगरी में आता है। उसका हर कदम, हर फैसला कहानी की दिशा तय करता है। वह हिंसक है- पर अर्थहीन नहीं। उसके इरादे अंधेरे हैं- पर लक्ष्य स्पष्ट। यही उसे 'किरदार' नहीं, 'विचार' बनाता है।
आइए देश-दुनिया के सिनेमा जगत के कुछ खतरनाक खल पात्र के बारे में जानते हैं, जिन्होंने नायक से ज्यादा तालियां और तारीफें बटोरीं। और फिल्म को इतिहास में अमर कर दिया।
मदर इंडिया का सुखीलाल
विलेन की सामान्य परिभाषा यह कहती है कि वह एक व्यक्ति होता है। किसी गब्बर जैसा शातिर, किसी थैनोस जैसा शक्तिशाली, किसी जोकर जैसा अराजक। लेकिन मदर इंडिया भारतीय सिनेमा में एक दुर्लभ उदाहरण है, जहां खलनायक कोई व्यक्ति नहीं, बल्कि पूरी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था है। यही इसे एक विशिष्ट और असाधारण केस स्टडी बनाता है।
मदर इंडिया का विरोधी चेहरे वाला राक्षस नहीं है- वह है सूखा, गरीबी, कर्ज, शोषण और मजबूरी की बेड़ियां। लेकिन यह व्यवस्था एक व्यक्ति के रूप में मूर्त होती है- सुखीलाल नाम के महाजन में।
'ब्याज चढ़ता जाता है… और तुम्हारा कर्ज कभी खत्म नहीं होगा।' सुखीलाल का यह संवाद ही बताता है कि वह व्यक्ति नहीं, पूरी व्यवस्था का प्रतीक है- एक ऐसा तंत्र जो गरीब को कभी उबरने नहीं देता। धुरंधर या थानोस जैसे आधुनिक खलनायकों में वैचारिक शक्ति होती है, लेकिन सुखीलाल का डर कहीं गहरा है- क्योंकि वह बाहरी नहीं, आंतरिक सामाजिक सच्चाई है।
शोले का गब्बर सिंह
'कितने आदमी थे?' सिर्फ तीन शब्द। लेकिन इन तीन शब्दों ने भारतीय सिनेमा के इतिहास में एक नई परत लिख दी। गब्बर सिर्फ क्रूर नहीं था- वह मनोवैज्ञानिक दबाव का उस्ताद था। जब वह कहता है- 'जो डर गया, समझो मर गया।' तो यह लाइन सिर्फ डायलॉग नहीं रहती, एक दर्शन बन जाती है।
गब्बर की ताकत उसके हाथों में नहीं थी। उसकी ताकत उसके अनुमान में थी, दहशत में थी। वह हर व्यक्ति की नसों में घुस जाता था...'जब 50-50 मील दूर बच्चा रोता है, तो मैं कहती है चुप हो जा, नहीं तो गब्बर आ जाएगा'।
इसीलिए गब्बर याद है, तो शोले याद है। क्योंकि फिल्म को अमर बनाने की शर्त वही पूरा करता है। एक ऐसा खतरा जो अस्तित्व को चुनौती दे।
मिस्टर इंडिया का मोगैंबो
'मोगैंबो खुश हुआ!' इस डायलॉग की खासियत यही है कि यह सिर्फ अहंकार नहीं- वर्चस्व है। मोगैंबो एक सैन्य शासन की तरह व्यवहार करता है, जहाँ उसका आदेश ही कानून है, और उसकी खुशी ही दुनिया का अंतिम लक्ष्य।
सिनेमा में बड़े पर्दे पर इतना ‘भव्य’ विलेन शायद ही पहले आया हो। उसकी पोशाक, उसकी दुनिया, उसके सैनिक- सब मिलकर उसे एक ऐसी शक्ति बनाते हैं जिसे हराने का मतलब सिर्फ जीत नहीं, व्यवस्था बदलना है।
सत्या का भीखू म्हात्रे
'मुंबई का किंग कौन?
भीखू म्हात्रे!'
यह डायलॉग बताता है कि भीखू विलेन नहीं- शहर का एक अनिवार्य सच था। यह विलेन इंसानों जैसा लगता है। वह ग्रे था, पर ईमानदार था। खतरनाक था, पर भरोसेमंद था। यही विरोधाभास उसे अमर बनाता है।
सत्या में भीखू का मरना उतना ही भावनात्मक था जितना किसी हीरो का। और यही सिद्ध करता है कि महान विलेन दर्शकों की नैतिकता को भी बदल देते हैं।
ग्लोबल सिनेमा: जहां विलेन विचारधारा बन जाता है
द डार्क नाइट का द जोकर
जब अराजकता मुस्कुरा कर सामने आती है, तो वह बेहद सर्द और खतरनाक हो जाती है। वह उसके संवाद भी है। जब जोकर सर्द लहजे में कहता है, 'Why so serious?' मतलब इतने गंभीर क्यों हो... तो दर्शकों की भी सांस सूख जाती है। यह सिर्फ मजाकिया लाइन नहीं, बल्कि जोकर की मानसिकता है। वह दुनिया की गंभीरता का मजाक उड़ाता है- क्योंकि उसके लिए जीवन एक क्रूर मजाक है।
जोकर के डायलॉग्स में वह गहरी फिलॉसफी मौजूद है जिसने फिल्म को क्लासिक बनाया। जैसे कि 'इस दुनिया में जीने का एकमात्र समझदार तरीका है- बिना नियमों के।'
जोकर व्यवस्था से नहीं लड़ता- वह विचारधारा से लड़ता है। वह दुनिया का सबसे खतरनाक सवाल पूछता है: अगर व्यवस्था कमजोर है, तो क्या अराजकता गलत है? जोकर की जीत उसकी जीत में नहीं- उसके सवालों में है।
एवेंजर्स का थैनोस
आधुनिक सिनेमा में विलेन की पराकाष्ठा है- थैनोस। ये वो वक्त है, जब विलेन भगवान जैसा लगता है, या फिर लगना चाहता है। जब वो कहता है, “I am inevitable.” यानी मेरा आना तय है। मुझे कोई रोक नहीं सकता। तो वो डर दिखता है।
थैनोस एक ऐसा चरित्र है जिसने फिल्म इतिहास में एक दुर्लभ उपलब्धि हासिल की- दर्शक उसकी विचारधारा से सहमत न होने के बावजूद उसे 'गलत' नहीं कह पाए।
'Perfectly balanced, as all things should be.' मतलब कि सब कुछ संतुलित हो- यही इस ब्रह्मांड की सही अवस्था है। यह उसके दर्शन का केंद्र है- ब्रह्मांड को बचाने के लिए विनाश।
थैनोस हमसे यह डरावना सवाल पूछता है: अगर ब्रह्मांड की जनसंख्या समस्या का समाधान आपके पास हो- तो क्या आप उसे लागू करेंगे? चाहे कीमत आधा ब्रह्मांड हो?
इन्फिनिटी वॉर पहली ऐसी सुपरहीरो फिल्म है जहां हीरो नहीं, विलेन जीतता है। और दर्शक हताश होने के साथ-साथ अजीब-सी संतुष्टि महसूस करते हैं- क्योंकि कहानी नैतिक रूप से पूर्ण लगती है।
विलेन के बड़े में होने में कहानी की जीत
कहानी उतनी ही महान होती है, जितना महान उसका विरोध हो। हीरो रोशनी है। लेकिन रोशनी तभी दिखती है जब अंधेरा पर्याप्त गहरा हो। इसलिए रहमान डकैत, गब्बर, जोकर, मोगैंबो और थैनोस- ये सब सिर्फ फिल्मी किरदार नहीं हैं। ये सिनेमा की उस अदृश्य परंपरा के स्तंभ हैं जो यह सच कहती है: हीरो फिल्म को आगे बढ़ाता है, विलेन फिल्म को अमर बनाता है।
यादगार विलेन सिर्फ संकट नहीं लाता- वह विचार लाता है। एक साधारण विलेन कहता है- 'मैं तुम्हें खत्म कर दूंगा।' एक कालजयी विलेन कहता है- 'तुम गलत हो, और मैं सही।' आखिर अपनी कहानी में तो वो भी हीरो होता है।