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जांगिड सर, जिनके चाहने वालों की पत्रकारिता जगत में तादाद थी बड़ी!

देश के सबसे मशहूर पत्रकारिता प्रशिक्षण संस्थान, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मास कम्युनिकेशन में हिंदी पत्रकारिता विभाग के संस्थापक अध्यक्ष रहे डॉक्टर रामजीलाल जांगिड का निधन हो गया है। डॉक्टर जांगिड कई बड़े हिंदी अखबारों में काम करने के बाद आईआईएमसी से जुड़े और दो दशक लंबे कार्यकाल के दौरान हजारों युवाओं को पत्रकार के तौर पर प्रशिक्षित किया। अपने छात्रों के बीच काफी लोकप्रिय रहे डॉक्टर जांगिड रिटायरमेंट के बाद भी काफी सक्रिय थे

अपडेटेड Aug 10, 2025 पर 7:30 PM
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डॉक्टर रामजीलाल जांगिड नहीं रहे। करीब 86 साल की उम्र में कल दोपहर उन्होंने नोएडा में अंतिम सांस ली

डॉक्टर रामजीलाल जांगिड नहीं रहे। करीब 86 साल की उम्र में कल दोपहर उन्होंने नोएडा में अंतिम सांस ली। हिंदी पत्रकारिता और पत्रकारिता प्रशिक्षण में अग्रणी नाम था डॉक्टर जांगिड का। भारतीय जन संचार संस्थान (आईआईएमसी) में जब हिंदी पत्रकारिता का पाठ्यक्रम 1987 में शुरू किया गया, तो इसके संस्थापक पाठ्यक्रम निदेशक बने डॉक्टर जांगिड। अपने छात्रों, शिष्यों के बीच ‘जांगिड सर’ के नाम से मशहूर। संस्थान छोड़ने के बाद भी पूर्व छात्रों से जीवंत संपर्क, हमेशा खोज- खबर लेते रहना। अगर कोई बेरोजगार है, तो उसके लिए रोजगार की चिंता करना, नौकरी दिलाने का प्रयत्न करना। जो अच्छा कर रहा है, उसकी प्रगति देखकर खुश होना, उसको पुरस्कार दिलाने की सोचना।

जांगिड सर से मेरा परिचय वर्ष 1995 में हुआ। पहली मुलाकात हुई 15 जुलाई 1995 को। ये वो दिन था, जब मैं भारतीय जन संचार संस्थान के हिंदी पत्रकारिता पाठ्यक्रम में प्रवेश के लिए दिल्ली इंटरव्यू देने आया था। इंटरव्यू लेने वालों में शामिल थे डॉक्टर जांगिड। इंटरव्यू देने के लिए जो छात्र आए थे, उनमें से ज्यादातर ग्रेजुएशन या पोस्ट ग्रेजुएशन किये हुए। कइयों ने अखबारों में लेख छपा रहे थे, और कुछ नहीं, तो ‘पाठकों के पत्र’ कॉलम में ही अपनी उपस्थिति दर्ज करा रखी थी। कई तो एमफिल वाले भी थे।

मेरा अपना अनुभव


इन सबके बीच मैं था, जिसका ग्रेजुएशन का रिजल्ट भी नहीं निकला था, सिर्फ परीक्षाएं हुई थीं। काशी हिंदू विश्वविद्यालय में ग्रेजुएशन थर्ड इयर का छात्र था मैं उस समय, सोशियोलॉजी ऑनर्स का। पत्रकारिता से कोई लेना- देना नहीं, कभी कोई आर्टिकल नहीं लिखा था। राजनीति और इतिहास की थोड़ी- बहुत जानकारी थी, क्योंकि पत्र- पत्रिकाएं स्कूल के दिनों से ही पढता था, इतिहास और राजनीति बीए प्रथम और द्वितीय वर्ष में ‘सबसिडरी सब्जेक्ट’ के तौर पर पढ़ा था।

आईआईएमसी के वेटिंग रूम में बैठा हुआ था मैं, कक्ष छात्रों से भरा हुआ। इंटरव्यू के लिए आए हुए ज्यादा छात्र मोटी- मोटी फाइल लेकर आए थे, जिसमें उनके छपे हुए लेखों की कतरनें भी लगी थीं, कई तो ऐसे थे, जिनके लेख न सही, कविताएं ही छपी हुई थीं। इन सबका आत्मविश्वास उबाल पर।

इन सबके बीच मैं खाली हाथ, दिखाने के लिए कुछ भी नहीं। ये भी नहीं कह सकता था कि ग्रेजुएशन में मेरे अच्छे नंबर आए हैं। काशी हिंदू विश्वविद्यालय में ग्रेजुएशन के नतीजे कब घोषित होंगे, ये भी पता नहीं था। ऐसे में जब इंटरव्यू के लिए अपनी बारी आई, तो झिझकते कदमों से अंदर गया। सामने बैठे हुए थे डॉक्टर जांगिड, साथ में मधुकर उपाध्याय और कृष्णकांत जैसे बड़े पत्रकार, संवाद विशेषज्ञ।

मेरे पास खोने के लिए कुछ था नहीं, आईआईएमसी से कोर्स करना उस समय एक बैकअप ऑप्शन के तौर पर ही था, पत्रकारिता करने का कोई जुनून मन के अंदर नहीं था। बीए थर्ड ईयर में आने के साथ ही मैंने सिविल सर्विसेज की तैयारी शुरू कर दी थी, समाजशास्त्र और इतिहास उन दिनों सिविल सर्विस देने वाले छात्रों के बीच लोकप्रिय विषय थे। लेकिन मन में ये भी था कि अगर सिविल सर्विस में नहीं हुआ, तो क्या करेंगे। इसी सोच के तहत किसी ने सुझाव दिया कि आईआईएमसी से पत्रकारिता का कोर्स कर लो, नौ महीने में हो जाएगा, अगर कुछ और नहीं हुआ, तो यही कर लेना।

यही सोचकर आईआईएमसी की प्रवेश परीक्षा दी थी। इसके लिए कोई विशेष तैयारी करने का मौका नहीं मिला था, थर्ड ईयर की परीक्षाएं सामने थीं। प्रथम श्रेणी हासिल करने के लिए समाजशास्त्र के सभी पेपर्स में अच्छे नंबर लाना जरूरी था, ताकि आप अपने ऑनर्स सब्जेक्ट के आधार पर ही परिणाम हासिल कर सकें।

वैसे ये जानकारी थी कि सामान्य ज्ञान से जुड़े टॉपिक आईआईएमसी की लिखित परीक्षा में होते हैं। इसमें कोई समस्या आनी नहीं थी। अखबारों के नियमित सेवन के अलावा यूनिक गाइड पढ़कर अपना सामान्य ज्ञान मजबूत कर रखा था मैंने। इसी आधार पर आईआईएमसी की प्रवेश परीक्षा में आसानी से कामयाबी हासिल हो गई। 21 मई 1995 को पटना के एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट में लिखित परीक्षा देने गया था, कुछ समय बाद इसमें उत्तीर्ण होने की सूचना मुझे आईआईएमसी के टेलीग्राम से मिली थी, जो बीएचयू के नरेंद्रदेव होस्टल के कमरा नंबर 72 के मेरे पते पर आया था। तब तक टेलीग्राम हाथ की जगह इलेक्ट्रॉनिक ढंग से प्रिंट होकर आने लगे थे। एक ही चीज उस टेलीग्राम की आज भी याद है, कमरा की जगह कमरी लिखा हुआ था।

इंटरव्यू में जांगिड सर ने मुझे सहज कर दिया

खैर, जैसे ही इंटरव्यू देने के लिए सामने बैठा, जांगिड सर ने मुझे सहज कर दिया। पहली ही नजर में उन्होंने भांप लिया था कि ये लड़का सामान्य मध्यमवर्गीय परिवार से है। मेरे व्यक्तित्व में कोई खास आकर्षण था भी नहीं, दुबला- पतला, मरियल सा लड़का। शर्ट बाहर निकाल कर पहनने वाला, पांव में चमड़े के जूते भी पहली बार पहन रखे थे, वो भी उधार के, इसलिए पांव कट गये थे।

जांगिड साब या फिर पैनल में शामिल बाकी महानुभावों ने जो कुछ भी पूछा, जितना बेहतर हो सकता था, जवाब देने की कोशिश की। जांगिड साब ने पूछा था कि कुछ लिखा है या नहीं पहले। बता दिया ईमानदारी से, कभी कुछ ऐसा लिखा नहीं, जो पत्र- पत्रिकाओं में छपा हो। इतना याद है कि समसामयिक खबरों के बारे में जो पूछा गया था, उसका संतोषजनक जवाब दे पाया था मैं।

इंटरव्यू देने के बाद बीएचयू लौट गया था, कोई ज्यादा उम्मीद पाल भी नहीं रखी थी। तभी एक बार फिर सूचना आई आईआईएमसी की तरफ से, हिंदी पत्रकारिता के पाठ्यक्रम के लिए अंतिम तौर पर चयनित हो जाने की। 20 जुलाई 1995 का पत्र संस्थान के तत्कालीन कुल सचिव पृथ्वीराज शर्मा की तरफ से भेजा गया था, 28 जुलाई तक पाठ्यक्रम शुल्क की पहली किस्त जमा कराने की ताकीद की गई थी। उस समय ये शुल्क महज तीन हजार रुपये था, दूसरी किस्त देनी नहीं थी, क्योंकि हाफ फ्रीशिप मिल गई थी, इंटरव्यू वाले दिन ही उसके लिए हुए अलग से एक इंटरव्यू के आधार पर, जिसमें प्रदीप माथुर, सपन ब्रह्मचारी और एनएन सरकार जैसे संस्थान के शिक्षक थे।

25 जुलाई 1995 तक बीए पास का सर्टिफिकेट भी देना था। जिन्होंने स्नातक परीक्षा पास कर ली हो, लेकिन उपाधि पत्र नहीं हासिल किया हो, उन्हें अस्थाई प्रमाण पत्र इस तिथि तक देना था। मुझे तो पता ही नहीं था कि मेरा नतीजा क्या रहा है। थर्ड ईयर की परीक्षाएं हो चुकी थीं, लेकिन नतीजा निकलना बाकी था। ऐसे में मैंने बीएचयू के चीफ रजिस्ट्रार का दरवाजा खटखटाया और प्रोविजनल सर्टिफिकेट देने की दरख्वास्त की। मेरा प्रोविजनल सर्टिफिकेट भी कांफिडेंशियल ही रहने वाला था, क्योंकि जब तक सबके नतीजे सार्वजनिक नहीं हो जाते, किसी एक को उसके नतीजे की जानकारी नहीं दी जा सकती थी।

शैक्षणिक संस्थानों में एक अनूठा नियम ये था कि विशेष परिस्थितियों में, अगर सभी प्रश्न पत्र जांचे जा चुके हों, तो उन्हें टेबुलेट कर, गुप्त तरीके से प्रमाणपत्र दिया जा सकता था, पास या फेल होने का। लेकिन वो भी सीलबंद, सिर्फ उस संस्थान के अधिकारी ही उसे खोल सकते थे, जिन्हें ग्रेजुएशन की अनिवार्यता के आधार पर संबंधित छात्र को अपने यहां प्रवेश देना हो। जिस छात्र के बारे में ये हो, उसे तो तब ही पता चलता था, जब नियमित तौर पर परिणाम घोषित होते थे। अगर क्वालिफाइंग मार्क्स होते थे, तो संस्थान प्रवेश दे देते थे, अन्यथा प्रवेश रद्द कर दिया जाता था।

मैं भी बीएचयू से कॉन्फिडेंशियल मार्क्स शीट सीलबंद लिफाफे में लेकर आया, आईआईएमसी के तत्कालीन असिस्टेंट रजिस्ट्रार यादविंदर सिंह को सौंपा। दो दिन बाद उनकी भाव भंगिमा से पता चल गया कि नतीजा ठीक ही आया है, क्योंकि उन्होंने मेरा एडमिशन कंफर्म कर दिया। मैं आईआईएमसी का छात्र बन गया 28 जुलाई 1995 को, तीन हजार रुपये की फी भरकर।

एक छात्र के तौर पर डॉ. जांगिड से मेरी पहली मुलाकात

हिंदी पत्रकारिता का पाठ्यक्रम 1 अगस्त 1995 से शुरु हुआ। डॉक्टर जांगिड से संस्थान के छात्र के तौर पर ये मेरी पहली मुलाकात थी, उससे पहले तो इंटरव्यू के दिन ही मुलाकात हुई थी पखवाड़े भर पहले, अभ्यर्थी के तौर पर। उस दिन जो जांगिड सर के तौर पर उन्हें संबोधित करना शुरू किया, वो संस्थान छोड़ने के बाद भी जारी रहा। मैं उन सैकड़ों छात्रों की कतार में शामिल हो गया, जिनके लिए हिंदी पत्रकारिता के ये संस्थापक पाठ्यक्रम निदेशक सदैव ‘जांगिड सर’ ही रहे, श्रद्धा और सम्मान की भावना सदैव बनी रही उनके लिए।

ये भावना जांगिड साब के व्यवहार की वजह से ही रही। वो ज्यादातर छात्रों को पुत्रवत प्यार करते थे। पहले दिन से छात्रों के भविष्य की चिंता करना उनके स्वभाव का हिस्सा था। उन्हें हमेशा लगता था कि अंग्रेजी के छात्र तो अपनी गिट- पिट अंग्रेजी बोलकर कही भी आराम से सेटल हो जाते हैं, हिंदी के छात्र ही फंसे रहते हैं, कुंठा में ग्रस्त रहते हैं, जल्दी नौकरी नहीं मिलती। इसलिए उनकी पहली कोशिश ये होती थी कि हिंदी के छात्रों में किसी किस्म का कुंठा भाव न हो। आखिर वो खुद हिंदी के पत्रकार रहे थे, राजस्थान के सामान्य, गरीब परिवार से आकर पत्रकारिता और पत्रकारिता प्रशिक्षण- शिक्षण की दुनिया में अपना बड़ा मुकाम बनाया था।

7 नवंबर 1939 को सीकर जिले के फतेहपुर में जन्मे जांगिड साब ने एमए करने के बाद 1967 में राजस्थान यूनिवर्सिटी से पीएचडी की थी, इसलिए अपने नाम के साथ हमेशा डॉक्टर लगाते थे। 1979 में भारतीय जन संचार संस्थान ज्वाइन करने वाले डॉक्टर जांगिड ने 21 वर्षों तक संस्थान में रहने के दौरान हजारों युवाओं को पत्रकारिता का प्रशिक्षण दिया। वो मिशनरी भाव से अपने छात्रों का ध्यान रखते थे।

एक तरफ विद्यार्थियों के मन में विश्वास पैदा करना, हिम्मत देना, दूसरी तरफ उनका ज्यादा से ज्यादा एक्सपोजर हो, उसकी तैयारी करना। नामवर सिंह और योगेंद्र सिंह जैसे साहित्य और समाजशास्त्र के बड़े नाम हमारे बीच गेस्ट लेक्चर देने आया करते थे, जांगिड साब के अनुरोध पर। ऐसे लोगों को आप अपने सामने देखें, सुनें, तो आत्मविश्वास तो बढ़ ही जाता है।

कोर्स से पहले ही सर्टिफिकेट बांटने लगते थे जांगिड सर

भले कोर्स पूरा न हुआ हो, पहला भी सैमेस्टर न बीता हो, लेकिन जांगिड सर सर्टिफिकेट बांटना शुरू कर देते थे, जहां जैसी वैकेंसी, उसी हिसाब से प्रमाण पत्र। कभी पत्रकारिता की नौकरी के लिए, तो कभी जनसंपर्क की नौकरी के लिए। अपने चेंबर में ही बैठने वाली टाइपिस्ट को एक के बाद एक तमाम छात्रों के लिए सर्टिफिकेट प्रिंट करने के लिए बोलते रहते थे जांगिड साब और फिर उस पर अपने हस्ताक्षर चस्पां करते थे, पाठ्यक्रम निदेशक एवं अध्यक्ष, हिंदी पत्रकारिता विभाग के तौर पर, भारतीय जन संचार संस्थान (आईआईएमसी) के लेटर हेड पर।

उस समय आईआईएमसी के इतने सारे कैंपस नहीं थे, दिल्ली के बाहर सिर्फ एक कैंपस, वो भी ओडीशा के ढेंकनाल में। केपी सिंह देव जब सूचना प्रसारण मंत्री थे, तो उन्होंने अपने लोकसभा क्षेत्र ढेंकनाल में इसका कैंपस खोला था। हालांकि वहां पाठ्यक्रम भी कम ही थे, अंग्रेजी और ओडिया पत्रकारिता के, शिक्षक भी कम। मुख्य कैंपस दिल्ली का ही था, यही पर ज्यादातर शिक्षक और छात्र थे।

उन दिनों आईआईएमसी में पांच पाठ्यक्रम चला करते थे, हिंदी और अंग्रजी पत्रकारिता के अलावा सूचना व जनसंपर्क में पीजी डिप्लोमा का पाठ्यक्रम। इसके अलावा भारतीय सूचना सेवा के ग्रुप- बी अधिकारियों के लिए फाउंडेशन कोर्स और गुटनिरपेक्ष देशों से आने वाले छात्रों के लिए विशेष कोर्स, ‘डिप्लोमा इन न्यूज एजेंसी जर्नलिज्म फॉर नॉन- एलाएंड कंट्रीज’, जो संक्षेप में ‘नाना’ कोर्स के तौर पर जाना जाता था।

संस्थान में शिक्षक भी बस दर्जन भर। संस्थान के निदेशक थे डॉक्टर जसवंत सिंह यादव, अंग्रेजी पत्रकारिता के पाठ्यक्रम निदेशक थे मुल्कराज दुआ, मशहूर पत्रकार एचके दुआ के भाई। सूचना सेवा वाले कोर्स के पाठ्यक्रम निदेशक थे वहीद अहमद काजी। सूचना और जनसंपर्क वाले कोर्स की निदेशिका थीं, जयश्री जेठवानी। नाना कोर्स चलाते थे केएम श्रीवास्तव। इनके अलावा प्रदीप माथुर, पी राघवाचारी, सुभाष धूलिया, एनएन सरकार, सपन ब्रह्मचारी, हेमंत जोशी और नवल सिंह जैसे शिक्षक। इनमें से माथुर रिपोर्टिंग पढ़ाते थे, तो धूलिया एडिटिंग। राघवाचारी टेलीविजन, तो जोशी ट्रांसलेशन, ब्रह्मचारी डिजाइन तो सरकार पब्लिशिंग, नवल सिंह कम्युनिकेशन रिसर्च पढ़ाते थे।

जांगिड सर सब कुछ पढ़ाते थे

संस्थान के निदेशक डॉक्टर यादव खुद कम्युनिकेशन थ्योरी पढ़ाने आते थे, और जांगिड सर, सब कुछ। पत्रकारिता के इतिहास से लेकर देश की राजनीति तक, कॉपी राइटिंग से लेकर संपादन तक। नारद दुनिया के पहले पत्रकार थे, या फिर पहली लाइव कमेंटरी संजय ने महाभारत काल में की थी, ये बड़े चाव से बताया करते थे डॉक्टर जांगिड। ये भी बताते थे कि कैसे उन्होंने संस्थान की रिसर्च पत्रिका संचार माध्यम को जमाया था।

संस्थान में होस्टल की सुविधा तब पत्रकारिता की पढ़ाई करने वाले छात्रों के लिए नहीं थी, इमारतें भी कम ही थीं, मुख्य बिल्डिंग के अलावा बगल में दो बिल्डिंग और। उसी में से एक में संस्थान के निदेशक डॉक्टर यादव भी रहते थे। विदेश से आए हुए ‘नाना’ कोर्स के छात्रों को होस्टल के कमरे एलॉट किये जाते थे, हमारे जैसे छात्र हसरत भरी निगाहों से देखते थे और बेर सराय, मुनिरका और कटवरिया सराय की गलियों में कोई कमरा लेकर मजबूरी में रहते थे।

डॉक्टर जांगिड और संस्थान के निदेशक डॉक्टर यादव के बीच बनती नहीं थी। संस्थान के अंदर और संस्थान के बाहर भी, ये बात सबको पता थी। कई बार हिंदी पत्रकारिता पाठ्यक्रम के छात्रों ने जांगिड साब के इशारे पर डॉक्टर यादव की शिकायत भी मंत्रालय में कर दी थी, क्लास नहीं लेने की या फिर हिंदी वाले छात्रों पर ध्यान नहीं देने की। वैसे तो जांगिड साब की संस्थान के ज्यादातर शिक्षकों से कुछ खास नहीं बनती थी, सबकी कहानियां सुनाया करते थे, किसको कैसे नौकरी मिली, किसकी क्या कमजोरी है, कौन कहां चक्कर लगाता है, किसके क्या चक्कर हैं। ये चर्चा करते- करते संस्थान का इतिहास भी बताते जाते, कैसे साउथ एक्सटेंशन में छोटी सी शुरुआत हुई, और फिर कौन- कौन से महानुभाव संस्थान के निदेशक रहे। एचवाई शारदा प्रसाद और नंदकिशोर चावला भी आईआईएमसी के निदेशक रह चुके थे पहले। सबकी खासियतें और कहानियां, उनकी जुबान पर, आंख मूदकर सुनाया करते थे। यही आदत क्लास लेते वक्त भी थी, जब नोट्स लिखाया करते थे।

जांगिड सर के चेंबर के दरवाजे हमेशा छात्रों के लिए खुले

जांगिड साब हिंदी के पत्रकार थे, आईआईएमसी में हिंदी पत्रकारिता के पाठ्यक्रम निदेशक थे, लेकिन अपनी इमेज और वेशभूषा को लेकर सदैव सजग। बंद गले के सूट के अलावा सामान्य किस्म के कपड़ों में उन्हें कम ही देखा जाता था। आंखों पर मोटा चश्मा, गले से खरखराकर निकलती आवाज। गले पर जोर देने की आदत काफी पहले से थी। किसी को बुलाते वक्त भी काफी जोर देकर बुलाते थे।

उनके चेंबर के दरवाजे हमेशा छात्रों के लिए खुले रहते। चाहे पाठ्यक्रम से संबंधित मसले हों, या बाहर के, समाधान करने, हल देने के लिए हमेशा तैयार रहते थे जांगिड सर। टिप्स भी दिया करते थे, कैसे पढ़ाई करते वक्त भी आर्टिकल लिखकर कमाई की जा सकती है। किस तरह का आर्टिकल लिखा जाए, तो कहां छप सकता है, इसके लिए किस अखबार में, किस पत्रकार या संपादक का दरवाजा खटखटाना है, बताते रहते थे। कई बार फोन भी कर दिया करते थे, किसी छात्र के लिए।

हिंदी पत्रकारिता की दुनिया में ज्यादातर लोग उनको जानते थे, टीवी का जमाना आया नहीं था, अखबारों का बोलबाला था, खुद अखबारों में काम कर चुके थे, इसलिए संपर्क तगड़ा। बतौर पाठ्क्रक्रम निदेशक भी बड़े- बड़े पत्रकारों, संपादकों को गेस्ट लेक्चर देने के लिए संस्थान में बुलाते रहते थे, इसलिए लोग लिहाज भी करते थे, नेटवर्किंग भी तगड़ी थी। छात्रों को बताते भी रहते थे कि पत्रकारिता में कामयाबी के लिए नेटवर्किंग कितनी जरूरी है।

कभी गाजियाबाद के ‘हिंट’ अखबार में अपने छात्रों को व्यावहारिक प्रशिक्षण के लिए भेजते थे, तो कभी सूरजकुंड का मेला देखने और उसकी कवरेज के लिए। बताते रहते थे कि क्लासरुम की पढ़ाई की तुलना में फील्ड में जाकर चीजों को देखना, समझना कितना आवश्यक है। बाहर भेजते समय ये भी सुनिश्चित करते थे कि उनके छात्रों की आवभगत अच्छी हो, इसके लिए संबंधित जिले के अधिकारी या फिर किसी बड़े पत्रकार को बोलना पड़े, तो इसमें भी जांगिड साब को कोई संकोच नहीं।

आईआईएमसी से रिटायर होने के बाद भी उनकी सक्रियता बरकरार रही। गेस्ट लेक्चर देना, वर्कशॉप आयोजित करना, कांफ्रेंस में भाग लेना उनकी आदत में शुमार। अपने शिष्यों, पढाए हुए छात्रों के भी नियमित संपर्क में, लगातार फोन की घंटी बजाते रहते थे। किसी को भी फोन करने में, कोई संदेश भेजने में, कोई हिचक नहीं। उनके संपर्क में रहने वाले सभी लोगों को पता रहता था कि अभी वो क्या कर रहे हैं। उनका फैन क्लब काफी बड़ा था। यहां तक कि दो साल पहले ‘अंतरराष्ट्रीय प्रो. (डॉ) रामजीलाल जांगिड शिष्य परिवार’ नामक संगठन भी उनके पढ़ाए हुए छात्रों, शिष्यों ने खड़ा कर दिया था।

जांगिड साब ने खुद भी ढेर सारे संगठन खड़े किये

जांगिड साब ने खुद भी ढेर सारे संगठन अपने जीवनकाल में खड़े किये। वैश्विक हिंदी लोक प्रसारण संघ से लेकर भारतीय जन संचार संघ जैसे दर्जनों संगठनों के वो संस्थापक अध्यक्ष रहे। इन सबके जरिये देश- दुनिया के तमाम हिस्सों में रहने वाले लोगों से जुड़ने की कोशिश।

अपने शिष्यों के साथ लगातार संपर्क रखना, उनका प्रिय काम। सलाह हमेशा देते रहते थे, कहां से पीएचडी किया जा सकता है, किस सरकारी विभाग से किस प्रोजेक्ट के लिए राशि हासिल की जा सकती है, किस जगह पर वैकेंसी निकली है। ये सब कुछ कभी फोन पर, तो कभी मैसेज भेजकर बताते रहते थे जांगिड साब।

आखिरी दिनों में जब स्वास्थ्य ने दगा देना शुरु किया, तो उनके फोन और संदेश की रफ्तार धीमी पड़ी। उन्हें बड़ा मन करता था अपने छात्रों से घिरे रहने का, उनसे गपशप मारने का। आखिरी दिनों तक याददाश्त अच्छी रही, पुराने किस्से या प्रकरण खट से सुना देते। 2016 में पत्नी सत्या जांगिड के देहांत के बाद विधुर जीवन जी रहे थे वो, लेकिन कभी अकेला महसूस नहीं करते थे, पूर्व छात्रों और शिष्यों से घिरे रहने, उनके संपर्क में रहने के कारण।

सबको जोड़कर रखने वाले ऐसे मिजाज के जांगिड साब का जाना खल गया। जब वो पत्रकारिता शिक्षण- प्रशिक्षण की दुनिया में आए, तो देश के अंदर गिने- चुने ही संस्थान थे, जो इस तरह का कोर्स चलाते थे, उनमें आईआईएमसी सिरमौर था। बैच की साइज भी छोटी। 1995-96 के सत्र में जब हमारा बैच आईआईएमसी में था, तो हिंदी पत्रकारिता के 37, अंग्रेजी पत्रकारिता के 34, सूचना व जनसंपर्क कोर्स के 44 और नाना कोर्स के 25 छात्रों को ही 23 अप्रैल 1996 को आईआईसी में हुए दीक्षांत समारोह में डिप्लोमा सर्टिफिकेट प्रदान किये गये थे। प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के तत्कालीन अध्यक्ष जस्टिस पीबी सावंत के दीक्षांत भाषण के बाद डॉक्टर जांगिड के साथ आईआईसी के लॉन में बैठकर हमारे सभी साथियों ने फोटो खिचाई थी, वही उनके साथ की हमारे पूरे बैच की आखिरी तस्वीर थी।

संस्थान में प्रवेश से लेकर कल दोपहर नोएडा में डॉक्टर जांगिड के गुजर जाने के बाद भी तीन दशक पुराने रिश्तों की गरमाहट में कोई कमी नहीं आई थी। अफसोस तो सिर्फ ये कि अंतिम दिनों में उनसे मिलना नहीं हो पाया, उनका आखिरी व्हाट्सअप मैसेज 27 मई को आया था। कल शाम जब उनके देहांत की सूचना मिली, तब से स्मृति पटल पर उनसे जुड़े तमाम किस्से आ रहे हैं, बताने बैठें, तो कई दिन कम पड़ जाएंगे।

आप हमेशा हमारी यादों में भी बने रहेंगे, जांगिड सर! अलविदा! आप हमेशा हमारी यादों में भी बने रहेंगे, जांगिड सर! अलविदा!

जांगिड साब की याद हमेशा आएगी, जब आईआईएमसी की बात होगी, हिंदी पत्रकारिता शिक्षण- प्रशिक्षण की बात होगी। आप हमेशा हमारी यादों में भी बने रहेंगे, जांगिड सर! अलविदा!

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