'कई बार प्रेशर में ही आप अच्छा काम करते हैं' पीयूष पांडे की डायरी से कुछ अनसुने किस्से
जयपुर में जन्मे पांडे पिछले कुछ सालों से अपनी एजेंसी ‘ओगिल्वी’ से सलाहकार के तौर पर जुड़े हुए थे, क्योंकि उन्होंने सक्रिय भूमिका से कुछ समय का विराम लिया हुआ था। पीयूष पांडे ने 1980 के दशक के अंत में सरकार की ओर से बनाए और बेहद लोकप्रिय गीत ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा’ के बोल लिखे थे, जो भारत की समृद्ध विविधता का परिचायक है
'कई बार प्रेशर में ही आप अच्छा काम करते हैं' पीयूष पांडे की डायरी से कुछ अनसुने किस्से
कई विज्ञापनों के लिए लोकप्रिय और यादगार स्लोगन लिखने वाले विज्ञापन जगत के दिग्गज पीयूष पांडे का शुक्रवार तड़के निधन हो गया। वह 70 साल के थे। भारत की बड़ी-बड़ी कंपनियों और विज्ञापन जगत के लोगों ने पीयूष पांडे को श्रद्धांजलि दी। कई लोगों ने उनके साथ अपने निजी अनुभव साझा किए और ‘एशियन पेंट्स’, ‘फेविकोल’ और ‘कैडबरी’ जैसे ब्रांड के उनके बनाए लोकप्रिय विज्ञापनों को याद किया।
जयपुर में जन्मे पांडे पिछले कुछ सालों से अपनी एजेंसी ‘ओगिल्वी’ से सलाहकार के तौर पर जुड़े हुए थे, क्योंकि उन्होंने सक्रिय भूमिका से कुछ समय का विराम लिया हुआ था। पीयूष पांडे ने 1980 के दशक के अंत में सरकार की ओर से बनाए और बेहद लोकप्रिय गीत ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा’ के बोल लिखे थे, जो भारत की समृद्ध विविधता का परिचायक है।
आज हम आपको पीयूष पांडे की डायरी में लिखे उनके कुछ अनुभव, कुछ अनसुने किस्से और कहानियों से रूबरू कराते हैं:
"कई बार, आपका सबसे अच्छा काम तब होता है, जब दबाव बहुत ज्यादा होता है। इसका एहसास मुझे तब हुआ, जब मेरी ऐसी छुट्टी जिसका मुझे बहुत इंतजार था, वो अचानक कम हो गई। 1993 में, मैं अमेरिका में था और इस बात से अनजान था कि आगे क्या होने वाला है। मेरी बहन मिशिगन में रहती थी और मैंने उसके साथ कुछ दिन बिताए। योजना थी कि हवाई जाकर दिवाली पर उसके साथ रहूं।
मैं स्वर्ग देखने के इंतजार में हवाई में बस कुछ जोड़ी शॉर्ट्स और टी-शर्ट लेकर गया था। रंजन ने अभी-अभी मैनेजिंग डायरेक्टर का पद संभाला था (आधिकारिक तौर पर भी नहीं), तभी एक संकट उन पर और फिर हम पर आ पड़ा। कैडबरी का अकाउंट कई सालों से हमारे पास था।
हमारे उनके साथ बहुत अच्छे रिश्ते थे, लेकिन पिछले कुछ समय में कुछ गड़बड़ हो गई थी। बेचारे रंजन को बताया गया कि उन्होंने पिच के लिए कॉल किया है। नए पद पर उसकी शुरुआत मुश्किल रही।
सच कहूं तो, हमारे और क्लाइंट के बीच सब कुछ ठीक नहीं चल रहा था। कैडबरी में मार्केटिंग डायरेक्टर राजीव बख्शी बेचैन हो रहे थे। रंजन ने मुझे फोन किया और मुझे हवाई से वापस आना था।
मेरी बहन ने इतनी मेहरबानी की कि मुझे झटपट टिकट भेज दिया। सियोल के पहले पड़ाव पर, मैं काम पर लग गया और बोर्डिंग पास के पीछे ही सॉन्ग लिख दिए। यही गीत आगे चलकर क्रिकेट के मैदान पर डांस करती हुई लड़की वाला विज्ञापन बन गया। "कुछ खास है हम सभी में" मेरे दिमाग में आया और कुल दस विज्ञापन बन गए।
बात यह थी कि हम अपने स्टाइल में वापस लौट आए। पूरे आत्मविश्वास के साथ, हमने क्लाइंट के सामने यह आइडिया रखा और यह सदी का सबसे बड़ा अभियान बन गया। हमारी समझ यह थी कि ब्रांड को मौजूदा विज्ञापनों से पूरी तरह अलग होने की जरूरत है। हमने इसे काफी नयापन दिया और यह कारगर साबित हुआ।
कैडबरी ने फिर एक और चुनौती पेश की, जिसने हमें वाकई हद पार करने पर मजबूक कर दिया। डेयरी मिल्क में कीड़े निकले, जिसका मतलब था कि उनके सामने एक बड़ी समस्या खड़ी हो गई है। यह खबर मुझे मीडिया के जरिए मिली और भरत ने मुझे फोन किया। जाहिर था कि स्थिति गंभीर थी। इस ब्रांड की समस्या यह थी कि यह खाने योग्य था और इसे पूरा परिवार साझा करता था।
कैडबरी ने डबल पैकेजिंग मशीन लाकर एक स्मार्ट काम किया। फिर हमने मिस्टर बच्चन को एक ऐसे कैंपेन के लिए शामिल किया जो वाकई कारगर रहा। मैंने यहां यही सीखा कि अगर आप एक पसंदीदा ब्रांड हैं, तो लोग आपको माफ कर देंगे। यही एक प्रोडक्ट और एक ब्रांड के बीच का अंतर है। यह सीखना मुश्किल था, लेकिन सार्थक रहा!
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"जनवरी 2014 में मेरे घर पर पीयूष गोयल के साथ एक मुलाकात ने मेरे अब तक के सबसे जोरदार चुनाव प्रचार को जन्म दिया। हमने लगभग तीन घंटे बातचीत की और उनका संदेश साफ और सटीक था। बातचीत के आखिर में उन्होंने बस इतना ही कहा, "हमें आपकी जरूरत है।"
मुझे ये मानना होगा कि राजनीतिक विज्ञापनों को लेकर मेरे मन में कुछ शंकाएं थीं। डेविड ओगिल्वी का मानना था कि धर्म और राजनीति जैसे मुद्दों पर पूरी टीम का एकजुट होना जरूरी है। किसी पर इसे थोपना संभव नहीं है और इसमें किसी का पक्ष लेने का जोखिम भी है। इसके अलावा, ये भी हो सकता है कि किए गए काम के बदले आपको पैसे भी न मिलें! यह बिल्कुल भी अच्छा विचार नहीं है।
सच कहूं तो, मैंने छह-सात सालों तक कई राजनीतिक दलों को ना कहा था, लेकिन आखिरकार पीयूष गोयल ने मुझे BJP का प्रचार अभियान संभालने के लिए मना लिया। हां कहने के बाद, मैंने कैलेंडर देखा और तभी मुझे काम की गंभीरता का एहसास हुआ। जनवरी का आखिर था और मार्च में चुनाव होने वाले थे।
संक्षेप में कहा गया था। नरेंद्र मोदी की रेटिंग BJP से ज्यादा थी। भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे जोर पकड़ रहे थे। मेरा पहला काम ओगिल्वी में अपनी टीम को फोन करके पूछना था कि क्या वे मौजूद हैं। उनका जवाब पूरी तरह से हां में था और काम शुरू हो गया।
इससे पहले राजनीतिक विज्ञापन भारी-भरकम और "जनता माफ नहीं करेगी" जैसे संदेशों से भरे माने जाते थे। हमेशा कोई न कोई ऊपर से आपसे बात करता रहता था। इसे करने का तरीका यही था कि इसे सरल बनाया जाए और लोगों को बोलने के लिए प्रेरित किया जाए।
अब मैं इसके बारे में सोचता हूं और कहता हूं, "वाह, हमने 170 फिल्में बनाईं!" सिर्फ ओगिल्वी में ही हम जानते थे कि हमें क्या-क्या करना पड़ा। पैमाने और आकार के लिहाज से यह एक बहुत बड़ा काम था। हमारे सामने दिन-प्रतिदिन बदलाव आ रहे थे। भारत के छोटे-छोटे हिस्सों के लिए विज्ञापनों को ढालना एक चुनौती थी। उन्हें फिर भी प्रासंगिक बनाए रखना जरूरी था।
मैंने "अबकी बार, मोदी सरकार" जल्दी लिख दिया और उसी पर डटा रहा। कुछ और लाइन भी जरूरी थीं और टीम जी-जान से काम कर रही थी। हम चाहते थे कि यह किसी भी दूसरे राजनीतिक अभियान से अलग हो और हम इसमें कामयाब भी रहे।
एक ग्राहक के तौर पर, भाजपा जाहिर तौर पर कोई मार्केटिंग कंपनी नहीं थी। काफी चर्चाएं और बहसें हुईं और वे बहुत ही प्रोफेशनल थे। उस दौरान मैं नरेंद्र मोदी से दो-तीन बार मिला, हालांकि ज्यादातर फैसले अरुण जेटली और पीयूष पर ही छोड़ दिए गए थे।
मैंने पहले भी गुजरात टूरिज्म कैंपेन पर मोदी के साथ काम किया था। उन्होंने पहले अमिताभ बच्चन से बात की, जो इसके लिए राजी हो गए। बाद में, बच्चन ने हमारे नाम की, खासकर मेरे नाम की, सिफारिश की। इसके बाद नरेंद्र मोदी ने मुझे औपचारिक रूप से जानकारी दी।
वह उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री थे और उन्हें अपने राज्य की पूरी जानकारी थी। मुझे हमारी पहली मुलाकात आज भी याद है। वह 20 मिनट की बैठक होनी थी, जिसमें छह जगहों पर चर्चा करनी थी, लेकिन तीन घंटे बाद भी हम पहली जगह पर ही थे! वे बहुत हंसमुख थे और मजाक में बोले- “मैं बहुत बोलता हूं, पर तुम्हें इसे 60 सेकंड में कहना होगा।” मैंने उनसे कहा कि बस बोलते रहें, मैं जरूरी बातें चुन लूंगा। जब कैंपेन टीवी पर आया, तो जादू जैसा असर हुआ।
उसके बाद 2012 का गुजरात विधानसभा चुनाव आया, जब हमें पहली बार अभियान का प्रस्ताव मिला। दो साल बाद आम चुनाव का अभियान हमारे काम का सबसे खास अनुभव रहा। इसका श्रेय बीजेपी टीम और हमारे आपसी सम्मान को जाता है।
जब मैंने उस अभियान को देखा, तो मुझे अपने शुरुआती दिनों की याद आई, जब मेरा पहला विज्ञापन टीवी पर आया था। मैं पड़ोसी के घर भागकर उसे देखने जाता था।
मैं कुछ बातों में विश्वास नहीं रखता, जैसे “मुश्किल क्लाइंट” या “बेकार प्रोडक्ट” जैसी बातें। क्लाइंट का काम रोज नई कहानियां सोचने का नहीं है, वो हमारा काम है। अगर उसे इस काम की आदत नहीं है, तो हमें ही उसका मार्गदर्शन करना चाहिए।
कोई भी प्रोडक्ट उबाऊ नहीं होता। लोग कहते हैं कि सीमेंट या बैंकिंग बोरिंग है, लेकिन मुझे नहीं लगता। सबसे बोरिंग अगर कुछ हो सकता है, तो वो गोंद होगा, पर हमने फेविकॉल के साथ 27 साल तक शानदार काम किया है। कोई और ब्रांड ऐसा नहीं कर सका।
चॉकलेट तुम्हें रोचक लग सकती है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि गोंद या पेंट्स उबाऊ हैं। विज्ञापन का काम कभी उबाऊ नहीं होना चाहिए। मेरे लिए कोई भी कैटेगरी मुश्किल या असंभव नहीं होती। हो सकता है कोई विज्ञापन ज्यादा न बिके, पर मैं अपने काम से डटा रहता हूं। हमने टाटा सीमेंट, सिद्धि सीमेंट और अमिताभ बच्चन के साथ बिनानी सीमेंट पर शानदार काम किया।
हालांकि मैंने कई मशहूर लोगों के साथ काम किया है, लेकिन ऐसे विज्ञापनों पर मेरी एक मजबूत राय है। मेरा मानना है कि यह "आलसी विज्ञापन" होता है, यानी जब कोई खुद मेहनत से सोचने के बजाय सिर्फ सेलिब्रिटी पर भरोसा करता है। अगर आपने यह नहीं सोचा कि उस सेलिब्रिटी का इस्तेमाल कैसे करना है, तो सारा पैसा बेकार चला जाता है।
एक अच्छा विज्ञापन तभी बनता है, जब सेलिब्रिटी ब्रांड को बेहतर दिखाए, सिर्फ खुद को नहीं। आजकल कुछ विज्ञापनों में बोतल के साथ अर्द्धनग्न महिलाएं दिखाते हैं- मुझे यह बिल्कुल बेवकूफी लगता है, ये कभी काम नहीं करता।
फीडबैक लेना बहुत जरूरी होता है- परिवार, दोस्तों या आस-पास के लोगों जैसे नाई, ड्राइवर या कुक से भी। कभी-कभी उनकी बातें मजेदार जरूर लगती हैं, लेकिन वे असली राय बताते हैं।
अगर कोई कहे कि "म्यूजिक अच्छा था", तो इसका मतलब हो सकता है कि विज्ञापन अच्छा नहीं था। लोगों की आदत होती है सीधे बोलने की बजाय सभ्य बनने की, इसलिए समझदारी से उनकी बात पकड़नी चाहिए।
मुझे याद है, एक बार मैं दो विज्ञापन घर लाया- एक पर्क चॉकलेट का था. जिसमें लड़की घूंघट में थी, दूसरा नोकिया का, जिसे बहुत कलात्मक तरीके से भावनाओं के साथ शूट किया गया था। मेरे कुक गोष्टो ने दोनों देखे और तुरंत कहा- "नोकिया वाला ऐड अवॉर्ड जीतेगा, लेकिन पर्क वाला माल बेचेगा!"
हर अभियान सफल नहीं होता। कभी व्यक्ति सोच लेता है कि बस इतना ही सबसे अच्छा कर सकता हूं। मेरा मानना है- आप घोड़े को पानी तक ले जा सकते हैं, पर उसे पानी पीने पर मजबूर नहीं कर सकते। समझौते तो होते हैं, लेकिन आपको ये भी समझना होगा कि हर बार छक्का मारना संभव नहीं।
कभी-कभी सफलता अप्रत्याशित रूप से मिलती है। लगभग दो साल पहले हमने एक कैंपेन बनाया था, जिसमें मॉल में एक एक्टिविटी रखी गई थी, एक अलमारी में कई चीजें रखी थीं जिन्हें लोग मुफ्त में ले सकते थे। लोग उन्हें निकालने की कोशिश करते थे, लेकिन असफल रहते। तभी स्क्रीन पर लाइन आती- "यह फेविकॉल से चिपका है।" यह वीडियो अचानक वायरल हो गया, और मुझे खुद समझ नहीं आया क्यों। यह मुझे दिवाली के पटाखे याद दिला गया, जो तब फटता है जब लगता है कि बुझ गया है। गुजरात टूरिज्म के क्लाइंट ने भी इस पर प्रशंसा संदेश भेजा। इतने सालों के अनुभव के बाद भी यह समझ पाना मुश्किल है कि कौन-सा विज्ञापन धूम मचा देगा।
मुझसे अक्सर पूछा जाता है कि एजेंसी का हेड बनने के बाद मुझे क्या बदलाव करने पड़े। यह पद मैंने पहले दो साल तक ठुकराया था। फिर एक वरिष्ठ साथी ने कहा, “तुम वैसे भी लीडर की तरह काम करते हो, तो इसे स्वीकार कर लो।”
यह सच है कि Ogilvy को बहुत सफलता मिली है, लेकिन यह सिर्फ पीयूष पांडे की वजह से नहीं है। जैसे Vodafone Cheeka और ZooZoo वाले विज्ञापन—उनसे मेरा कोई संबंध नहीं था। वे पूरी तरह महेश वी और राजीव राव का काम थे। उन्होंने बेहतरीन काम किया था, और अगर मैं उसमें दखल देता तो शायद खराब हो जाता।
Ogilvy & Mather केवल एक व्यक्ति पर नहीं चलती। इसके साथियों में एसएन राणे जैसे लोग हैं, जो सह-अध्यक्ष हैं और मैनेजमेंट, कानूनी और प्रशासनिक काम देखते हैं। विज्ञापन किसी एक व्यक्ति का खेल नहीं है। यह एक टीम गेम है, जैसे रोजर फेडरर, जिसके पास भी ट्रेनर और फिजियो की टीम होती है। हमारी भी शानदार टीम है, मैं बस कप्तान हूं। कभी-कभी कप्तान भी जीरो रन बनाता है, लेकिन टीम फिर भी जीत जाती है। इसका मतलब यह नहीं कि कप्तान हर बार जीतता है- जीत टीम की होती है।
लोग कहते हैं कि हर क्लाइंट पीयूष पांडे के साथ काम करना चाहता है, लेकिन मैं ऐसा नहीं मानता। Vodafone पर राजीव और हेफजिबा ने जो काम किया, वो इसका उदाहरण है। असली काम लोगों को तैयार करने और उन्हें 10–15 साल में निखारने का होता है। मैं क्लाइंट से कहता हूं- “अब मेरे पास एक रॉकस्टार है, आपको मेरी जरूरत नहीं।” असल में, उन्हें मुझे काम दिखाना भी जरूरी नहीं होता।
हर पेशेवर को किसी न किसी सीनियर ने ही आगे बढ़ाया होता है और वही सम्मान आगे कमाना पड़ता है। मुझे भी सुरेश ने आगे बढ़ाया था, और धीरे-धीरे मैंने जिम्मेदारी संभाली। अब वही सिलसिला राजीव और अभिजीत के साथ चल रहा है। यह सब काम अकेले किसी एक के बस की बात नहीं है और आज की नई पीढ़ी सच में शानदार काम कर रही है।
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अपने करियर के दौरान मेरे जीवन में कई भावुक पल आए हैं। 1985 में जब मेरे पिता का निधन हुआ, तो जीवन में एक गहरा खालीपन आ गया। मेरी मां को इस बात का अफसोस रहा कि उन्होंने 'मिले सुर मेरा तुम्हारा' का असर नहीं देखा, जो दो साल बाद आया था। उनके लिए वह एक तरह से नया राष्ट्रीय गीत था, जिसे सुनकर मेरे पिता बहुत गर्व महसूस करते।
मां बहुत मजबूत स्वभाव की थीं और पिता के गुजर जाने के बाद और भी सशक्त बन गईं। मुझे याद है, जब मैं Cannes से दो गोल्ड जीतकर बहुत उत्साहित होकर उन्हें फोन किया, तो उन्होंने कहा, “अच्छा काम है, लेकिन इसे सिर पर मत चढ़ा लेना।” यह एक दुनिया देख चुकी महिला की खूबसूरत सीख थी।
2010 में उनका निधन हुआ, तब हम सब जयपुर में थे। हालत अच्छी नहीं लग रही थी। पिछले साल जब मुझे पद्मश्री मिला, तो उनकी बहुत याद आई, वे बहुत खुश होतीं।
अब मुझे विज्ञापन क्षेत्र में 35 साल हो गए हैं। बदलाव तो स्वाभाविक हैं, और आज काम करने का तरीका पूरी तरह अलग है। मुझे सब कुछ स्वीकार है, बस एक बात खटकती है- पहले लोग एक कंपनी में 10–15 साल तक रहते थे, अब लोग बहुत जल्दी बदल लेते हैं। इससे रिश्ते बनाना मुश्किल हो जाता है। ग्राहक से रिश्ता बनाते-बनाते वह कंपनी छोड़ देता है। आज का दौर टेस्ट क्रिकेट नहीं, बल्कि ODI जैसा हो गया है।
लेकिन इसकी अच्छी बात यह है कि मैं नई चीजें सीख पा रहा हूं, जैसे डिजिटल दुनिया, जिसमें मैं ‘0’ हूं और युवा ‘100’। लोग कहते हैं कि 1991 के बाद बहुत कुछ बदल गया, लेकिन मेरे हिसाब से इंसान आज भी इंसान ही है, बहुत ज्यादा बदलाव नहीं आता।
मैं हमेशा अपने करियर को “हॉर्सेज फॉर कॉर्सेस” (हर व्यक्ति अलग काम के लिए योग्य) की सोच से देखता हूं। मतलब यह कि हर व्यक्ति से एक जैसा व्यवहार नहीं किया जा सकता। किसी में खास प्रतिभा होती है, तो किसी में कुछ कमियां। कोई देर रात तक काम करता है, तो सुबह 9:30 बजे ऑफिस आना मुश्किल होता है। जरूरी है कि इन बातों में संतुलन रखा जाए।
जीवन और काम दोनों में हमें अलग-अलग स्वभाव के लोगों से तालमेल बिठाना पड़ता है, कोई जल्द गुस्सा करता है, कोई देर से आता है। इंसान किसी सांचे में बना नहीं होता। अगर किसी में थोड़ी सी चमक दिखे, तो उसे और निखारो- उसकी कमियों में मत उलझो। अगर तुम हर किसी में एक ही पैटर्न ढूंढोगे, तो कभी संतुष्ट नहीं हो पाओगे।"