Independence Day Special: शक्ति का नाम ही नारी है..., 'आजादी के अमृत महोत्सव' में इन क्षेत्रीय वीरांगनाओं की शहादत को कैसे भुला सकता है देश
MC Independence Day Special: कहते हैं कि 'एक नारी किसी भी समय, कहीं भी, कैसी भी स्थिति का सामना बहादुरी से कर सकती है...' और फिर ये तो देश की आजादी और उसकी शान की बात थी, तब भला हमारी ये वीरांगनाएं कैसे पीछ हट जातीं
आजादी के अमृत महोत्सव में इन क्षेत्रीय वीरांगनाओं की शहादत को कैसे भुला सकता है देश
MC Independence Day Special: भारत की आजादी के 75 साल पूरे होने पर देशभर में 'आजादी का अमृत महोत्सव' (Azadi ka Amrit Mahotsav) मनाया जा रहा है। आज अगर हम अपनी आजादी के 75 साल पूरे होने (Independence Day 2022) की खुशी मना रहे हैं, तो ये उन विरले लोगों की देन है, जिन्होंने हमारे लिए हंसते-हंसते अपने प्राण त्याग दिए। यूं तो उस दौर में हर किसी ने अपने-अपने स्तर पर आजादी की लड़ाई लड़ी थी। मगर आज हम उन वीरांगनाओं (Women Warriors) को याद कर रहे हैं, जिन्होंने भरतवर्ष के अलग-अलग क्षेत्रों में इस लड़ाई का मोर्चा संभाला था।
कहते हैं कि 'एक नारी किसी भी समय, कहीं भी और कैसी भी स्थिति का सामना बहादुरी से कर सकती है...' और फिर ये तो देश की आजादी और उसकी शान की बात थी, तब भला हमारी ये वीरांगनाएं कैसे पीछ हट जातीं। नारीशक्ति को आप महज इन चार पंक्तियों से समझ सकते हैं...
"कोमल है कमजोर नहीं तू, शक्ति का नाम ही नारी है !! जग को जीवन देने वाली, मौत भी तुझसे हारी है !!"
देश की इन वीरांगनाओं को नमन
अज़ीज़ुन बाई
1832 में एक वेश्या के यहां जन्मी, अज़ीज़ुन की मां की मृत्यु तब हो गई, जब वह बहुत छोटी थी। एक युवा वेश्या के रूप में, अज़ीज़ुन बाई कानपुर में उमराव बेगम की शरण में, लुरकी महिल में रहती थीं। 1857 के विद्रोह के दौरान, उनका घर सिपाहियों के लिए एक मीटिंग प्वाइंट बन गया था।
उन्होंने खुद भी विद्रोह का समर्थन करने के लिए महिलाओं का अपना एक समूह बनाया, जिन्होंने लड़ने वाले पुरुषों के लिए रैली की, उनका इलाज और उनकी देखभाल की और उन्हें हथियार और गोला-बारूद सप्लाई किए।
अज़ीज़ुन बाई
वह एक पुरुष की पोशाक पहनी और घोड़ा को दौड़ाते हुए पिस्तौल से लड़ाई लड़ी। उन्होंने दूसरी महिलाओं को भी ट्रेनिंग दी थी। उनके हेडक्वार्टर ने युद्ध के पहले दिन से ही अंग्रेजों पर गोलियां चलानी शुरू कर दीं और नाना साहब को कानपुर में विजयी होने में मदद की।
बाद में उन्हें विद्रोह की प्रमुख साजिशकर्ता के रूप में पकड़ लिया गया और जनरल हैवलॉक ले जाया गया। अंग्रेजों ने उनके सामने दो ऑप्शन रखे कि या तो वे अपना गुनाह कबूल कर लें या फिर मौत उनका इंतजार कर रही है। इस वीरांगना शहादत को चुना।
झलकारी बाई
भारतीय विद्रोह में दलित महिला वीरांगनाओं (सैनिकों) की भागीदारी का सबसे श्रेष्ठ उदाहरण झलकारी बाई का है। झलकारी बाई ने झांसी की महिला ब्रिगेड, दुर्गा दल का नेतृत्व किया थी। जहां उनके पति झांसी सेना में सिपाही थे, वहीं झलकारी बाई तीरंदाजी और तलवारबाजी में कुशल थीं।
वह रानी लक्ष्मीबाई के जैसी ही थीं, जिसका इस्तेमाल उन्होंने अंग्रेजों को भटकाने के लिए भी किया था। उन्होंने सफलतापूर्वक सेना की कमान संभाली और असली रानी लक्ष्मीबाई को भागने में मदद की थी।
झलकारी बाई
अंग्रेजों को उनकी असली पहचान, उन्हें बंदी बनाने के बाद ही पता चली थी। अंग्रेज उन्हें ही रानी लक्ष्मीबाई समझ रहे थे। बाद में उन्हें रिहा कर दिया गया और वे 1890 तक जीवित रहीं।
झलकारी बाई और दुर्गा दल कुछ सबसे मजबूत महिला शख्सियत हैं, क्योंकि उन्होंने साइड लाइन पर इंतजार नहीं करने या विधवापन को गले लगाने का फैसला नहीं किया, बल्कि खुद को हथियार बनाकर अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया।
ऊदा देवी
ये कहानी 1857 में लखनऊ के सिकंदर बाग में हुई लड़ाई के बारे में बताती है। कॉलिन कैंपबेल के आदेश पर हजारों भारतीय सैनिक मारे गए, तब एक शार्प शूटर ने पेड़ के ऊपर छिप कर अंग्रेजों पर गोलियां चलाईं।
युद्ध के अंत में ही अंग्रेजों को पता चल पाया कि यह एक महिला थी, जो अंडरकवर विद्रोही थी। उन्होंने अपनी थैली में गोला-बारूद और पुरानी पिस्तौल भरी हुई थीं। इस महिला ने निशाना लगा कर 6 से ज्यादा लोगों को मार डाला था।
ऊदा देवी
यही कारण है कि लखनऊ के सिकंदर बाग के बाहर चौक पर इस बहादुर महिला योद्धा की प्रतिमा आज भी खड़ी है। ये महिला कोई और नहीं बल्कि ऊदा देवी थीं।
केलाडी चेन्नम्मा राजा सोमशेखर नायक से शादी करने के बाद केलादी (कर्नाटक का एक कस्बा) की रानी बनीं। जब शिवाजी के दूसरे पुत्र राजाराम पर मुश्किल आई, और वह मुगलों से भाग रहे थे, तो चेन्नम्मा ने उन्हें आश्रय दिया था।
यह जानने के बाद कि चेन्नम्मा ने राजाराम को अपने यहां पनाह दी है, तो औरंगजेब ने उनसे लड़ने के लिए अपने आदमियों को भेजा। उन्होंने बड़ी ही वीरता से ये लड़ाई लड़ी और मुगल सम्राट की सेना को धूल चटा दी।
केलाडी चेन्नम्मा
इतना ही नहीं युद्ध के आखिर में, केलाडी और मुगलों के बीच एक संधि भी हुई। इसके जरिए बादशाह औरंगजेब ने केलाडी को एक अलग राज्य के रूप में मान्यता दी।
ओनाके ओबव्वा
ओबव्वा न तो कोई रानी थी और न ही राजकुमारी, वास्तव में वह चित्रदुर्ग किले के एक सामान्य गार्ड की पत्नी थीं। यह उस समय के आसपास बात है, जब हैदर अली बार-बार किले को जीतने की कोशिश कर रहा था, लेकिन असफल रहा।
उसने एक बार ओबव्वा को एक सुरंग जैसे बड़े से छेद से किले में घुसते देखा और अपने आदमियों को भी ऐसा करने का आदेश दिया। ओबव्वा अकेले ही उस छेद के दूसरी खड़े होकर किली की रक्षा की।
ओनाके ओबव्वा
उन्होंने लकड़ी के एक लंबे से डंडे से ये पूरी लड़ाई लड़ी, जिसे ओनेक कहा जाता है। इसका इस्तेमाल धान के दाने निकालने के लिए किया जाता है। उन्होंने उस छेद से अंदर घुसने वाले सभी दश्मुनों के सर पर ओनेक से वार किया और उन्हें ढेर करती गईं।
जब उनके पति, मुद्दा हनुमा दोपहर का खाना खाकर घर से लौटे, तो उन्होंने ओबाव्वा को खून से सना ओनेक और 100 से ज्यादा मृत दुश्मनों के साथ खड़े देखा। ये सब देख कर वे चौंक गए।