भारत में पिछले कुछ सालों से डिजिटल बैंक या नियोबैंक्स का बोलबाला है। ये स्मार्टफोन पर चलने वाले प्लेटफॉर्म युवाओं, सैलरी वालों, गिग वर्कर्स और छोटे बिजनेस के लिए वरदान साबित हो रहे हैं। पुराने बैंकों की धीमी सर्विस, पुरानी सिस्टम और ब्रांच के भारी खर्च से तंग आकर लोग इनकी ओर रुख कर रहे हैं। ये तुरंत अकाउंट खोलते हैं, जीरो बैलेंस रखते हैं, इंस्टेंट कार्ड देते हैं और खर्च ट्रैकिंग के स्मार्ट टूल्स देते हैं। लेकिन सवाल यह है क्या ये हमेशा ज्यादा ब्याज देंगे?
ये डिजिटल बैंक असल में खुद का बैंकिंग लाइसेंस नहीं रखते। वे बड़े रेगुलेटेड बैंकों से पार्टनरशिप करते हैं। ऐप और यूजर एक्सपीरियंस इनका होता है, लेकिन पैसा पार्टनर बैंक में सुरक्षित रहता है। कोई फ्रॉड या प्रॉब्लम हो तो पार्टनर बैंक जिम्मेदार। कम खर्च (बिना ब्रांच के) से ये ज्यादा ब्याज, कैशबैक या स्पेशल रेट्स देते हैं। छोटे-मोटे इमरजेंसी फंड या शॉर्ट-टर्म सेविंग्स के लिए ये शानदार हैं। लेकिन ये रेट्स अक्सर शुरुआती या बैलेंस स्लैब पर लिमिटेड होते हैं।
पुराने बैंक अभी भी लॉन्ग-टर्म स्टेबिलिटी के राजा हैं। लॉकर, होम लोन, NRE अकाउंट्स, ट्रेड सर्विसेज जैसी पूरी सुविधाएं देते हैं। ब्याज कम लगे लेकिन स्टेबल और भरोसेमंद। फ्रॉड हैंडलिंग में इनका लंबा अनुभव है। बड़े डिपॉजिट या फैमिली के कॉम्प्लेक्स मामलों में ब्रांच का सहारा जरूरी। डिजिटल बैंक छोटे ट्रांजेक्शन के लिए अच्छे, लेकिन बड़े फैसले पुराने बैंकों पर।
क्या डिजिटल बैंक हमेशा ज्यादा ब्याज देंगे? इसका जवाब है नहीं। शुरुआत में आकर्षक रेट्स देते हैं, लेकिन ग्रोथ के साथ मार्केट रेट्स के करीब आ जाते हैं। पार्टनर बैंक के बैलेंस शीट पर निर्भर। पुराने बैंक भी ऐप्स सुधार रहे हैं। भविष्य में डिजिटल इनोवेशन पर फोकस करेंगे, न कि सिर्फ हाई रेट्स पर।
सेवर्स के लिए बेस्ट सलाह है दोनों का मिक्स यूज करें। डिजिटल में शॉर्ट-टर्म फंड्स डालें ज्यादा ब्याज के लिए, पुराने में लॉन्ग-टर्म डिपॉजिट और लोन रखें। ज्यादा रिटर्न दिखे तो सावधान रहें। डिपॉजिट इंश्योरेंस पार्टनर बैंक पर लागू होता है। यह ब्लेंड अप्रोच से बिना रिस्क के ज्यादा कमाई संभव है।