दिल्ली की प्रिया वर्मा (बदला हुआ नाम) ने अपने बेटे को साल 2018 में इंटरनेशनल स्कूल में एडमिशन कराया। ताकि, आगे बेटा अमेरिका में जाकर पढ़ाई करे। अब साल 2025 में बदलते जियोपॉलिटिकल हालात और अमेरिका की अनिश्चित नीतियों ने प्लान ही बदल दिया। ज्योत्सना अपने बेटे को पढ़ाने के लिए अब दूसरी कंट्री जैसे आस्ट्रेलिया या सिंगापुर और देश की अच्छी यूनिवर्सिटी के ऑप्शन तलाश रही हैं। उनके मुताबिक अगर बच्चा विदेश नहीं जा पा रहा हो सालभर में 25 लाख रुपये फीस देना कोई समझदारी वाला कदम नहीं है।
आजकल अपने बच्चों को विदेश भेजकर पढ़ाने का चलन बढ़ने लगा है। पेरेंट्स विदेशों में बच्चे पढ़ाने के लिए इंटरनेशनल स्कूलों में पढ़ा रहे हैं। इससे बड़ा सवाल है कि क्या CBSE से बेहतर है इंटरनेशनल बोर्ड। दूसरा, बदलते जियोपॉलिटिकल हालात और अमेरिका की अनिश्चित नीतियों ने कई स्टूडेंट्स का प्लान बदल दिया। तो क्या ऐसे में सालाना 30 लाख रुपये फीस देकर पढ़ाना सही है। इंटरनेशनल पाठ्यक्रम के मुताबिक पढ़ने से विदेश में पढ़ना आसान हो जाता है लेकिन ये उतना ही महंगा होता है।
इंटरनेशनल स्कूलों का तेजी से बढ़ा रह है चलन
देश में इंटरनेशनल स्कूलों का चलन तेजी से बढ़ रहा है। पहले सिर्फ बड़े शहरों में सीमित संख्या में ये स्कूल होते थे, पर अब ये टियर-2 और टियर-3 शहरों तक पहुंच चुके हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या हर बच्चे के लिए यह सही विकल्प है?
इंटरनेशनल बनाम इंडियन स्कूल
इंटरनेशनल स्कूल्स का कोर्स वैश्विक स्तर पर मान्य होता है, जैसे IB और Cambridge (IGCSE)। वहीं भारतीय स्कूल्स CBSE या ICSE बोर्ड पर आधारित होते हैं, जो भारत की हायर एजूकेशन सिस्टम से मेल खाते हैं। इंटरनेशनल स्कूल्स की पढ़ाने के सिस्टम में लाइफ स्किल्स, रिसर्च, और क्रिटिकल थिंकिंग पर जोर होता है। जबकि भारतीय बोर्ड अब भी सिलेबस और अंकों पर अधिक फोकस करता है।
फीस और खर्चे
इंटरनेशनल स्कूल्स की सालाना फीस 7 लाख रुपये से 30 लाख रुपये तक हो सकती है। वहीं भारतीय स्कूल्स की फीस 1-4 लाख रुपये के बीच होती है।
क्यों चुनते हैं पेरेंट्स इंटरनेशनल स्कूल
ज्यादातर माता-पिता अपने बच्चों को इंटरनेशनल स्कूल इसलिए भेजते हैं क्योंकि वे आगे चलकर विदेश में पढ़ाई कराना चाहते हैं। इस सिस्टम में बच्चे को विदेशी यूनिवर्सिटीज की पढ़ाई का माहौल और तरीका पहले से समझ में आता है।
ज्यादा फीस और महंगाई - IB स्कूल्स में हर साल 10-15% तक फीस बढ़ जाती है।
लाइफस्टाइल इंफ्लेशन - बच्चों के दोस्तों के स्तर से मेल खाने के लिए माता-पिता को भी फोन, कपड़े, गाड़ी, यहां तक कि छुट्टियां तक अपग्रेड करनी पड़ती हैं।
टीचर्स की कमी – छोटे शहरों में IGCSE स्कूल तो खुल गए हैं, पर उतने प्रशिक्षित शिक्षक नहीं मिलते।
भारतीय पढ़ाई में ट्रांजिशन की दिक्कत – अगर बच्चा बाद में भारत में ही पढ़ाई करना चाहे, तो IB या IGCSE से CBSE में आना मुश्किल होता है। मेडिकल या इंजीनियरिंग जैसे कोर्स के एंट्रेंस एग्जाम्स में भी परेशानी होती है।
तो क्या करें?
इंटरनेशनल स्कूल तभी चुनें जब आपने विदेश में पढ़ाई का निर्णय पक्का कर लिया हो। साथ ही आपकी आर्थिक स्थिति इस खर्च को संभालने की अनुमति देती हो। अगर आपको यकीन नहीं कि बच्चा विदेश जाएगा या नहीं, तो उसे क्लास 8 या 9 के आसपास इंडियन बोर्ड में शिफ्ट करना बेहतर रहेगा ताकि ट्रांजिशन आसान हो।
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