लोग सबसे ज्यादा सवाल यह पूछ रहे हैं कि ईरान के परमाणु ठिकानों पर अमेरिका के बम गिराने उन पर और उनके देश पर क्या असर पड़ेगा। क्या इससे बड़ा बदलाव आएगा जैसे जहाजों के आनेजाने का रास्ता बदल जाएगा, क्रूड की कीमतें बढ़ जाए और शक्ति का संतुलन बदल जाएग?
लोग सबसे ज्यादा सवाल यह पूछ रहे हैं कि ईरान के परमाणु ठिकानों पर अमेरिका के बम गिराने उन पर और उनके देश पर क्या असर पड़ेगा। क्या इससे बड़ा बदलाव आएगा जैसे जहाजों के आनेजाने का रास्ता बदल जाएगा, क्रूड की कीमतें बढ़ जाए और शक्ति का संतुलन बदल जाएग?
ईरान ने बदले की कार्रवाई की धमकी दी है। उधर, ईरान के संसद ने हॉर्मुज की खाड़ी को बंद करने के प्रस्ताव पारित किया है। यह 33 किलोमीटर चौड़ा एक गलियार है, जिसका इस्तेमाल ऑयल की 20 फीसदी ग्लोबल सप्लाई के लिए होता है। हालांकि, इस गलियारे को बंद करने के अंतिम फैसला ईरान की सुप्रीम काउंसिल को लेना है, जिसके प्रमुख अयातुल्ला खामेनेई है। इसे सबसे पावरफुल माना जाता है।
हॉर्मुज के बारे में पूछने पर ईरान के विदेश मंत्री अब्बास अराघची ने कहा कि ईरान के पास कई तरह के विकल्प मौजूद हैं। हालांकि, उन्होंने इस बारे में ज्यादा कुछ नहीं बताया। लेकिन, खबरों में कहा जा रहा है कि ईरान इस गलियारे के इस्तेमाल से जहाजों को रोकने के लिए हाई-स्पीड बोट्स का इस्तेमाल कर सकता है। इसके अलावा, यमन के हूतियों ने लाल सागर के बंदरगाहों के इस्तेमाल में भी बाधा पैदा करने की धमकी दी है।
अगर इस गलियारे को बंद किया जाता है तो चीन जैसे ईरान के दोस्त देशों और ट्रेड पार्टनर्स को भी दिक्कत का सामना करना पड़ेगा, क्योंकि ये देश काफी हद तक इस गलियारे के इस्तेमाल पर निर्भर हैं। इस बीच, अमेरिकी विदेशमंत्री मार्को रूबियो ने चीन से अपील की है कि वह ईरान को इस गलियारे को बंद नहीं करने के लिए कहे।
रूबियो ने कहा, "हम चीन की सरकार को प्रोत्साहित करते हैं कि वह उनसे (ईरान) बात करे क्योंकि वे ऑयल के लिए हॉर्मुज की खाड़ी पर काफी ज्यादा निर्भर करते हैं। अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो यह एक बड़ी गलती होगी। ऐसा करना उनके लिए आर्थिक आत्महत्या होगी। "
ईरान पर अमेरिकी बम हमलों से दुनियाभर में कई तरह का संदेश गया है। कुछ देश इसका यह मतलब निकाल रहे हैं कि अमेरिका राष्ट्रपति डोनाल्ट ट्रंप यह साबित करना चाहते हैं कि उनकी मांगें नहीं मानी गईं तो वह बड़े कदम उठा सकते हैं। चूंकि चीन की पहले से अमेरिका के साथ आर्थिक और राजनीतिक टकराव चल रहा है, जिससे यह उसके लिए बड़ी चिंता है।
अबक तक चीन का मध्यपूर्व में अच्छा प्रभाव रहा है, लेकिन अमेरिका के इजरायल के साथ खुलकर आ जाने से उस पर असर पड़ेगा। इससे पहले चीन सऊदी अरब और ईरान के बीच शांति समझौता कराकर और ईरन को BRICS और SCO में शामिल कर अपनी ताकत दिखाई थी।
चीन और रूस दोनों ही उस व्यवस्था को चुनौती देने की कोशिश करते रहे हैं, जिस पर अमेरिका का असर रहा है। उनकी दिलचस्पी बहुध्रुवीय व्यवस्था बनाने में रही है। अब अमेरिका के अपनी ताकत दिखाने के बाद चीन और रूस के अभियान को बड़ा झटका लगा है। यूरोप ने जिस तरह से इस पर प्रतक्रिया दिखाई है, वह भी चीन के लिए अच्छा नहीं है। ज्यादातर यूरोपीय देशों ने ईरान को अपना परमाणु कार्यक्रम रोक देने को कहा है।
सवाल यह है कि अगर इजरायल ईरान में सत्ता परिवर्तन की कोशिश करता है तो क्या चीन और रूस अयातुल्ला सरकार को बचाने के लिए आगे आएंगे। अरघाची पहले ही रूस पहुंच चुके हैं। वह रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के साथ हालात पर चर्चा कर रहे हैं। ये देश सीधे तौर पर ईरान की मदद नहीं कर सकते, लेकिन उसे हथियार के मामले में सहायता दे सकते हैं।
मध्यपूर्व देशों की बात की जाए तो इसके कई देशों जैसे सऊदी अरब, यूएई, कतर और कुवैत ने अमेरिका में भारी निवेश किया है। ऐसे में उनके शिया देश ईरान की मदद करने की कम ही संभावना है। लेकिन, उन्हें अपने देशों में अमेरिका के खिलाफ बढ़ते गुस्सा को लेकर सतर्क रहना होगा। कुछ मुस्लिम देशों में इसके संकेत दिखने शुरू हो गए हैं।
यह अहम है कि अमेरिका ने ईरान पर हमले में मध्यपूर्व स्थित अपने 8 सैन्य ठिकानों के इस्तेमाल लड़ाकू विमानों में ईंधन भरने के लिए नहीं करने का फैसला किया। B2 बमवर्षक जहाजों ने अमेरिका में मिसौरी से उड़ान भरी और 37 घंटों में 11,000 किलोमीटर की दूरी कर ईरान पहुंचे। इस दौरान हवा में ईंधन भरने के लिए अमेरिका का टैंकर प्लेन उनके साथ उड़ता रहा। अमेरिका ने यह संकेत दे दिया है कि उसे ईरान के खिलाफ अपने अभियान के लिए सऊदी अरब, कुवैत और यूएई जैसे मित्र देशों की दरकार नहीं है।
लोग इस वजह से राहत की सांस ले रहे हैं कि अमेरिकी हमले में ईरान के परमाणु ठिकानों में विकिरण फैलने के संकेत नहीं मिले हैं। यह भी माना जा रहा है कि मिडिल ईस्ट में एनर्जी इंफ्रास्ट्रक्चर (क्रूड ऑयल का इंफ्रास्ट्रक्चर) ध्वस्त नहीं हुआ है। भारत इन देशों से अपना 40 फीसदी क्रूड खरीदता है।
सवाल यह भी पूछा जा रहा है कि क्या ईरान के परमाणु ठिकानों पर हमले से अमेरिका का मकसद पूरा हो गया है। अमेरिका उपराष्ट्रपति जेडी वेंस ने एक टीवी प्रोग्राम में कहा कि अमेरिकी हमले से ईरान का परमाणु कार्यक्रम कई साल पीछे चला गया है। लेकिन, इस सवाल का जवाब उन्हें सीधे तौर पर नहीं दिया कि क्या ईरान के संवर्द्धित यूरेनियम के भंडार को नष्ट कर दिया गया है।
अमेरिका के हमले से लड़ाई का अंत नहीं हुआ है, क्योंकि ईरान घुटने टेकने को तैयार नहीं है। डोनाल्ड ट्रंप ने ईरान से बगैर शर्त सरेंडर करने को कहा था, लेकिन ऐसा लगता है कि अमेरिकी हमले के बाद भी यह मकसद पूरा नहीं हुआ है। ईरान में सत्ता परिवर्तन का इजरायल का बड़ा मकसद भी पूरा होता नहीं दिख रहा। सैटेलाइट से प्राप्त तस्वीरों को देखने से पता चलता है कि ईरान के प्रमुख तीन परमाणु ठिकानों को बड़ा नुकसान पहुंचा है। लेकिन, यह कनफर्म नहीं हुआ है कि अमेरिका के 13,000 किलोग्राम के बमों ने सरक्षित रखे गए संवर्द्धित यूरेनियम के भंडार को नष्ट किया है या नहीं।
इंटरनेशनल एटोमिक एनर्जी एजेंसी (IAEA) ने अपने अनुमान में कहा है कि ईरान यूरेनियम को 60 फीसदी तक संवर्धित करने में सफल रहा है, जबकि बम बनाने के लिए 90 फीसदी तक संवर्द्धन की जरूरत पड़ती है। उधर, ट्रंप यह कहते रहे हैं कि ईरान परमाणु बम बनाने के करीब पहुंच गया था। वह इसे कुछ हफ्तों के अंदर बनाने की स्थिति में था। लेकिन, इस मार्च में अमेरिका में डायरेक्टर ऑफ इंटेलिजेंस के उस बयान से यह मेल नहीं खाता, जिसमें उन्होंने कहा था कि ईरान को परमाणु बम बनाने में कम से कम और तीन साल का समय लगेगा।
अयातुल्ला खामेनेई के एक सलाहकार अली शामखानी ने कहा है कि उनके देश के पास अब भी यूरेनियम का बड़ा भंडार बचा हुआ है। उन्होंने इस बारे में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म X पर बताया है कि परमाणु ठिकानों को ध्वस्त कर देने के बाद भी खेल खत्म नहीं हुआ है।
इससे यह पता चलता है कि ईरान पर हमला कर अमेरिकी ने भले ही अपना तात्कालिक मकसद पूरा कर लिया है लेकिन इससे रणनीतिक मकसद पूरा नहीं हुआ है। मुस्लिम देशों में अमेरिका के खिलाफ नाराजगी बढ़ रही है। परमाणु अप्रसार संधि को लेकर अविश्वास बढ़ा है।
अब दुनिया की नजरें ईरान के अगले कदम पर हैं। दुनिया यह जानना चाहती है कि क्या चीन, रूस और दूसरे देश खुलकर इस मामले में हस्तक्षेप करेंगे। इस लड़ाई के विकराल रूप लेने की संभावनाएं बनी हुई हैं और इसे काबू में करने के राजनीतिक रास्ते सीमित दिख रहे हैं। ऐसे में पूरी दुनिया ऐसे मोड़ पर खड़ी है, जो बहुत नाजुक है।
सैबल दासगुप्ता
(दासगुप्ता बीजिंग में 14 साल तक टाइम्स ऑफ इंडिया के कॉरेसपॉन्डेंट रह चुके हैं।)
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