1967 के बिहार विधानसभा चुनाव के बाद देश में पहली बार जनसंघ और CPI ने मिलकर बनाई थी सरकार
1967 के चुनावों में कांग्रेस के मुख्यमंत्री कृष्ण वल्लभ सहाय को भारी मतों से हराने वाले महामाया प्रसाद सिन्हा तब बिहार के नए मुख्यमंत्री बने थे। वह निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर जीते थे
1967 में बिहार में जब कांग्रेस की सरकार गिरी तो कृष्ण बल्लभ सहाय सीएम थे। (तस्वीर बीच में)। बायीं तरफ राम मनोहर लोहिया और दाईं तरफ कर्पूरी ठाकुर
1967 में कांग्रेस को बिहार की कुल 53 लोकसभा सीटों में से 34 सीटें मिल गईं थीं। लेकिन बिहार विधान सभा चुनाव में कांग्रेस अल्पमत में आ गई। क्योंकि तब लोगों में केंद्र सरकार की अपेक्षा राज्य सरकार से ज्यादा नाराजगी थी। तब दोनों चुनाव एक साथ ही होते थे। कांग्रेस को कुल 318 में से सिर्फ 128 विधान सभा सीटें ही मिल पाई थीं।
प्रतिपक्ष में सबसे अधिक यानी 67 सीटें संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (संसोपा) को मिली थीं। तब बिहार संसोपा के सर्वोच्च नेता कर्पूरी ठाकुर थे। राज्य में मिली जुली सरकार के मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर ही बनें, ऐसा दल के शीर्ष नेता डॉक्टर राममनोहर लोहिया भी चाहते थे।
कर्पूरी ठाकुर को मुख्यमंत्री बनाने के पक्ष में नहीं थीं कुछ पार्टियां
लेकिन, कुछ सहयोगी गैर कांग्रेसी दल-जन क्रांति दल के महामाया प्रसाद सिन्हा को मुख्यमंत्री बनवाना चाहते थे। महामाया बाबू ने पटना पश्चिम विधान सभा क्षेत्र में तब के मुख्यमंत्री कृष्ण बल्लभ सहाय को 1967 के चुनाव में भारी मतों से हराया था। महामाया बाबू निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में जीते थे।
पहली बार एक निर्दलीय विधायक, मुख्यमंत्री बने। बाद में महामाया बाबू रामगढ़ के पूर्व जमींदार कमाख्या नारायण सिंह के नेतृत्व वाले दल जन क्रांति दल में शामिल हो गये। उस साल चुनाव नतीजे आने के बाद जब मुख्यमंत्री पद के चयन की बात चली तो सीपीआई और जन क्रांति दल के नेताओं ने कहा कि हम संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के नेता कर्पूरी ठाकुर को मुख्यमंत्री नहीं बनाना चाहते,भले उनका दल सबसे बड़ा है।
महामाया प्रसाद सिन्हा बने 1967 में बिहार के मुख्यमंत्री
फिर डॉक्टर लोहिया और कर्पूरी ठाकुर सहित दूसरे लोगों ने भी महामाया प्रसाद सिन्हा के नाम को स्वीकार कर लिया। विधान सभा चुनाव में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी को 67 सीटें मिलीं तो भारतीय जनसंघ को 26 सीटों पर कामयाबी मिली थी। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की 24 सीटों पर जीत हुई तो प्रजा सोशलिस्ट पार्टी को 18 सीटें मिलीं।
याद रहे कि 1967 में बिहार में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार बनी थी। यानी बिहार में सत्ता से कांग्रेस का एकाधिकार पहली बार टूटा था। मंत्रिमंडल के गठन को लेकर जरूर मतभेद था। परस्पर विरोधी विचार वाले दल सीपीआई और भारतीय जनसंघ के नेतागण एक साथ किसी मंत्रिमंडल में शामिल नहीं होना चाहते थे। लेकिन डॉक्टर लोहिया ने दोनों दलों के कुछ शीर्ष नेताओं से पटना में बंद कमरे में बातचीत की और सहमति बन गई। सरकार के स्थायित्व को संभव बनाने के लिए देश में पहली बार जनसंघ और सीपीआई के नेता एक ही मंत्रिमंडल में मंत्री बने। यह राजनीतिक क्षेत्र का नया रिकार्ड था। वैसा ‘मिलन’ न तो उससे पहले कभी हुआ था, न ही बाद में।
हालांकि महामाया सरकार सिर्फ दस महीने ही चली। लेकिन कम ही समय में उनकी सरकार ने कई अच्छे काम किये। उसमें उप मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर का प्रमुख योगदान रहा। उस सरकार के किसी मंत्री के बारे में यह अफवाह भी नहीं थी कि वे पैसे बनाने में लगे हैं। डॉक्टर लोहिया चाहते थे कि ‘‘गैर कांग्रेसी सरकार बिजली की तरह कौंधे और सूरज की तरह स्थायी हो जाए।
डॉ लोहिया चाहते थे कि महामाया सरकार ने अपने कार्यकाल के प्रारंभिक छह महीनों में ही कुछ ऐसे चमत्कारिक काम कर के दिखा दे कि आम जनता कांग्रेस को भूल जाए। लेकिन उनकी ही पार्टी के कुछ पद लोलुप विधायकों ने उनकी यह इच्छा पूरी नहीं होने दी। पर, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी और उसके सुप्रीमो डा लोहिया ने उन स्वार्थियों के साथ कोई समझौता नहीं किया। समझौता करते तो सरकार कुछ और दिन चल जाती। याद रहे कि सभी घटक दलों के विधायकों ने दल बदल किया था।
महामाया प्रसाद सिन्हा की सरकार में ऐसे-ऐसे नेता मंत्री बने थे जिन पर भ्रष्टाचार का कोई आरोप पहले कभी नहीं लगा था। इसलिए सिन्हा सरकार के गठन के शुरुआती तीन महीनों तक सरकारी दफ्तरों में घूसखोरी लगभग बंद हो गयी थी। सरकारी ब्यूरोक्रेसी, ईमानदार राजनीतिक कार्यपालिका से डर गई थी।
लेकिन, जब सिन्हा मंत्रिमंडल के ही कुछ सदस्यों की छोटी-छोटी कमजोरियां सामने आनी लगीं तो सरकारी दफ्तरों में भी पहले जैसा हाल हो गया। उधर राजनीतिक धरातल पर विस्फोट हो गया। यदि डा लोहिया ने अपने दल के बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल को महामाया मंत्रिमंडल से बाहर करने की जिद नहीं की होती तो संयुक्त मोर्चा की सिन्हा सरकार कुछ दिन और चल गई होती। बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल के नेतृत्व में ही बाद में मंडल आयोग बना था।
उस सरकार ने ऐतिहासिक अकाल से निपटने में तो सीमित साधनों के बावजूद कमाल का काम किया था। एक काम और पहली बार हुआ। सुप्रीम कोर्ट के एक रिटायर जज टीएल वेंकटराम अय्यर के नेतृत्व में महामाया सरकार ने एक न्यायिक जांच आयोग का गठन कर दिया था। आयोग ने 1946 से सन तक बिहार में मुख्यमंत्री और मंत्री रहे छह बड़े कांग्रेसी नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच की थी।
अय्यर आयोग ने सन 1970 में जब अपनी रपट दी तो पाया गया था कि सभी छह पूर्व सत्ताधारी नेता किसी न किसी आरोप में दोषी हैं। यह भी एक रिकॉर्ड रहा कि जनसंघ और कम्युनिस्ट मंत्रियों के आपसी मतभेद के कारण महामाया सरकार नहीं गिरी, बल्कि सरकार को समर्थन दे रहे दलों के कुछ विधायकों के सत्ता मोह के कारण सरकार गिरी थी।
33 विधायकों ने दल बदल किया और नई सरकार में सभी 33 दल बदलू मंत्री बना दिए गए। यह भी एक रिकॉर्ड ही था। दलबदलुओं में सीपीआई के एक विधायक भी थे। पहली बार कोई कम्युनिस्ट विधायक ने सत्ता के लिए दल छोड़ा था।