'130 सीटें मिलीं तो ये मेरी बहुत बड़ी हार होगी', क्या बिहार में उस नेता की बराबरी करना चाहते हैं PK जिसे लालू मानते हैं अपना आदर्श
प्रशांत किशोर यह दावा कई बार कर चुके हैं कि उनकी पार्टी 2025 के बिहार विधानसभा चुनाव में 130 से 140 सीटें जीतती है तो यह बहुत बड़ी हार होगी। हालांकि प्रशांत ये नहीं बताते कि वह आखिर कितनी सीटों का अनुमान लगा रहे हैं। मतलब 130 से 140 सीटों पर बहुत बड़ी हार है तो क्या उनकी पार्टी इस बार विधानसभा चुनाव में 160-170 या उससे भी ज्यादा सीटें जीतने जा रही है
Bihar Chunav 2025: क्या बिहार में उस नेता की बराबरी करना चाहते हैं PK जिसे लालू मानते हैं अपना आदर्श
'अगर 130-140 सीट आई तो मैं उसको अपनी बहुत बड़ी हार मानूंगा. मैं अपने जीवन की बहुत बड़ी हार मानूंगा कि तीन साल, मेरे जीवन का सब कुछ, मेरा अनुभव, मेरा प्रयास, संसाधन, मेरा सब कुछ, मेरा जीवन मैंने दांव पर लगाया है उसके बाद अगर 130 सीट आए तो मैं उसको व्यक्तिगत हार मानूंगा. जन सुराज की हार मानूंगा. अर्श पर या फर्श पर.. बीच में नहीं.'
मशहूर चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर जब बिहार में विधानसभा चुनाव को लेकर भविष्यवाणी करते हैं तो बेहद आत्मविश्वास से भरे हुए होते हैं। प्रशांत किशोर ने अपने जनसुराज अभियान की शुरुआत 2 अक्टूबर 2022 को की थी। इस अभियान के तहत वो बिहार के गांव-गांव घूमे हैं और अब जनसुराज पार्टी के नाम से चुनाव में हिस्सा लेने को तैयार हैं। प्रशांत किशोर बीच-बीच में मीडिया से बातचीत भी करते रहते हैं और ऐसे दावे करते हैं जो लोगों को हैरान करते हैं।
प्रशांत किशोर यह दावा कई बार कर चुके हैं कि उनकी पार्टी 2025 के बिहार विधानसभा चुनाव (Bihar Election 2025) में 130 से 140 सीटें जीतती है तो यह बहुत बड़ी हार होगी। हालांकि प्रशांत ये नहीं बताते कि वह आखिर कितनी सीटों का अनुमान लगा रहे हैं। मतलब 130 से 140 सीटों पर बहुत बड़ी हार है तो क्या उनकी पार्टी इस बार विधानसभा चुनाव में 160-170 या उससे भी ज्यादा सीटें जीतने जा रही है!
हालांकि उन्होंने इस पर कुछ कहा नहीं तो केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है। लेकिन अगर आजादी के बार बिहार की चुनावी राजनीति को देखें तो PK का दावा महज मनोवैज्ञानिक उद्गार से ज्यादा कुछ नहीं लगता। यह अपने कार्यकर्ताओं में सकारात्मक ऊर्जा भरने का प्रयास हो सकता है। इससे ज्यादा तो कुछ नहीं। क्योंकि बिहार में लगभग 72 फीसदी सीट हासिल करने का कारनामा केवल एक नेता कर सका है। वह नेता कर्पूरी ठाकुर हैं। 1977 में बिहार विधानसभा चुनाव में कर्पूरी ठाकुर की अगुवाई में जनता पार्टी ने संयुक्त बिहार (आज का झारखंड भी) की 324 में से 214 सीटें जीती थीं।
कर्पूरी ठाकुर की जीत में शामिल थीं कई वजहें
यह भी ध्यान देने योग्य है कि जनता पार्टी के इस कारनामे में तब कांग्रेस विरोधी लहर, कर्पूरी ठाकुर जैसे लीजेंड नेता की लोकप्रियता, बिहार आंदोलन जैसे तमाम फैक्टर शामिल थे। प्रशांत किशोर की पार्टी के पास अभी ऐसा कोई भी फैक्टर नहीं है। न ही उनका कर्पूरी ठाकुर की तरह जनाधार है और बिहार में 1970 के दशक जैसी एंटी-इंकंबेंसी भी नहीं दिखती। हां, 20 वर्षों के नीतीश कुमार के शासन और उनके 'खेमा-बदल' ने आम जनता के बीच जरूर एक उलझन पैदा की है। इसका नतीजा 2020 के विधानसभा चुनाव में देखने को भी मिला था। लेकिन यह 1977 में इमरजेंसी जैसा माहौल नहीं है।
बाद में कांग्रेस ने भी जीती थीं अच्छी-खासी सीटें
ऐसा नहीं है कि बिहार में ज्यादा सीटें कर्पूरी ठाकुर ही लेकर आए थे। 1980 और 1985 के विधानसभा चुनाव कांग्रेस ने भी 196 और 169 सीटें हासिल की थीं। लेकिन इतनी सीटों को तो प्रशांत किशोर अपनी 'बहुत बड़ी व्यक्तिगत हार' के रूप में देख रहे हैं। इसलिए तुलना केवल एक ही चुनाव के नतीजे से की जा सकती है और वो चुनाव 1977 का है। जब किसी एक पार्टी को उतनी सीटें आई थीं, शायद जितनी सीटें इस बार प्रशांत किशोर सोच रहे हैं।
पॉलिटिकल एक्सपर्ट भी मानते हैं, PK का दावा ‘मनोवैज्ञानिक रणनीति’
प्रशांत किशोर के दावे को पॉलिटिकल एक्सपर्ट्स भी केवल 'मनोवैज्ञानिक दावे' के रूप में देख रहे हैं। बिहार की राजनीति को करीब से देखने पॉलिटिकल एक्सपर्ट डॉ. संजय कुमार का कहना है-प्रशांत जमीन पर पहली बार चुनाव लड़ने आ रहे हैं। उनके पास कोई बड़ी सोशल इंजीनियरिंग भी नहीं है। दावा वो चाहें तो 243 सीटों का भी कर सकते हैं लेकिन सच ये है कि जब पटना के गांधी मैदान में उन्होंने रैली की तो ज्यादातर कुर्सियां खाली रह गईं। मतलब लोग उन्हें सुनने भी नहीं आए। इस पर पीके ने तर्क दिया कि प्रशासन ने हमारे लोगों को पहुंचने नहीं दिया। लेकिन उनका ये दावा फ्लॉप हो गया क्योंकि बाद में खबरें चलीं कि सड़कों पर इस तरह रोका नहीं गया था।'
संजय कुमार कहते हैं-जीत के लिए जो फैक्टर चाहिए यानी जिस पर बिहार की राजनीति टिकी हुई है, उसमें PK फिट नहीं बैठते। बीजपी इनको 'पैसा-किशोर' कहती है, इनके पास कॉरपोरेट का पैसा है और फंडिंग के जरिए ये अपने लोगों को राजनीति करवाते हैं। आरजेडी ‘पांडे' कहकर पीके पर 'सवर्ण मानसिकता' का आरोप लगाती है। तीसरी अहम बात ये है कि जो ठीक लोग इनके साथ जुड़े वो टिक नहीं पाए। जैसे देवेंद्र यादव, मोनाजिर हसन, रामबली सिंह चंद्रवंशी, आनंद मिश्रा जैसे लोग जुड़े। लेकिन ये लोग टिके नहीं।
उपचुनाव में एक भी सीट नहीं जीत पाए PK
संजय कुमार कहते हैं- ‘प्रशांत किशोर ने उप-चुनाव लड़ा और लेकिन एक भी सीट नहीं जीत पाए। पीके हर विधानसभा से कुछ संभावनाओं वाले लोगों को जोड़ते हैं। ऐसे लोग जिनकी 5-10 हजार वोट लाने की अपनी क्षमता है। लेकिन पार्टियां चलाने का एक डेमोक्रेटिक तरीका होता है, शायद वह न होने की वजह से लोग अलग हो जाते हैं। हां, यह सही है कि यात्रा के दौरान पीके के भाषणों की क्लिप सोशल मीडिया पर वायरल जाती हैं। लेकिन 130 या 140 सीटें जीतने के लिए जीतने के लिए जमीन पर पकड़ और वोट शेयर चाहिए, जो अभी दिखता नहीं है।’
‘ज्वलंत मुद्दों की बात करना तो अच्छी बात है। लोग इसे सुनते हैं। वो अलग बात है। लेकिन राजनीति के लिए जो सोशल कॉम्बिनेशन चाहिए वह इनके पास नहीं है। काबिल लोग साथ छोड़ रहे हैं। साथ ही पीके यह भी कहते हैं कि वो जयप्रकाश नारायण की तरह क्रांति में विश्वास नहीं रखते। तो आखिर इतनी बड़ी संख्या में सीटें आएंगी कैसे? केवल सरकारों की खामियां गिनाकर इतनी सीटें हासिल कर पाना लगभग नामुमकिन है।’
संजय कुमार हाल में सी वोटर सर्वे का भी जिक्र करते हैं जिसमें तेजस्वी यादव मुख्यमंत्री के रूप में पहली पसंद बनकर सामने आए हैं वहीं नीतीश कुमार पर महिलाओं का भरोसा कायम बताया गया है। कुमार का कहना है कि सर्वे का सैंपल साइज कितना भी छोटा रहा हो, अगर प्रशांत किशोर रेस में होते तो जरूर अपनी जगह बनाते।
पहली बार अपने चेहरे पर वोट मांग रहे प्रशांत
प्रशांत किशोर अपने साक्षात्कारों में यह भी कहते रहे हैं उन्हें चुनाव लड़ाना आता है। वह अपनी तमाम सफलताएं भी बताते रहे हैं। पश्चिम बंगाल में बीजेपी को 100 सीटों से कम पर रोक देने के अपने दावे का जिक्र भी वो करते रहे हैं। लेकिन अन्य राज्यों के चुनाव और बिहार चुनाव में अंतर यह है कि वह खुद ही इस बार मुख्य चेहरा हैं। उऩ्हें जनता से वोट अपने ही चेहरे पर मांगना है।
हालांकि प्रशांत अपने दावों को लेकर बेहद आश्वस्त हैं और वास्तविक नतीजे तो इलेक्शन रिजल्ट आने पर ही सामने आएंगे। लेकिन वह जितनी सीटों का दावा कर रहे हैं, वह अतिश्योक्ति लगता है जो अपने कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाने के लिए है।
बिहार में एक तरफ एनडीए है तो दूसरी तरफ इंडिया गठबंधन। दोनों के पास अपने समर्पित वोटबैंक हैं। इसके बावजूद दोनों ही गठबंधन में किसी भी पार्टी ने अभी तक वह आंकड़ा नहीं हासिल किया है जिसे प्रशांत अपनी हार बता रहे हैं। जबकि दोनों गठबंधनों में नीतीश कुमार और लालू यादव जैसे नेता हैं जो अलग-अलग वक्त में अपनी लोकप्रियता के चरम पर रहे हैं। यह देखना होगा दिलचस्प होगा कि प्रशांत अपने दावों को कितना पूरा कर पाते हैं। क्योंकि बिहार में उनका चुनावी प्रदर्शन ही जनसुराज पार्टी भविष्य तय करेगा।