बिहार की राजनीति में इस वक्त रामचंद्र प्रसाद सिंह (RCP) के प्रशांत किशोर से हाथ मिलाने की खबर इस वक्त सबसे ज्यादा चर्चा में है। RCP सिंह के लंबे प्रशासनिक और फिर संगठनकर्ता के रूप में राजनीतिक अनुभव की चर्चा की जा रही है। माना जा रहा है कि RCP का PK के साथ आना नीतीश कुमार के लिए बड़ा झटका हो सकता है। नीतीश कुमार के सजातीय होने की वजह ये यह भी माना जा रहा है कि RCP कुर्मी वोट बैंक में सेंध लगा सकते हैं। लेकिन क्या RCP सिंह का PK के साथ आना वाकई नीतीश कुमार के लिए कोई बड़े झटके जैसा है? उनके कुशल संगठनकर्ता होने की बातें जेडीयू के चुनावी नतीजों में भी दिखाई देती हैं?
नीतीश की छाया में ही पनपे RCP
RCP सिंह मुख्य रूप से यूपी कैडर के नौकरशाह रहे हैं। नीतीश कुमार के भरोसे की वजह से ही RCP को बिहार में अहम प्रशासनिक जिम्मेदारियां मिलीं। 2010 में जब स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर RCP ने जेडीयू ज्वाइन की तो नीतीश ने उन्हें दो बार राज्यसभा सांसद भी बनाया है। नीतीश का भरोसा टूटते ही RCP का बिहार की राजनीति में वैसा कद नहीं रहा। भविष्य में नीतीश कुमार को होने वाले 'अनुमानित नुकसान' को छोड़ दें तो ये नीतीश ही हैं, जिन्होंने पहले RCP से खुद को अलग किया। 2021 में जब बीजेपी के साथ बातचीत कर RCP सिंह केंद्र में मंत्री बन गए तो फिर नीतीश ने उन्हें तीसरी बार राज्यसभा भेजा ही नहीं। नीतीश के इस निर्णय के साथ ही स्पष्ट हो गया था कि वो अब RCP सिंह को अपने कैंप में नहीं चाहते।
नीतीश के हटते ही बीजेपी ने भी नहीं दिया भाव
RCP भले ही केंद्र सरकार में मंत्री रहे हों लेकिन जब नीतीश कुमार (Nitish Kumar) ने उनसे किनारा किया तो बीजेपी ने भी हाथ पीछे खींच लिए। राजनीतिक गुणा-गणित की महारथी और इस वक्त देश की नंबर एक पार्टी बीजेपी ने भी RCP को अपने साथ लेने के लिए नीतीश की नाराजगी मोल लेना ठीक नहीं समझा। RCP की जेडीयू से विदाई भी सामान्य नहीं थी। जेडीयू ने उनसे 2013 से 2022 के बीच उनकी पत्नी और बेटियों के नाम पर 58 भूखंड खरीदने के आरोपों पर स्पष्टीकरण मांगा था, जिन्हें उन्होंने चुनावी हलफनामे में कथित रूप से घोषित नहीं किया था। भ्रष्टाचार के आरोपों और शो-कॉज नोटिस जारी होने के कुछ घंटों बाद RCP ने इस्तीफा दे दिया था। ये 6 अगस्त 2022 की घटना है। इसके बाद से अब तक RCP बिहार में राजनीतिक जमीन तलाश रहे हैं।
RSS की तरह संगठन खड़ा करने की बात सच या हवाबाजी
RCP सिंह को यह श्रेय दिया जाता है कि उन्होंने जेडीयू के संगठन को RSS की तर्ज पर खड़ा करने में अहम भूमिका निभाई। लेकिन यह बात चुनावी नतीजों में दिखाई नहीं देती। उदारहण के रूप में देखें तो RCP ने जेडीयू 2010 में ज्वाइन की थी। उसी साल विधानसभा चुनाव भी हुए थे। 2005 से अब तक के आंकड़े देखें तो जेडीयू को सबसे ज्यादा सीटें 2010 के विधानसभा चुनाव में मिली थीं। 2010 में इकलौती बार जेडीयू 243 सदस्यीय विधानसभा में 115 सीटें लेकर आई थी।
अब RCP ने उसी साल पार्टी ज्वाइन की थी तो महज कुछ महीनों में ही उन्होंने RSS की तरह संगठन तो नहीं खड़ा किया होगा। RCP के जेडीयू ज्वाइन करने के बाद हुए दो विधानसभा चुनाव में पार्टी का प्रदर्शन लगातार खराब हुआ। 2015 में जेडीयू को 71 सीटें मिलीं, वहीं 2020 में तो यह आंकड़ा 43 पर आकर सिमट गया। इस बीच 2014 के लोकसभा चुनाव नतीजे भी देखने लायक हैं। उस चुनाव में जेडीयू ने महज 2 सीटें जीती थीं। 2019 के लोकसभा चुनाव में जेडीयू ने 16 सीटों पर जीत हासिल की थी। संयुक्त एनडीए को 40 में से 39 सीटों पर जीत मिली। यह RCP की सांगठनिक क्षमता से ज्यादा बीजेपी-जेडीयू के नैसर्गिक गठबंधन का नतीजा था।
बीते 14 वर्षों से राजनीति कर रहे RCP ने एक भी जमीनी चुनाव नहीं लड़ा है, यानी लोकसभा या विधानसभा का। RCP सिंह अब प्रशांत किशोर के साथ जिस पहली परीक्षा में बैठने जा रहे हैं वह जमीनी चुनाव ही है। ऐसा चुनाव यानी जिसमें जनता अपना नेता चुनकर सदन में भेजती है। और इस लड़ाई का अब तक कोई अनुभव RCP के पास नहीं है। वह दो बार राज्यसभा सदस्य रहे हैं। यह चुनाव तो मुख्य रूप से विधायकों की संख्या पर निर्भर करता है। दोनों ही बार उन्हें नीतीश ने उन्हें राज्यसभा भेजा और जब तीसरी बार हाथ खींचा तबसे वो संसद नहीं पहुंच पाए हैं।
क्या कुर्मी जाति में सेंध लगा पाएंगे RCP?
RCP सिंह को लेकर एक बात और कही जा रही है कि वह कुर्मी जाति से आते हैं और नालंदा में सक्रिय रहे हैं। ऐसे में वो नीतीश कुमार को नुकसान पहुंचा सकते हैं। संभव है ऐसा हो भी। लेकिन बिहार जैसे जातीय राजनीति आधारित राज्य में RCP सिंह के लिए यह करना किसी बड़ी उपलब्धि से कम नहीं होगा। इसका कारण यह है कि केवल तीन फीसदी वोटबैंक वाला कुर्मी समुदाय अब तक लगातार अपने नेता नीतीश के पीछे खड़ा रहा है। और बिहार चुनाव (Bihar Election) में अगर नीतीश 'अंतिम चुनाव' जैसा कोई दांव खेलते हैं तो बहुत कम उम्मीद है कि कुर्मी बिरादरी का वोट किसी और तरफ झुके।
बिहार मे आधारभूत वोटबैंक का एक उदाहरण RJD में भी दिखता है। पिछले तीन दशक के दौरान कई यादव नेता ऐसे उभरे जिन्हें लालू यादव के विकल्प या भविष्य के नेता रूप में प्रचारित-प्रसारित किया, लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। पप्पू यादव भी ऐसे ही नेताओं में शामिल हैं, जिन्हें लालू से इतर यादवों के नेता के रूप में स्थापित करने की कोशिश हुई। इसके अलावा बीजेपी की तरफ से भी यादव वोटबैंक को साधने के लिए नंदकिशोर यादव और नित्यानंद राय जैसे नेताओं पर दांव लगाया गया। इन प्रयासों का बावजूद राज्य में यादवों का ज्यादातर वोटबैंक लालू और उनके परिवार के साथ ही रहा। अगर कुर्मी वोटबैंक की बात करें तो नीतीश कुमार के साथ अब तक वह भी पूरी मजबूती के साथ खड़ा रहा है। भविष्य के चुनावों में इसमें कोई बड़ा परिवर्तन हो तो वह देखने वाली बात होगी।
नैसर्गिक गठबंधन की बजाए 'दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है' वाली पॉलिटिक्स
PK के साथ RCP के गठबंधन में एक और समस्या यह भी है कि यह नैसर्गिक गठबंधन नहीं है। हमने देखा है कि चुनावी गठबंधनों का भविष्य ज्यादा टिकाऊ नहीं होता। PK और RCP दोनों ही एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी रहे हैं। कहा जाता है कि पीके के जेडीयू छोड़ने की अहम वजहों में RCP भी थे। तो यह गठबंधन, चुनावी दोस्ती कम और नीतीश कुमार को सत्ता से हटाने की 'तमन्ना' ज्यादा महसूस होता है। इसके अलावा बार-बार पार्टी बदलना आम भारतीय जनता के बीच अच्छे संदेश के रूप में नहीं देखा जाता। 'आया राम-गया राम' जैसी कहावतें देश में दल-बदल को लेकर ही मशहूर हुईं। आरसीपी सिंह पिछले तीन साल के भीतर चौथी पार्टी में हैं। देखना होगा आरसीपी जन सुराज के साथ कितने लंबे समय तक टिकते हैं। अगर PK के साथ मिलकर वह बिहार में कोई तीसरा मजबूत फ्रंट बनाने में कामयाब होते हैं, तो यह उनकी अब तक की राजनीति में सबसे बड़ी उपलब्धि होगी।