होलिका दहन केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि परंपराओं और आस्था का संगम है। छतरपुर जिले समेत कई स्थानों पर इस दिन गोबर के उपले (कंडे) जलाने की प्रथा सदियों से चली आ रही है। मान्यता है कि उपलों की पवित्र अग्नि नकारात्मक ऊर्जाओं को समाप्त कर परिवार में सुख-समृद्धि और शांति लाती है। होलिका दहन से कुछ दिन पहले ही गोबर के छोटे-छोटे बल्ले (गुलरियां) बनाए जाते हैं, जिन्हें धूप में सुखाकर रस्सी में पिरोया जाता है। इनकी सात मालाएं बनती हैं, जिनमें से एक बड़ी होलिका में समर्पित कर दी जाती है, जबकि बाकी घर की रक्षा के लिए रखी जाती हैं।
सदियों पुरानी यह परंपरा सिर्फ धार्मिक दृष्टि से ही नहीं, बल्कि पर्यावरण संरक्षण के लिहाज से भी महत्वपूर्ण है। गोबर के उपले जलाने से वायुमंडल की शुद्धि होती है और ये प्राकृतिक ऊर्जा का स्रोत भी माना जाता है।
होलिका दहन के बाद बची हुई राख को बेहद पवित्र माना जाता है। लोकल 18 से बातचीत में 82 वर्षीय प्रेमा बाई ने बताया कि बड़ी होलिका की राख को घर में सुरक्षित रखने से भूत-प्रेत जैसी नकारात्मक शक्तियों से बचाव होता है। साथ ही, इस राख को बीमार व्यक्ति के माथे पर लगाने से स्वास्थ्य लाभ मिलने की भी मान्यता है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, ये राख घर में सुख-समृद्धि बनाए रखने में सहायक होती है। कई लोग इसे पूजा स्थल या अन्य पवित्र स्थान पर रखते हैं, ताकि सकारात्मक ऊर्जा बनी रहे और बुरी शक्तियां दूर रहें।
पर्यावरण संरक्षण का संदेश
गोबर के उपलों का उपयोग केवल धार्मिक दृष्टि से ही नहीं, बल्कि पर्यावरण संरक्षण के लिए भी फायदेमंद है। जब उपले जलते हैं, तो उससे निकलने वाला धुआं वातावरण में मौजूद हानिकारक कीटाणुओं को नष्ट कर देता है, जिससे स्वच्छता बनी रहती है। इसके अलावा, ये पारंपरिक ईंधन का एक प्राकृतिक और टिकाऊ विकल्प भी है, जो प्रदूषण को कम करने में सहायक है।