चंदन श्रीवास्तव
चंदन श्रीवास्तव
बजट के मामले में इतिहास अपने को अजब तरीके से दोहराता है। सामने का मंजर चाहे कितना भी क्यों ना बदल जाये बजट में कुछ बातें ज्यों की त्यों रहती हैं। मिसाल के लिए, बजट में शिक्षा के मद में होने वाले आबंटन को ही लें।
बजट पेश होने के ऐन पहले के इस वक्त दो बातें एकदम तयशुदा तौर पर कही जा सकती हैं--- एक तो यह कि शिक्षा के मद में रकम का आबंटन उतना नहीं होने वाला जितना कि हमेशा से अपेक्षित रहा है और दूसरी यह कि शिक्षा के मद में आबंटित राशि चाहे जितनी भी हो लेकिन खर्च की जाने वाली राशि उससे कम ही रहने वाली है।
पिछला हिसाब
पहेली सी लगती इस बात को सुलझाना चाहें तो पिछली साल पेश हुए बजट की बातों को याद करें। साल 2021-22 के बजट में शिक्षा मंत्रालय को 93,224 करोड़ रुपये की रकम आबंटित की गई। अखबारों में आया कि जिन दस मंत्रालयों को सबसे ज्यादा राशि आबंटित हुई है, शिक्षा मंत्रालय उनमें एक (आठवें स्थान पर) है। सुनने में बड़ा अच्छा लगता है लेकिन जरा इस तरह से सोचें कि साल 2021-22 के लिए अनुमानित केंद्र सरकार के कुल खर्चे में से कितनी राशि शिक्षा मंत्रालय को अपने हिस्से में खर्च करने को मिली? शिक्षा मंत्रालय के हिस्से आयी रकम साल 2021-22 के लिए अनुमानित केंद्र सरकार के कुल खर्चे का 3 प्रतिशत से भी कम थी। शिक्षा मंत्रालय के हिस्से कुल केंद्रीय खर्चे का बस 2.67 प्रतिशत हिस्सा आया।
साल 2019-20 के आर्थिक सर्वेक्षण में कहा गया था कि बीते पांच सालों (2014-15 से 2018-19) के दरम्यान केंद्र और राज्य सरकार दोनों का शिक्षा पर खर्चा देश की कुल जीडीपी का बस 3 प्रतिशत रहा है। अब यहां चाहें तो याद करें कि साल 1968 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति में कहा ये गया था कि देश की जीडीपी का 6 प्रतिशत हिस्सा शिक्षा के मद में खर्च किया जाये और ये बात पुरानी चाहे जितनी लगे लेकिन उसकी अहमियत बरकरार है। साल 2020 की नई शिक्षा नीति में भी यह बात दोहरायी गई है कि शिक्षा पर खर्चा जीडीपी का कम से कम 6 प्रतिशत तो होना ही चाहिए।
जरुरत जीडीपी के छह प्रतिशत की है लेकिन शिक्षा के मद में खर्च के लिए रकम मिलती है इसके आधी और यह जो जरुरत के आगे आधी पड़ने वाली रकम मिलती है उसका भी सारा हिस्सा हमारी सरकारें शिक्षा पर खर्च नहीं कर पातीं। मतलब, खर्च के लिए तय की गई रकम का कुछ ना कुछ हिस्सा बिना उपयोग के फिर से खजाने में लौट आता है। इसका मतलब हुआ, जिस पैसे को मिड डे मील स्कीम के तहत बच्चों की थाली में जाना था, जो पैसा बच्चों की स्कूली किताब और पोशाक पर खर्च होना था, जो रकम गरीब और वंचित तबके के मेधावी छात्रों की दी जाने वाली छात्रवृत्ति पर लगनी थी—उसका कुछ हिस्सा यों ही बचा रह गया।
साल दर साल ना खर्च होने वाली इस रकम की कहानी को अगर बीते एक दशक के आईने में झांककर पढ़ने की कोशिश करें तो नजर आयेगा कि सिर्फ दो साल ऐसे रहे जब आबंटित कुल राशि का शत-प्रतिशत या उससे ज्यादा हिस्सा शिक्षा के मद पर खर्च हुआ है (साल 2010-11 में आबंटित राशि 33,214 करोड़ रुपये थी और खर्च हुए 36,433 करोड़ रुपये। इसी तरह साल 2017-18 में आबंटित राशि 46,356 करोड़ रुपये की थी, खर्च हुई 46,600 करोड़ रुपये की राशि)।
दो सालों को छोड़ दें तो 2010-11 से 2020-21 के बीच कोई साल ऐसा ना रहा जब शिक्षा के मद में बजट में आबंटित कुल राशि हमारी सरकारें खर्च कर पायी हों। साल 2013-14 और 2014-15 तो ऐसे रहे जब आबंटित कुल राशि का 90 प्रतिशत हिस्सा भी खर्च नहीं हो पाया( 2013-14 में 89 प्रतिशत और 2014-15 में 83 प्रतिशत राशि खर्च हुई थी)।
नया सवाल
शायद आप इस बार के बजट को इस पुराने सवाल से परखें कि जीडीपी के 3 प्रतिशत से ज्यादा का आबंटन शिक्षा के मद में होता है या नहीं और आबंटित राशि का शत-प्रतिशत हमारी सरकारें खर्च कर पाती हैं या नहीं। आपका ऐसा सोचना पिछले साल के अनुभव को देखते हुए जायज ही है।
पिछले बजट (2021-22) में शिक्षा के मद में आबंटित रकम उससे तुरंत पहले यानी साल 2020-21 में आबंटित की गई कुल रकम से कम थी। वित्त वर्ष 2020-21 के मूल बजटीय आवंटन में शिक्षा मंत्रालय को 99,311.52 करोड़ रुपये की राशि आबंटित की गई थी यानी एक साल के भीतर शिक्षा के मद में बजट-आबंटन में 6 हजार करोड़ रुपये की कमी (99 हजार करोड़ से घटाकर 93 हजार करोड़) हुई।
सबसे ज्यादा कटौती स्कूली शिक्षा के बजट में हुई। स्कूली शिक्षा के मद में 2021-22 में 54,873 करोड़ रुपये आबंटित किये गये जबकि इसके पहले के बजट (2020-21 में इस मद में 59,845 करोड़ रुपये दिये गये थे। मतलब, स्कूली शिक्षा के बजट में कुल 4,971करोड़ रुपये की कमी हुई। उच्च शिक्षा के बजट में एक साल के भीतर करीब एक हजार करोड़ रुपये की कटौती की गई।उच्च शिक्षा के मद में 2021-22 में 38,350 करोड़ रुपये आबंटित किये गये जबकि इसके तुरंत पहले के बजट(2020-21) में उच्च शिक्षा के मद में 39,466 करोड़ रुपये का आबंटन हुआ था।
लेकिन बीते दो सालों के बीच शिक्षा के संदर्भ में बजटीय आबंटन का सवाल बदल चुका है। इस बदले हुए सवाल को पहचानने के लिए याद करें 2021 का अगस्त का महीना। तब भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर और प्रसिद्ध अर्थशास्त्री रघुराम राजन के एक बयान को समाचारों में तूल दिया गया था। रघुराम राजन ने कोरोनाबंदी के दौर में बंद स्कूलों को लक्ष्य करते हुए कहा था कि अगर स्कूलों को खोलने में और देरी होती है तो इसका खामियाजा देश को अगले कई दशकों तक भुगतना होगा।
रघुराम राजन का तर्क था कि कोरोनाबंदी के समय में बच्चों की पढ़ाई डेढ़ सालों से बाधित है। ऑनलाइन जो शिक्षा उन्हें मिल रही है, उसकी गुणवत्ता संदिग्ध है। ऐसे में समस्या मात्र इतनी नहीं कि बच्चों की पढ़ाई रुकी हुई है या पूरे रफ्तार से नहीं हो रही बल्कि समस्या यह है कि बच्चे अपना पहले का सीखा हुआ भी भूल रहे हैं। इसी क्रम में रघुराम राजन ने कहा था कि अगर आप स्कूल से डेढ़ साल तक बाहर रहते हैं तो इसका मतलब हुआ दोबारा स्कूल पहुंचने के वक्त आप अपनी पढ़ाई के लिहाज से पूरे तीन साल पीछे हो चुके हैं।
हो सकता है कोरोनाबंदी के बीच `स्कूल से डेढ़ साल बाहर तो पढ़ाई में तीन साल पीछे` का रघुराम राजन का यह तर्क आपको अपने गणित में संगत ना लगे लेकिन इस तर्क के पीछे छिपी असल चिन्ता को झुठलाया नहीं जा सकता। असल चिन्ता ये है कि कोविड-19 के कहर के बीच स्कूल जाने की उम्र वाले बच्चों के मामले में हमने हाल के सालों में जो तरक्की की थी, उसमें अब हम पिछड़ने लगे हैं।
पिछले साल की तरह इस बार भी बजट पेश होने से पहले स्कूल-कॉलेज बंद हैं और विकल्प के तौर पर ऑनलाइन शिक्षा के जो प्रबंध हुए हैं, वे नाकाफी पड़ रहे हैं। लोकल सर्कल्स नाम के एक कम्युनिटी एंगेजमेंट प्लेटफार्म ने 2021 के जुलाई में अपने एक सर्वेक्षण में पाया कि 80 फीसद अभिभावक बच्चों को दी जा रही ऑनलाइन शिक्षा से नाखुश हैं। इन अभिभावकों को कहना था कि ऑनलाइन शिक्षण बच्चों को पाठ सिखा पाने में सफल नहीं है।
बात सिर्फ यही नहीं कि ऑनलाइन शिक्षा बच्चों को पाठ ठीक-ठीक सिखा पाने में नाकाम है, बच्चों की एक बड़ी तादाद कोरोनाबंदी से पैदा परेशानियों के बीच या तो स्कूल छोड़ रही है या फिर अपने स्कूल बदलने पर मजबूर है। लॉकडाऊन को चरणबद्ध ढंग से हटाने के बाद स्कूल खुले तो एक नया सीन सामने आया।
एनुअल स्टेटस् ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट((ASER) 2021 के मुताबिक कोरोनाबंदी के दौर में देश के ग्रामीण इलाकों में सरकारी स्कूलों में बच्चों का नामांकन 65 से 70 प्रतिशत बढ़ गया जबकि प्रायवेट स्कूलों में बच्चों के नामांकन में 24 से 28 प्रतिशत की कमी आयी। ASER रिपोर्ट के मुताबिक सर्वेक्षण में शामिल 62 प्रतिशत उत्तरदाताओं(जिसमें सरकारी स्कूलों के शिक्षक और प्रिंसपल शामिल हैं) ने कहा कि कोरोनाबंदी के दौर में पैदा आर्थिक-संकट के कारण अभिभावक अपने बच्चों का नाम प्रायवेट स्कूल से हटाकर सरकारी स्कूल में लिखाने को मजबूर हुए।
यह मानकर संतोष करना निरा भोलापन है कि चलो, प्रायवेट स्कूल ना सही, सरकारी स्कूल ही सही बच्चे कहीं ना कहीं तो पढ़ाई कर ही रहे हैं। कई सर्वेक्षणों में यह बात सामने आयी है कि ज्यादातर सरकारी स्कूल बच्चों के लिए ऑनलाइन पढ़ाई की व्यवस्था कर पाने में सक्षम नहीं है। दूसरे, यह बात भी याद रखने की है कि स्कूल में नाम दर्ज होने का मतलब यह नहीं होता कि बच्चे ऑफलाइन या ऑनलाइन स्कूल में उपस्थित हो रहे हैं और अपना निर्धारित सबक सही तरीके से सीख रहे हैं।
ऐसे में सबसे ज्यादा दुर्दशा में वंचित तबके के परिवार हैं जिनके बच्चे स्कूली पढ़ाई छोड़ने पर बाध्य हो रहे हैं। मिसाल के लिए मध्यप्रदेश के बाल-अधिकार संरक्षण आयोग (MPCPCR) के मुताबिक सूबे के जनजातीय बहुल चार जिलों में पहली क्लास से 12वीं क्लास तक के कुल 40 हजार बच्चों ने कोविड-19 की दूसरी लहर के दौरान अपनी स्कूली पढ़ाई छोड़ दी। इनमें साढ़े दस हजार बच्चे ऐसे थे जो अपने माता-माता के साथ जीविका की खोज में कहीं और पलायन कर गये।
थोड़े में कहें तो कोविड की एक के बाद एक आ रही लहर ने स्कूली और विश्वविद्यालयी शिक्षा का रुप बुनियादी तौर पर बदल दिया है। कुछ छात्र पढ़ाई छोड़ रहे हैं, कुछ छात्र आर्थिक संकट के कारण विद्यालय बदल रहे हैं तो कुछ छात्र ऑनलाइन पढ़ाई के लिए जरुरी संसाधनों के अभाव में पढ़ाई में पिछड़ रहे हैं।
इस बदले हुए परिदृश्य के बरक्स बेशक वित्तमंत्री यह गिनवा सकती हैं कि साल 2020-21 केंद्र सरकार ने 818 करोड़ रुपये राज्यों को ऑनलाइन पढ़ाई के बढ़वार के लिए और 268 करोड़ रुपये शिक्षकों को ऑनलाइन पढ़ाई के लिए जरुरी प्रशिक्षण देने के उद्देश्य से दिये। आर्थिक सर्वेक्षण (2020-21) का यह तथ्य गिनवाया जा सकता है कि ग्रामीण इलाकों में सरकारी और प्रायवेट स्कूलों में पढ़ने वाले स्मार्टफोनधारी छात्रों की संख्या 2018 के 36.5 प्रतिशत से बढ़कर 2020 में 61.8 प्रतिशत हो गई।
तर्क दिया जा सकता है कि ऑफलाइन पढ़ाई ठप है तो क्या ऑनलाइन पढ़ाई के लिए PM eVidya जैसी पहल कर दी गई है जो DIKSHA नाम के वेबपोर्टल से e-content मुहैया कराती है और Swayam Prabha चैनल के सहारे शिक्षण के कार्यक्रम टेलिकास्ट किये जा रहे हैं। साथ ही, Swayam MOOCs के नाम से ऑनलाइन कोर्स चलाये जा रहे हैं।
लेकिन कोरोनाबंदी के बदले हुए परिदृश्य में ये पहल नाकाफी हैं, यह बात कई सर्वेक्षणों में साबित हुई है और वित्तमंत्री के लिए इस साल के बजट में चुनौती शिक्षा के मोर्चे पर कुछ ऐसे उपाय करने की है कि शिक्षा के मोर्चे पर जो उपलब्धियां बीते डेढ़ दशक में हासिल की गई हैं, हम उनसे हाथ ना धो बैठें।
(लेखक सामाजिक-सांस्कृतिक स्कॉलर हैं)
हिंदी में शेयर बाजार, स्टॉक मार्केट न्यूज़, बिजनेस न्यूज़, पर्सनल फाइनेंस और अन्य देश से जुड़ी खबरें सबसे पहले मनीकंट्रोल हिंदी पर पढ़ें. डेली मार्केट अपडेट के लिए Moneycontrol App डाउनलोड करें।