वित्तमंत्री जी! Covid-19 ने बच्चों को शिक्षा के मामले में एक दशक पीछे धकेल दिया है, क्या अब जरूरी मदद मिलेगी?

Budget 2023: वर्तमान सरकार और वित्तमंत्री के सामने भी यही लक्ष्य है लेकिन सवाल यह है कि क्या बजट में शिक्षा के मद में आबंटित होने वाली राशि इतनी बढ़ेगी कि कहा जा सकेः देश कोठारी आयोग और नई शिक्षा नीति के सुझावों पर अमल करने की दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहा है

अपडेटेड Jan 29, 2023 पर 10:11 AM
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Budget 2023: देश के 616 जिलों के चुने हुए 19 हजार गांवों के 70 हजार बच्चों के घर जाकर किये हुए सर्वेक्षण के आधार पर बनी 2022 की असर यानी एनुअल स्टेटस् ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट के मुताबिक राष्ट्रीय फलक पर देखें तो किसी लिखित पाठ को पढ़ने की छात्रों की योग्यता-क्षमता में भी कमी आयी है

Budget 2023: क्या आपने कभी घर के छोटे बच्चों को गिनती-पहाड़ा सिखाने का कठिन काम किया है? आपने गौर किया होगा गिनती में आने वाली गोल-मटोल संख्याओं को बच्चे झट से याद कर लेते हैं। वे तीन-पांच और तेरह-सत्रह को भले भूल जायें लेकिन उन्हें यह जरूर याद रह जाता है कि दस के बाद बीस आता है और ऐसे ही तीस के बाद चालीस। पिछले साल शिक्षा के बजट में वित्तमंत्री ने ऐसी ही सोच से काम लिया। वे संसद को स्कूल, बजट को मास्टर जी की किताब और देशवासियों को उत्सुक छात्र मानकर कुछ आंकड़े याद करवाना चाहती थीं। सो याद रह गया है कि बीते बरस शिक्षा का बजट मोटोमोटी एक लाख करोड़ (1.04 लाख करोड़) रूपये का था। साल 2021 के बजट की तुलना में कुल 11 हजार करोड़ रूपये बढ़ा दिये गये थे और समाचारों में सुर्खियां बनीं कि शिक्षा के बजट में कुल 11 प्रतिशत का इजाफा हुआ है।

एक लाख और सवा लाख, एक हजार और ग्यारह हजार जैसी संख्याओं का भारतीय संस्कृति में बड़ा मान-महत्व है, इन्हें शुभ माना जाता है और ये झट से जुबान पर चढ़ जाती हैं। सो कह सकते हैं कि भारतीय संस्कृति का गर्व-गान करने वाली वाली सरकार के वित्तमंत्री ने एक और ग्यारह की महिमा को सोचकर ही शिक्षा के मद में बजट में ग्यारह हजार करोड़ का इजाफा करके एक लाख करोड़ रूपये की राशि आबंटित की होगी। सोच रही होगी कि ये संख्या लोगों के सांस्कृतिक सोच से मेल खाये और वे मान बैठें कि 2022 में शिक्षा के क्षेत्र में सब शुभ-लाभ होने वाला है। लेकिन अफसोस कि ऐसा हुआ नहीं।

बजट तो बढ़ा लेकिन शिक्षा में क्या बढ़ा


भारतीय संस्कृति में एक कहावत चलती है ना कि क्षणमात्र में विधाता क्या कर दिखायेंगे यह विधाता के अलावा कोई नहीं जानता। कुछ ऐसा ही हुआ पिछले साल के शिक्षा के बजट के साथ। बढ़े हुए बजट का कितना हिस्सा किस मद में खर्च हुआ है यह तो वित्तवर्ष की आखिरी तिमाही के खर्चे का पूरा हिसाब सार्वजनिक हो जाने के बाद ही पता चले पायेगा लेकिन नये बजट के पेश होने के ऐन पहले एक चीज बड़ी साफ दिख रही है कि जहांतक गुणवत्ता का सवाल है, देश में स्कूली शिक्षा 10 साल पीछे खिसकर साल 2012 की हालत में जा चुकी है।आइए, गुणवत्ता के मामले में स्कूली शिक्षा के एक दशक पीछे खिसकने की कहानी को ASER यानी एनुअल स्टेटस् ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट के आईने में पढ़ने की कोशिश करें।

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बड़े पैमाने के सर्वेक्षण पर आधारित ASER रिपोर्ट में मुख्य रूप से यह जानने की कोशिश की जाती है कि क्या देश के ग्रामीण इलाकों में बच्चों (3 से 16 साल के) का दाखिला किसी सरकारी या प्रायवेट स्कूल में है या नहीं और अगर दाखिला है तो क्या सचमुच स्कूली शिक्षा से उनके भीतर लिखने-पढ़ने और गणित करने की योग्यता-क्षमता का विकास हो रहा है ? इस रिपोर्ट के प्रकाशन की शुरूआत 2005 से हुई और रिपोर्ट के सहारे 2014 तक हर साल की कहानी जानी जा सकती है कि स्कूली शिक्षा के मोर्चे पर बच्चों की पढ़ने-लिखने और गणित करने की योग्यता-क्षमता में क्या कमी-बेशी हो रही है।

साल 2014 के बाद से एक साल के अन्तराल से ASER रिपोर्ट 2018 तक निकलती रही। कोविड-काल में इस रिपोर्ट के लिए घर-घर जाकर होने वाले सर्वेक्षण पर विराम लगा सो कोविड-काल के सालों की स्कूली शिक्षा की अखिल भारतीय तस्वीर इस रिपोर्ट के सहारे नहीं जान सकते। कोविड-काल के बाद 2022 में एक बार फिर से अखिल भारतीय सर्वेक्षण के आधार पर यह रिपोर्ट आयी है और इस नाते तुलना करने के लिहाज से महत्वपूर्ण है।

देश के 616 जिलों के चुने हुए 19 हजार गांवों के 70 हजार बच्चों के घर जाकर किये हुए सर्वेक्षण के आधार पर बनी 2022 की असर यानी एनुअल स्टेटस् ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट के मुताबिक राष्ट्रीय फलक पर देखें तो किसी लिखित पाठ को पढ़ने की छात्रों की योग्यता-क्षमता में भी कमी आयी है और हम वहीं पहुंच गये हैं जहां साल 2012 से पहले थे।

मिसाल के लिए: सरकारी या निजी किसी भी किस्म के स्कूल की तीसरी क्लास में पढ़ने वाले ऐसे विद्यार्थी जो स्टैन्डर्ड 2 के लिए निर्धारित किताब पढ़ सकते हैं, साल 2018 में 27.3 प्रतिशत थे जबकि 2022 में ऐसे विद्यार्थियों की संख्या घटकर 20.5 प्रतिशत रह गई है। इसी तरह पांचवीं क्लास में पढ़ रहे ऐसे विद्यार्थी जो कम से तीसरी क्लास के लिए निर्धारित किताब पढ़-समझ सकते हैं साल 2018 में 50.5 प्रतिशत थे लेकिन 2022 में ऐसे विद्यार्थियों की संख्या घटकर 42.8 प्रतिशत रह गई है।

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जहां तक गणित करने की योग्यता-क्षमता का सवाल है, रिपोर्ट के मुताबिक साल 2018 में तीसरी क्लास के कुल 28.2 प्रतिशत बच्चे ऐसे थे जो छोटी संख्याओं के घटाव के सवाल हल कर लेते थे लेकिन 2022 में तीसरी क्लास के ऐसे बच्चों की संख्या घटकर 25.9 प्रतिशत हो गई है। साल 2018 में पांचवीं क्लास में पढ़ने वाले 27.9 प्रतिशत विद्यार्थी छोटी संख्याओं में भाग लगाने का सवाल हल कर लेते थे लेकिन 2022 में पांचवीं क्लास के ऐसे विद्यार्थियों की संख्या घटकर 25.6 प्रतिशत हो गई है. मिजोरम, हिमाचल प्रदेश तथा पंजाब जैसे राज्यों में तो यह गिरावट प्रतिशत पैमाने पर 10 अंकों से ज्यादा की है।

नामांकन बढ़ा और प्रायवेट ट्यूशन लेने वाले बच्चे भी

इस साल की ASER रिपोर्ट से दो महत्वपूर्ण बातें और भी उभरकर सामने आती हैं। एक तो यह कि सरकारी स्कूलों में 6 से 14 साल की उम्र के बच्चों का नामांकन बढ़ा है। रिपोर्ट के मुताबिक साल 2006 से 2014 के बीच 6-14 आयुवर्ग के बच्चों के स्कूली दाखिले में क्रमवार हल्की कमी देखी गई थी। देश के ग्रामीण इलाकों के सरकारी स्कूलों में साल 2014 में बच्चों का नामांकन 64.9 प्रतिशत था। अगले चार सालों में यही तादाद बनी रही और 2018 में बढ़कर 65.6 प्रतिशत हुई लेकिन 2022 में यह संख्या बढ़कर 72.9 प्रतिशत हो गई है और ऐसी बढ़वार, रिपोर्ट के मुताबिक, कमोबेश हर राज्य में देखने को मिली है।

दूसरी बात कि बीते दशक में देश के ग्रामीण इलाकों में पहली से पांचवीं तक की कक्षा में पढ़ने वाले ऐसे छात्रों की संख्या बढ़ी है जो प्राइवेट ट्यूशन लेते हैं। साल 2018 से 2022 के बीच ट्यूशन लेने वाले ऐसे बच्चों की संख्या और भी ज्यादा बढ़ी है। राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो साल 2018 में पहली से आठवीं तक की क्लास के 26.4 प्रतिशत छात्र प्रायवेट ट्यूशन लेते थे लेकिन 2022 में ऐसे छात्रों की संख्या बढ़कर 30.5 प्रतिशत हो गई है। उत्तरप्रदेश, बिहार और झारखंड जैसे राज्यों में ऐसे छात्रों की संख्या प्रतिशत पैमाने पर राष्ट्रीय औसत से आठ अंक ज्यादा है।

रिपोर्ट मे दर्ज इन दो रूझानों से यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं कि कोविड-काल के सालों में सरकारी स्कूलों में बच्चों का दाखिला बढ़ा क्योंकि अभिभावकों के हाथ में इतनी रकम ना बची कि वे अपने बच्चों की प्रायवेट स्कूल में पढ़ाई जारी रख सकें। कोविड-काल में ऐसे अनेक समाचार आये थे जिनमें कहा गया था कि माता-पिता अपने बच्चों का नाम प्रायवेट स्कूल से हटाकर सरकारी स्कूल में दर्ज करवा रहे हैं। दूसरा अनुमान यह लगाया जा सकता है कि ग्रामीण अथवा अर्धशहरी इलाकों के सरकारी और प्रायवेट स्कूलों में दी जा रही शिक्षा से माता-पिता खासे असंतुष्ट हैं और वे बच्चों को प्रायवेट ट्यूशन दिलाने पर कहीं ज्यादा भरोसा करते हैं।

एनुअल स्टेटस् ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट के ये निष्कर्ष बजट पेश करने के ऐन पहले के बचे-खुचे इन दिनों में वित्तमंत्री के लिए महत्वपूर्ण हैं। याद कीजिए कि पिछले साल केंद्रीय बजट लगभग 39 लाख करोड़(3,944,909 ) रूपये का था। इसमें स्कूली शिक्षा के लिए 63,449.37 करोड़ रूपये मिले थे। वित्तवर्ष 2021-22 में स्कूली शिक्षा और साक्षरता के मद में मिले 53,603 करोड़ रूपये की तुलना में यह राशि 11 प्रतिशत(लगभग) ज्यादा है। लेकिन जैसा कि `असर` रिपोर्ट से जाहिर है, यह बढ़ी हुई राशि स्कूली शिक्षा की जरूरतों को पूरा करने में नाकाफी साबित हो रही है।

शिक्षा पर खर्चे का सवाल

इस सरकार का यह आखिरी पूर्ण बजट है और जहां तक शिक्षा-क्षेत्र के लिए होने वाले आबंटन का सवाल है, देखा यह जाएगा कि आबंटित राशि नई शिक्षा नीति में गिनायी प्राथमिकताओं को पूरा करने के लिहाज से किस हद तक पर्याप्त है। नई शिक्षा नीति में कहा गया है कि गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सबको हासिल हो इसके लिए शिक्षा पर सरकारी खर्चा बढ़ना चाहिए और यह खर्चा सकल घरेलू उत्पाद(जीडीपी) का कम से कम 6 प्रतिशत होना चाहिए।

शिक्षा पर जीडीपी का 6 प्रतिशत खर्च करने की बात बरसों पहले कोठारी आयोग (गठन साल 1964) ने कही थी। तीसरी पंचवर्षीय योजना के उस वक्त में शिक्षा पर जीडीपी का केवल 2.9 प्रतिशत खर्च हो रहा था। आयोग ने कहा कि इसे बढ़ाकर 1985-86 तक कम से कम 6 प्रतिशत किया जाये। सुझाव के पीछे मुख्य मान्यता थी कि आने वाले दशकों में देश की आर्थिक वृद्धि होगी, जनसंख्या की बढ़वार पर नियंत्रण लगेगा और स्कूलों में बच्चों का नामांकन बढ़ेगा। आयोग यह मानकर चल रहा था आनेवाले समय में सालाना आर्थिक वृद्धि 5 से 7 प्रतिशत के बीच रहेगी, जनसंख्या की सालाना बढ़वार 1.5 प्रतिशत से 2.5 प्रतिशत के बीच नियंत्रित रखी जायेगी और अगले बीस सालों में शिक्षा के मद में सकल घरेलू उत्पाद का 4 से 6 प्रतिशत तक खर्च किया जा सकेगा।

आयोग की आशा के अनुरूप अब देश सचमुच ही 5 प्रतिशत से ज्यादा की औसत सालाना आर्थिक बढ़त को हासिल कर चुका है। पिछले एक दशक में कभी भी जनसंख्या वृद्धि 1.5 प्रतिशत से ज्यादा नहीं रही। स्कूलों में नामांकित बच्चों का प्रतिशत 90 प्रतिशत का आंकड़ा कब का पार कर चुका है। लेकिन शिक्षा पर जीडीपी का 6 प्रतिशत हिस्सा खर्च करने की बात किसी भी दशक में ना हुई। सरकारें(केंद्र और राज्य मिलाकर) शिक्षा के मद में हद से हद देश की जीडीपी का तीन से साढ़े तीन प्रतिशत हिस्सा ही निकाल पाती हैं। चीन(4 प्रतिशत), ब्राजील(6.2 प्रतिशत) और अर्जेन्टीना(5.5 प्रतिशत) जैसे तेज आर्थिक वृद्धि वाले मुल्क अपनी जीडीपी का चार से छह प्रतिशत हिस्सा शिक्षा पर खर्च करते हैं। जहां तक संयुक्त राज्य अमेरिका और ब्रिटेन का सवाल है, यहां भी शिक्षा पर खर्चा जीडीपी का पांच से पांच प्रतिशत है।

भारत फिलहाल युवाओं का देश है। यहां आयु-मध्यांक(मेडिएन एज) 27 साल की है। ऐसी आयु-मध्यांक के देश, जैसे दक्षिण अफ्रीका, शिक्षा पर अपनी जीडीपी का 7 प्रतिशत खर्चा कर रहे हैं। युवाओं से भरा हुआ कोई भी देश अपनी आबादी को कौशल-प्रवण और कौशल-प्रवीण बनाने की महत्वाकांक्षा से ऐसा ही करेगा। वर्तमान सरकार और वित्तमंत्री के सामने भी यही लक्ष्य है लेकिन सवाल यह है कि क्या बजट में शिक्षा के मद में आबंटित होने वाली राशि इतनी बढ़ेगी कि कहा जा सकेः देश कोठारी आयोग और नई शिक्षा नीति के सुझावों पर अमल करने की दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहा है।

(लेखक सामाजिक-सांस्कृतिक स्कॉलर हैं)

Chandan Shrivastawa

Chandan Shrivastawa

First Published: Jan 29, 2023 7:58 AM

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