भारत को वर्ल्ड ऑर्डर में एक मजबूत देश के तौर पर स्थापित करने का नरेंद्र मोदी का एजेंडा ‘मेक इन इंडिया’ से एक कदम और आगे बढ़ता दिख रहा है। दुनिया में आज की तारीख में ऐसे कम से कम 18 देश हैं, जिन्होंने भारतीय रुपया को भारत के साथ होने वाले व्यापार में लेन-देन का माध्यम स्वीकार कर लिया है। पहले ये देश भारत के साथ अमेरिकी डॉलर में आपसी व्यापार करते थे। तो साल भर में ऐसा क्या बदल गया? इस घटनाक्रम का मतलब क्या है और इसका भविष्य क्या है?
रुपये को अंतरराष्ट्रीय व्यापार के माध्यम के तौर पर इस्तेमाल करने का विचार लगभग साल भर पहले भारतीय स्टेट बैंक (SBI) की रिपोर्ट ‘इकोरैप’ के साथ शुरू हुआ था, जिसमें रुपये के ‘अंतरराष्ट्रीयकरण’ की सिफारिश की गई। रिपोर्ट में इसके पीछे दो कारण बताए गए थेः विकासशील अर्थव्यवस्थाओं से डॉलर का पलायन और रुपये का अवमूल्यन। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर घट रही कुछ अन्य घटनाओं ने भी इसकी पृष्ठभूमि तैयार की।
इनमें रूस और ईरान पर लगे अमेरिकी प्रतिबंध सबसे महत्वपूर्ण थे क्योंकि इन दोनों ही देशों के साथ भारत की एनर्जी सिक्योरिटी के तार गहराई से जुड़े हैं, लेकिन अमेरिकी प्रतिबंध की शर्तों के मुताबिक इन दोनों देशों के साथ लेन-देन में डॉलर का प्रयोग नहीं किया जा सकता। इसी तरह श्रीलंका जैसे देश, जिनके विदेशी मुद्रा भंडार लगभग खाली हैं, के साथ भारतीय लेन-देन में भी मुश्किलें आ रही थीं। इन सबके अलावा यह एक रणनीतिक फैसला भी था क्योंकि पिछले कुछ समय से भारत के विदेशी मुद्रा भंडार पर बहुत ज्यादा दबाव महसूस किया जा रहा था। वर्ष 2022 के दौरान रुपया डॉलर के मुकाबले 10% अवमूल्यन के साथ एशिया की तमाम मुद्राओं में सबसे ज्यादा कमजोर होने वाली करेंसी था।
ऐसे में 11 जुलाई 2022 को भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) ने एक सर्कुलर जारी कर वस्तुओं और सेवाओं के आयात और निर्यात में व्यापार सेटलमेंट के लिए रुपये के इस्तेमाल को अनुमति दे दी। रुपये में भारत का पहला अंतरराष्ट्रीय व्यापार जो रूस के साथ शुरू हुआ, आज की तारीख में श्रीलंका, मॉरीशस, सऊदी अरब, UAE, जर्मनी, सिंगापुर, UK सहित लगभग डेढ़ दर्जन देशों के साथ फैल चुका है। सिर्फ रूस के साथ भारतीय व्यापार का हिसाब किया जाए तो रुपये में सेटलमेंट शुरू होने के बाद से भारत ने अब तक 30 अरब डॉलर से ज्यादा बचा लिया है। फिर भी, रुपये में अंतरराष्ट्रीय व्यापार सुनने में जितना दमदार लगता है, उतना ही जटिल भी है।
दरअसल रुपये में किसी भी दूसरे देश के साथ व्यापार करने के लिए उस देश का कोई बैंक अपने किसी भारतीय बैंक में एक ‘Vostro account’ खोलता है। कोई भारतीय आयातक जब उस दूसरे देश से माल खरीदता है तो रुपये में उसकी कीमत वोस्त्रो खाते में जमा कर देता है और इसी तरह निर्यातक जब माल बेचता है, तो उसे उसी खाते में रुपये में रकम मिल जाती है। यदि 100 रुपये का आयात हुआ और 70 रुपये का निर्यात हुआ, तो वोस्त्रो खाते (Vostro account) में 30 रुपये बच जाएंगे। बचे हुए रुपये का उपयोग सरकारी प्रतिभूतियां खरीदने, परियोजनाओं और निवेश के लिए भुगतान करने और आयात-निर्यात के लिए अग्रिम भुगतान के मैनेजमेंट में किया जाएगा।
सरकार की इस पहल के कई फायदे होने की उम्मीद की जा रही है। इससे जहां भारतीय रुपये को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता मिलेगी, वहीं एशियाई विकास बैंक (ADB) जैसे बहुपक्षीय वित्तीय संस्थाओं से लिए गए कर्ज को रूपये में ही लौटाए जाने का रास्ता भी खुल सकता है। इससे डॉलर के मुकाबले दोनों देशों की मुद्राओं में होने वाले उतार-चढ़ाव से पैदा होने वाला जोखिम कम होगा और साथ ही भुगतान की प्रक्रिया भी तेज होगी। रुस के साथ डॉलर भुगतान में होने वाली देरी के कारण भारत का द्विपक्षीय व्यापार पिछले कुछ महीनों में कमी दर्ज कर रहा था। ऐसी स्थितियां रुपये में होने वाले व्यापार से दूर होंगी।
लेकिन रुपये के अंतरराष्ट्रीयकरण का रास्ता वन-वे नहीं है। राष्ट्रीय गौरव और आर्थिक मंचों पर दमदार उपस्थिति के फायदे के साथ रुपये का अंतरराष्ट्रीयकरण ऐसे कई जोखिम और चुनौतियां भी लेकर आएगा, जो अब तक भारतीय अर्थतंत्र और नीति-निर्माताओं के लिए अज्ञात हैं। RBI की रिपोर्ट में भी इसका संकेत देते हुए कहा गया है कि रुपये का अंतरराष्ट्रीयकरण होने के बाद पूंजी के प्रवाह (मनी सप्लाई) और ब्याज दरों को प्रभावति करने में रिजर्व बैंक की क्षमता सीमित हो जाएगी। इतना ही नहीं, जब रुपये की मान्यता कई देशों में हो जाएगी, तो उन देशों में रहने वाले प्रवासी भारतीय बड़ी मात्रा में रुपया रखना शुरू कर देंगे और वे भारत में बड़ी संपत्तियां भी खरीद सकेंगे। ऐसे में आर्थिक अस्थिरता की संभावना बढ़ेगी।
इसके अलावा लंबी अवधि में रुपये में व्यापार एक और चुनौती पैदा करेगी। फिलहाल भारत और दूसरे पक्ष की मुद्राएं डॉलर के मुकाबले अपने विनिमय दरों के आधार पर फिक्स कर दी गई हैं और यह व्यापार हो रहा है। लेकिन जिन देशों की मुद्राएं एक खास अवधि में रुपये के मुकाबले बहुत ज्यादा गिरी हैं, वे लंबे समय तक इसी बेंचमार्क को नहीं मान सकते। तुर्की इसका एक बेहतरीन उदाहरण है, जिसकी मुद्रा लीरा 2022 के दौरान डॉलर के मुकाबले 94% कमजोर हुई है। ऐसे में भारत-तुर्की के बीच रुपया आधारित व्यापार इसी स्तर पर होता रहे, ऐसा तुर्की कतई नहीं चाहेगा।
इसी तरह बंगलादेश और UK की मुद्राएं भी रुपये के बनिस्पत डॉलर के मुकाबले ज्यादा कमजोर हुई हैं। BIS ट्राईएनुयल (वर्ष में तीन बार होने वाला) सेंट्रल बैंक सर्वे 2022 के मुताबिक दुनिया भर में विदेश मुद्रा टर्नओवर में डॉलर की हिस्सेदारी 88% है, जबकि भारतीय रुपये का हिस्सा फिलहाल 1.6% है। वर्ष 2022-23 के आर्थिक सर्वेक्षण में कहा गया, “यदि INR की हिस्सेदारी वैश्विक विदेशी मुद्रा भंडार में गैर-डॉलर, गैर-यूरो मुद्राओं के 4% के बराबर हो जाए तो INR को एक अंतरराष्ट्रीय मुद्रा के तौर पर माना जाने लगेगा, और यह वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत की स्थिति का परिचायक होगा।”
साफ है कि रुपये के अंतरराष्ट्रीयकरण की शुरुआत भले हो गई हो, लेकिन यह राह काफी लंबी और मुश्किलों भरी है। इसकी सफलता के लिए एक डायनेमिक नीतिगत वातावरण चाहिए जिसमें आवश्यकता के मुताबिक तुरंत बदलाव किए जा सकें और उचित नीतिगत हस्तक्षेप हो सके। सर्वे में सरकार ने उम्मीद जताई है कि रुपये में अंतरराष्ट्रीय व्यापार बढ़ने से एक तो भारतीय कारोबारियों के लिए विदेशी व्यापार की लागत कम होगी, वहीं दूसरी ओर रुपये में उतार-चढ़ाव भी नियंत्रित होगा। हालांकि इसके लिए सरकार और रिजर्व बैंक को मिलकर एक ऐसा नीतिगत माहौल तैयार करना होगा, जिसमें आने वाली बड़ी और अंतरराष्ट्रीय स्तर की चुनौतियों का प्रभावी समाधान किया जा सके।