एक जमाना था जब डॉक्टर लोहिया ने बिहार सरकार गिरने दिया लेकिन दल-बदलु नेताओं से समझौता नहीं किया

आज इस देश के राजनीतिक दल सरकार बनाने और कहीं की सरकार को गिरा देने के लिए न जाने क्या-क्या करते रहते हैं। पर लोहिया को तो सिर्फ किसी को MLC बना देना था, बना देते तो सरकार बच जाती

अपडेटेड Feb 21, 2022 पर 7:56 AM
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1967 में देश भर में गैरकांग्रेसी सरकारों के डॉक्टर लोहिया ही शिल्पकार थे, पर कौन कहां मंत्री बनेगा या नहीं बनेगा, इसका फैसला करने की जिम्मेवारी उन्होंने पार्टी के दूसरे नेताओं पर ही डाल दी थी

सुरेंद्र किशोर

डॉक्टर राम मनोहर लोहिया की पार्टी, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के एक बड़े नेता की जिद थी कि "मुझे विधान परिषद का सदस्य बना कर मंत्री पद पर बने रहने दिया जाए अन्यथा सरकार गिरा देंगे।" डॉक्टर लोहिया ने कहा कि चाहे सरकार गिरा दो लेकिन हम अपने ही बनाए नियम को आपके लिए नहीं तोड़ेंगे। आज इस देश के राजनीतिक दल सरकार बनाने और कहीं की सरकार को गिरा देने के लिए न जाने क्या-क्या करते रहते हैं। पर लोहिया को तो सिर्फ किसी को MLC बना देना था। बना देते तो सरकार बच जाती। पर, इस तरह बिहार की पहली मिली जुली गैर कांग्रेसी सरकार सिर्फ दस महीने में ही गिर गई। उस मिलीजुली सरकार में संसोपा सबसे बड़ी पार्टी थी। मुख्यमंत्री महामाया प्रसाद सिन्हा अपेक्षाकृत छोटे दल ‘जन क्रांति दल’से थे।

याद रहे कि महामाया प्रसाद सिंहा के नेतृत्व में गठित वह सरकार 5 मार्च 1967 को बनी और 28 जनवरी,1968 तक ही चली। गैर कांग्रेसवाद की रणनीति के रचयिता, समाजवादी नेता और स्वतंत्रता सेनानी डॉक्टर लोहिया चाहते थे कि उनकी सरकार अपने काम के जरिए "बिजली की तरह कौंधे और सूरज की तरह स्थायी हो जाए।" पर, उनकी ही पार्टी के पदलोलुप विधायकों ने उनकी इच्छा पूरी नहीं होने दी।


अगर डॉक्टर राम मनोहर लोहिया ने बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल को, जिनके नेतृत्व में बाद में मंडल आयोग बना, महामाया मंत्रिमंडल से बाहर करने की जिद नहीं की होती तो संयुक्त मोर्चा की वह सरकार कुछ दिन और चल गई होती। दरअसल उस सरकार को सबसे बड़ी परेषानी उसके अपने ही सत्तालोलुप विधायकों से हुई। कुछ लोगों की शिकायत थी कि उन्हें मंत्री पद नहीं मिला। कुछ गलतियां मंत्रिमंडल के गठन के समय ही हुई। महामाया प्रसाद सिंहा के नेतृत्व में मंत्रिमंडल का गठन हो रहा था तो बीपी मंडल को कैबिनेट मंत्री बना दिया गया। जबकि वे तब मधेपुरा से 1967 में लोक सभा के लिए चुने गए थे।

संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के सर्वोच्च नेता डॉक्टर लोहिया की नीति थी कि जो व्यक्ति जहां के लिए चुना जाए,वह वहीं की जिम्मेवारी संभाले।पर इस राय को दरकिनार करके बीपी मंडल को मंत्री बना दिया गया था। यह एक बड़ी गलती थी। डॉक्टर लोहिया से स्थानीय नेताओं ने इस संबंध में कोई दिशा-निर्देश नहीं लिया। दरअसल चुनाव के तत्काल बाद डॉक्टर लोहिया दक्षिण भारत के दौरे पर चले गए थे। उन दिनों संचार सुविधाओं का अभाव था। डॉक्टर लोहिया से संपर्क करना बिहार के संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के नेताओं के लिए संभव नहीं हो सका।

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हालांकि 1967 में देश भर में गैरकांग्रेसी सरकारों के डॉक्टर लोहिया ही शिल्पकार थे, पर कौन कहां मंत्री बनेगा या नहीं बनेगा, इसका फैसला करने की जिम्मेवारी उन्होंने पार्टी के दूसरे नेताओं पर ही डाल दी थी। हां उनके उसूलों की जानकारी उनकी पार्टी,संसोपा के हार्डकोर नेताओं और कार्यकर्ताओं को जरूर रहती थी। भूपेंद्र नारायण मंडल को, जिनके नाम पर मधे पुरा में अब विश्वविद्यालय है, डॉक्टर लोहिया के विचारों की जानकारी थी।पहले उन्हें ही कहा गया था कि वे महामाया मंत्रिमंडल के सदस्य बनें।पर उन्होंने यह कह कर मंत्री बनने से इनकार कर दिया था कि लोहिया जी इसे अच्छा नहीं मानेंगे।

जब बाद में डॉक्टर लोहिया को पता चला कि बीपी मंडल बिहार में मंत्री बन गए हैं तो वे नाराज हो गए। वे चाहते थे कि वे मंत्रिमंडल छोड़कर लोक सभा के सदस्य के रूप में अपनी जिम्मेवारी निभाएं। पर मंडल जी कब मानने वाले थे ! मंत्री बने रहने के लिए उन्हें विधान मंडल के किसी सदन का छह महीने के भीतर सदस्य बनाया जाना जरूरी था। पर डॉक्टर लोहिया की राय को देखते हुए उनकी पार्टी ने उन्हें यह संकेत दे दिया था कि आप मंत्री सिर्फ छह महीने तक ही रह सकेंगे। बीपी मंडल ने इसके बाद महामाया मंत्रिमंडल गिराकर खुद मुख्यमंत्री बनने की जुगाड़ शुरू कर दी।

इस काम में वे कम से कम कुछ महीनों के लिए सफल भी नहीं होते यदि तत्कालीन स्पीकर धनिक लाल मंडल ने सरकार को बचाने के लिए स्पीकर के पद की गरिमा को थोड़ा गिरा दिया होता। स्पीकर से कहा जा रहा था कि आप सदन की बैठक अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दीजिए। इस बीच सत्ताधारी जमात, दल बदल के कारण हुई क्षति की पूत्र्ति के लिए अतिरिक्त विधायकों का जुगाड़ कर लेगी। पर धनिक लाल मंडल ने उस सलाह को ठुकराते हुए अविश्वास प्रस्ताव पर सदन में मत विभाजन करा दिया और सरकार पराजित हो गई। इस काम के लिए अखिल भारतीय स्पीकर्स कॉन्फ्रेंस ने बाद में धनिक लाल मंडल के इस काम की सराहना की थी। मंडल भी संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर ही विधायक चुनकर आए थे। पर स्पीकर बन जाने के बाद उन्होंने निष्पक्ष भूमिका निभाई।

उधर ऐसा नहीं था कि डॉक्टर लोहिया को यह खबर नहीं थी कि बीपी मंडल क्या कर रहे थे। वे सत्ताधारी जमात से दल बदल करा रहे थे।पर लोहिया की जिद थी कि चाहे सरकार रहे या जाए, पर नियम का पालन होना चाहिए। यानी मंडल को अब मंत्री नहीं रहना है। सरकार मंडल जी ने गिरा दी।कल्पना कीजिए कि आज यदि कोई मंडल जी होते और जिनकी इतनी ताकत होती कि वे सरकार भी गिरा सकते हैं तो क्या उन्हें दो चार और विभाग नहीं मिल गए होते?

यानी, सत्ता में आने के बाद भी सिद्धांत और नीतिपरक राजनीति चलाने की कोषिष करने वालों की पहली हार 1968 की जनवरी में बिहार में हुई। हालांकि डॉक्टर लोहिया ने जब मिली जुली सरकारों की कल्पना की थी तो उनका उद्देश्य सत्ता पर से कांग्रेस के एकाधिकार को तोड़ना था।वे कहते थे कि कांग्रेस का सत्ता पर एकाधिकार हो गया है।वह मदमस्त हो गई। इसी से भ्रष्टाचार भी बढ़ रहा है। चूंकि अकेले कोई दल कांग्रेस को हरा नहीं सकता,इसलिए सबको मिलकर उसे हराना चाहिए और मिलजुलकर ऐसी अच्छी सरकार चलानी चाहिए जिससे जनता कांग्रेस को भूल जाए।इस तर्क से जनसंघ और कम्युनिस्ट सहित कई दल सहमत होकर तब मिली जुली सरकार में शामिल हुए थे।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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