टाटा परिवार का क्या है कुदरती कनेक्शन! पढ़िए कुछ ऐसे दिलचस्प किस्से जो आप नहीं जानते होंगे

ईरान से भारत आए पारसियों को आश्रय की जरूरत थी, और इसके लिए वे जगह-जगह घूमते थे। वे संजान पर आ गए, जहां का हिंदू राजा जयदेव था। जिसका नाम अपभ्रंश होकर जदी राणा हो गया। राजा ने देखा कि पारसी का कद 6 फीट ऊंचा होता है। जब वे राजा के पास गए और आश्रय की मांग की, तो राजा ने कहा कि वह सोचकर बताएंगे। उन्होंने एक प्याला पूरा दूध से भरा हाई प्रीस्ट (बड़ा पुजारी) के पास भेजा। प्रीस्ट ने समझ लिया कि राजा क्या कहना चाहते हैं। फिर पुजारी ने उसमें चीनी डाल दी। अगर दूध से भरे प्याले में आप कुछ भी डालेंगे तो वह छलक जाएगा, लेकिन चीनी डालेंगे, तो वह अदंर चला जाएगा। इससे राजा को यह समझ में आया कि जैसे चीनी दूध में घुल गई, वैसे ही वे भी यहां मिल जाएंगे

अपडेटेड Oct 13, 2024 पर 2:56 PM
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रतन टाटा अब इस दुनिया में नहीं रहें। 9 अक्टूबर को उनका निधन हो गया। इस मौके पर पारसी समुदाय और उनकी लगातार घटती आबादी, उनके धर्म, उनके समाज को समझने की कोशिश की गई। इस कोशिश के तहत मनीकंट्रोल के पॉडकास्ट 'संवाद' में इस बार अल्पसंख्यक आयोग के वाइस चेयरमैन केरसी कैखुशरू देबू आए। जिन्होंने खुलकर नेटवर्क 18 ग्रुप के एडिटर (कंवर्जेंस) ब्रजेश कुमार सिंह के साथ बातचीत की। यहां हम आपको वीडियो का पूरा टेक्सट दे रहे हैं, ताकि आप आसानी से पढ़ सकें। आप वीडियो भी देखें जिसका लिंक इस खबर के अंत में दिया गया है। इसे पढ़कर और देखकर आपको पता चलेगा कि कहां से टाटा नाम आया? क्यों लगातार पारसी समुदाय की आबादी घट रही है? क्यों रतन टाटा का अंतिम संस्कार हिंदू रीति रिवाजों से हुआ? और क्यों आबादी बढ़ाने के लिए कुदरत के करिश्में का इंतजार है। पढ़िए और सुनिए यह दिल छू लेने वाला पॉडकास्ट।

ब्रजेश कुमार सिंह:  देश के सबसे बड़े औद्योगिक समूह टाटा ग्रुप की लंबे समय तक अगुवाई करने वाले रतन टाटा नहीं रहे। 9 अक्टूबर की देर शाम उनका निधन हो गया। रतन टाटा उस समुदाय से आते थे जो इस देश की सबसे छोटी माइनॉरिटी है यानि पारसी समुदाय। पारसी समुदाय के लोगों की तादाद इस देश में 50,000 से भी कम है। लेकिन अगर उनके कंट्रीब्यूशन की बात करें तो इस देश में आबादी के हिसाब से देखा जाए तो सबसे बड़ा कंट्रीब्यूशन है। पिछले 150 वर्षों में समाज के अलग-अलग हिस्सों में चाहे एजुकेशन हो, हेल्थ हो, टेक्नोलॉजी हो, साइंस हो, पारसी समुदाय ने बड़ी भूमिका अदा की है। और पारसी समुदाय के इस सबसे बड़े औद्योगिक समूह टाटा समूह की भूमिका तो बहुत बड़ी रही। रतन टाटा के निधन के बाद अब टाटा ट्रस्ट की चेयरमैनशिप उनके सौतेले भाई नोयल टाटा के पास आ गई। टाटा ट्रस्ट इसलिए महत्त्वपूर्ण है क्योंकि टाटा संस जो कि टाटा ग्रुप की होल्डिंग कंपनी है उसमें 66% स्टेक टाटा ट्रस्ट की है। यानी कि एक तरह से टाटा ग्रुप की मेजोरिटी शेयर होल्डर टाटा ट्रस्ट है। रतन टाटा अपने पीछे कोई संपत्ति किसी अपने नाते रिश्तेदार के लिए नहीं छोड़ गए। उनके पास टाटा संस का एक भी शेयर नहीं था। यह कैरेक्टर रहा है टाटा ग्रुप का और यही कैरेक्टर है पारसी समुदाय का, जिसमें दान करना, समाज के लिए काम करना DNA में शामिल है।

हमारे साथ है राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के उपाध्यक्ष केरसी कैखुशरू देबू। ये खुद उस नवसारी से आते हैं जिस नवसारी में टाटा ग्रुप के संस्थापक फाउंडर जमशेदजी नसरवानजी टाटा का जन्म हुआ था। केरसी देबू खुद पारसी समुदाय से आते हैं। मनीकंट्रोल संवाद की इस कड़ी में केरसी देबू से बातचीत करेंगे और इस देश में पारसी समुदाय के योगदान और खास तौर पर उद्योगपतियों की भूमिका उनके विशिष्ट रीति रिवाजों की चर्चा और इतिहास की दृष्टि से अभी तक का विकास क्रम और क्या है भविष्य की तस्वीर यह सब जानने की कोशिश करेंगे।


अभी रतन टाटा का देहांत हुआ उसके बाद से सबकी निगाहें एक बार फिर पारसी समुदाय पर आ गई हैं। केरसी भाई आपसे मैं ये जानना चाहता हूं भारत के विकास में इस समुदाय का योगदान कितना बड़ा रहा है? इंडिया की एकमात्र एक तरह सकते हैं कि रियल माइनॉरिटी, जिसकी तादाद 1 लाख भी नहीं है। 1 लाख कौन कहे, आज की तारीख में शायद 50,000 भी ना हो। यह समुदाय लंबे समय तक समाज में अपना कंट्रीब्यूशन देता रहे इसके लिए जरूरी है कि इसकी आबादी भी बची रहे। क्या कर रहे हैं आप लोग कम्युनिटी की तरफ से या राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग की तरफ से इसके लिए? क्या पारसी समुदाय में इसको लेकर कोई चिंता नहीं है?

केरसी कैखुशरू देबू: पारसी समुदाय की जो पॉपुलेशन कम हो रही है इसके पीछे कई

कारण है। सबसे पहला कारण है करीब 25% पारसी लोग शादी करते ही नहीं और 25% लोग 30, 35 और 40 साल की उम्र में शादी करते हैं। तो इसकी वजह से उनकी फर्टिलिटी भी कम हो जाती है। फर्टिलिटी 18 से करीब 30 साल की उम्र तक होती है। लेकिन 35 से 40 साल की उम्र में कोई शादी करेगा तो आबादी कैसे बचेगी।

दूसरा मसला है इंटरकास्ट शादियों का। ये अभी इतना बढ़ गया है कि कौन कहां, किसके साथ शादी करेंगे, पता नहीं चलता। पारसी रिवाज के अनुसार, अगर पारसी पुरुष किसी दूसरी कौम की महिला के साथ शादी करेंगे तो उसके बच्चे पारसी कम्युनिटी में आते हैं। लेकिन अगर कोई लड़की किसी दूसरी कम्युनिटी में शादी करेगी तो उसके बच्चों को पारसी नहीं माना जाता। इसकी वजह से जब पारसी महिलाएं दूसरी कौम में शादी करती हैं तो भी पारसी समुदाय की आबादी घट जाती है। इसके अलावा माइग्रेशन का भी प्रॉब्लम है।

दुनिया इतनी छोटी हो गई है कि यहां से युवा यूरोपियन देशों में, ऑस्ट्रेलिया, यूएसए, कनाडा माइग्रेट हो रहे हैं। यह भी एक वजह है। आखिरी बार जब 2011 में जनगणना हुई थी तब पारसी कम्युनिटी की आबादी 57,240 मानी जाती थी। इस नंबर में थोड़ा बहुत अंतर होगा। अभी पिछले 10-15 साल में आप देखें तो हर साल करीब 1000 मौतें हो रही हैं और इसके मुकाबले एक साल में सिर्फ 300-400 बच्चे ही पैदा हो रहे हैं। यानि हर साल आबादी इतनी कम हो रही है। अभी तो कोई फिक्स नंबर नहीं है लेकिन पारसी समुदाय की आबादी फिलहाल 40,000-45,000 के बीच हो सकती है, इससे ज्यादा नहीं होगी।

इस घटते नंबर के कारण सरकार चिंतित है। मोदी साहब का तो खास है कि पारसियों की कम्युनिटी बढ़नी चाहिए। पारसी समुदाय से मोदी साहब का एक स्पेशल प्रेम है। वह बार-बार बता चुके हैं। अभी एक नई मिनिस्ट्री आई है और किरण रिजिजू अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री बनाए गए हैं। उन्होंने सबसे पहला काम जियो पारसी स्कीम लॉन्च करने का किया। जैसा कि मैंने पहले बताया था कि पारसी में फर्टिलिटी घट रही है और इलाज के लिए पैसे लगते है। इस स्कीम में फर्टिलिटी के इलाज के लिए पैसे दिए जाते हैं।

बच्चे कम पैदा होने की एक वजह ये भी है कि पति-पत्नी दोनों काम करते हैं। तो घर में बच्चों की देखभाल करने वाला कोई नहीं है। ऐसे में बच्चों को संभालने वाले घर के बड़े-बूढ़ों (वडील) को भी आर्थिक सहायता दी जाती है।

तो गवर्नमेंट तो बहुत चिंतित है। गवर्नमेंट स्कीम भी लेकर आ रही है। तो मैंने एक बार बताया था कि पूरा भारत सोच रहा है कि पारसी की बस्ती बढ़नी चाहिए। सरकार भी सोच रही है कि पारसियों की बस्ती बढ़नी चाहिए। सिर्फ पारसी ही नहीं सोच रहे हैं कि हमारी बस्ती बढ़नी चाहिए। अगर आप खुद नहीं आगे आओगे तो बस्ती बढ़ेगी? कैसे बढ़ेगी?

ब्रजेश कुमार सिंह: केरसी भाई आप आते हैं नवसारी से। नवसारी जमशेद जी टाटा जो कि टाटा ग्रुप के फाउंडर थे उनका भी जन्मस्थल है। टाटा की हिस्ट्री जो नवसारी से जुड़ी हुई है, बताती है कि यह दस्तूर परिवार है यानी पुजारी परिवार है। इसकी हिस्ट्री क्या रही है? रतन टाटा के देहांत के बाद सब ये जानना चाहते हैं कि यह दस्तूर परिवार नवसारी कहां से आया था, कैसे आया था। क्या इस बारे में कुछ डॉक्यूमेंटेड है?

केरसी कैखुशरू देबू: पारसी कम्युनिटी पर्सिया से आए थे इसलिए उन्हें पारसी कहा जाता है। सबसे पहले हमारा सेटलमेंट गुजरात के संजान में हुआ। और बाद में संजान से हम फैलने लगे। सबसे पहला पारसी नवसारी में जो हिस्ट्री में नोट किया गया था वह साल 1122 का है। उस साल पारसी पुजारियों का एक ग्रुप संजान से नवसारी आया था। इससे पहले बहुत कम संख्या में पारसी नवसारी में थे। इसके बाद नवसारी में पारसियों की बस्ती बनी। वहां फायर टेंपल और टावर ऑफ साइलेंस बना। फायर टेंपल में पूजा होती है वो पूजा हमारे पुजारी करते हैं जिन्हें दस्तूर कहते हैं। जो जमशेद जी टाटा के फोरफादर्स (पूर्वज) थे वो दस्तूर थे।

बाद में नसरवानजी छोटा-मोटा व्यापार करने लगे था। लेकिन जमशेदजी बहुत एंबिशियस था। उसने बोला कि मैं बंबई जाकर कोई व्यापार शुरू करना चाहता हूं। तो उसके फादर ने करीब 21000 या 35000 रुपए दिए थे। उसने उसी पैसे से इतना बड़ा साम्राज्य बनाया जिसे आज पूरी दुनिया में टाटा के नाम से जाना जाता है।

ब्रजेश कुमार सिंह: आज पूरी दुनिया में टाटा ब्रांड पॉपुलर है। यह इंडिया का मोस्ट क्रेडिबल (भरोसेमंद) ब्रांड है। दुनिया में 100 से भी ज्यादा देशों में इसका कामकाज फैला है। लेकिन जो यह टर्म है TATA. यह कहां से आया है। चूंकि पारसियों के जो सरनेम है या तो जिस जगह से आप आते हैं उसके आधार पर होता है या फिर आप जो काम करते हैं उसके हिसाब से। जैसे अगर बोतलों का धंधा है तो बाटली वाला हो गया, अगर आप संजान से आते हैं तो संजानवाला हो गए। अगर भरूच से आते हैं तो भरूचा हो गए। लेकिन टाटा कैसे इवॉल्व हुआ यह मैं आपसे जानना चाहता हूं।

केरसी कैखुशरू देबू: उसकी भी एक हिस्ट्री है। उसके जो फोरफादर्स (पूर्वज) थे उनका दिमाग गर्म था। तो गुजराती में गर्म दिमाग को टाटा बोला जाता है। उसका जो नेचर है वो बहुत टाटा है।

वो हॉट टेंपर थे तो सब उसको टाटा बुलाते थे। तो बाद में उसका सरनेम ही टाटा हो गया।

टाटा का मीनिंग हॉट टेंपल (गर्म दिमाग) है तो इससे वह दस्तूर से टाटा बन हए। लेकिन टाटा अब उद्योग में ईमानदारी का सिंबल बन गया। तो सिर्फ उनका ही परिवार टाटा के नाम से जाना जाता था। आज भी वही परिवार सिर्फ टाटा के नाम से जाना जाता है।

ब्रजेश कुमार सिंह: आप ये बताए कि टाटा परिवार मूलतः दस्तूर परिवार है। यानि पुजारी परिवार है। जिस तरीके से हिंदूओं में ब्राह्मणों को दर्जा हासिल है। उसी तरीके से पारसियों में दस्तूर को दर्जा हासिल है। यह जो टाटा परिवार था चूंकि बुनियादी तौर पर दस्तूर परिवार था। लेकिन अभी हम लोगों ने देखा कि जब रतन टाटा का देहांत हुआ तो उनका क्रीमिनेशन किया गया ना कि जो ट्रेडिशनल तरीके से हुआ। यानि टावर ऑफ साइलेंस जिसको हम दोखमे नशीन कहते हैं। इस तरह के जो डेविएशन है ये पहले से हैं या फिर इंडिविजुअल विल है। क्योंकि माना जाता है कि कम्युनिटी अपने रिवाज को लेकर काफी स्ट्रॉन्ग रहती है तो इस तरह के डेविएशन कब से होने लगे?

केरसी कैखुशरू देबू: कई साल पहले जब टावर ऑफ साइलेंस में बॉडी रखा जाता था तो जो वल्चरस होते थे वो आकर खाते थे। लेकिन अब उन वल्चर्स की संख्या भी घट गई है। पहले इतनी बड़ी तादाद थी कि बॉडी रखने के 10-15 मिनट में ही पूरी बॉडी डिस्पोज हो जाती थी। सिर्फ कंकाल रह जाता था वो भी सूर्य की रोशनी में धीरे-धीरे डिस्पोज हो जाता था। इस डिस्पोजल के पीछे भी एक धार्मिक कारण था। चूंकि पारसी पूरी जिंदगी चैरिटी करता है तो मरने के बाद भी वह अपना शरीर चैरिटी कर देता है ताकि पक्षियों की भूख मिट सके।

लेकिन पिछले कुछ साल से वल्चर्स की संख्या घटती गई। जिसकी वजह से बॉडी पूरी तरह डिस्पोज नहीं हो पाती थी। इसके सॉल्यूशन में सोलर पैनल का इस्तेमाल शुरू किया गया। सोलर पैनल से बॉडी को डिस्पोज किया जाने लगा। लेकिन ऐसे में बॉडी डिस्पोज होने में ज्यादा वक्त लगता था। तो कुछ लोगों का कहना था कि ऐसा करना ठीक नहीं है, इसके बदलाव किया जाए। चूंकि पारसी ईरान से आए थे। और वहां टावर ऑफ साइलेंस भी था और कब्रिस्तान भी था। तो कई लोगों ने कहा कि शव को दफनाना चाहिए। लेकिन जो ऑर्थोडॉक्स लॉबी है वह बिल्कुल चुस्त है। उनका मानना है कि ट्रेडिशनल में बदलाव नहीं आना चाहि। कई जगह पर भारत में भी जहां पर टावर ऑफ साइलेंस नहीं है वहां दफनाया जाता है। लेकिन जहां टावर ऑफ साइलेंस है वहां कब्रिस्तान नहीं है।

भारत में पारसी की ज्यादातर आबादी बंबई में ही है। लेकिन यहां पारसियों का कोई कब्रिस्तान नहीं है। नहीं तो कोई और अल्टरनेटिव नहीं है कि जिसको टावर ऑफ साइलेंस नहीं जाना हो तो क्या करे। मुंबई में वर्ली क्रिमेटोरियम बनाया गया। जहां एक प्रेयर हॉल भी है। लगभग 30 फीसदी पारसी ये तरीका इस्तेमाल कर रहे हैं। रतन टाटा ने भी इसे चुना होगा। इसलिए वर्ली क्रिमेटोरियम में उनका अंतिम संस्कार हुआ।

ब्रजेश कुमार सिंह: आपने कहा कि टावर ऑफ साइलेंस में बॉडी रखा जाता है ताकि पशु पक्षी खा सकें। ताकि वो जीवन के अंतिम समय तक जो डोनेशन की जो परंपरा है जारी रहे। डोनेशन पर बात याद आई कि जैसे कि टाटा ग्रुप की अगर हम बात करें यह जमशेदजी टाटा के जमाने से ही जब से उन्होंने इस ग्रुप की स्थापना की तब से डोनेशन की बड़ी लंबी चौड़ी परंपरा है। यहां तक कि इस देश में अगर आप देखें जो टॉप साइंटिफिक इंस्टीट्यूशंस जो हैं उसको भी खड़ा करने में इस ग्रुप की बहुत बड़ी भूमिका रही। जमशेदजी टाटा ने अपने समय में देश में एक एडवांस साइंटिफिक रिसर्च के लिए मॉडर्न साइंस इंस्टिट्यूट खड़ा करने की सोची और उन्हीं के सपने को बाद में उनकी संतानों ने आकार दिया जो कि बेंगलुरु का इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस है। वो परंपरा उनके बच्चों ने भी जारी रखी। अगर आज हम लोग देखते हैं कि टाटा संस का कंट्रोलिंग स्टेक अगर किसी के पास है तो टाटा ट्रस्ट के पास है। टाटा संस में 66 फीसदी हिस्सेदारी टाटा ट्रस्ट की है। ये टाटा ट्रस्ट कैसे खड़ा हुआ?

जमशेदजी टाटा के दो बेटे थे- दोराब जी टाटा और रतन जी टाटा। दोनों ने ही अपनी जिंदगी में अपनी जो कमाई थी उसका ज्यादातर हिस्सा ट्रस्ट के नाम कर दिया ताकि इससे साइंस, हेल्थ या एजुकेशन.. गरीब लोगों के लिए काम हो सके। स्टूडेंट्स की पढ़ाई हो सके। जमशेदजी टाटा के जमाने में कहा जाता था कि जब इंडियन सिविल सर्विसेस में जब भारतीयों को परीक्षा देने की अनुमति मिली तो जो प्रतिभाशाली छात्र थे उनको स्पॉनर्स करना शुरू किया। नतीजा यह रहा कि हर चौथा आईसीएस ऑफिसर जो भारतीय था, वह कहीं ना कहीं टाटा के डोनेशन से उसने अपनी पढ़ाई की हुई थी या इस एग्जाम के लिए अपीयर हुआ था। यह परंपरा अब भी चल रही है और यही वजह है कि टाटा ग्रुप के ज्यादातर प्रमोटर्स ने जो जो भी कमाई की उसे ट्रस्ट में दिया। यहां तक कि इंडियन होटल्स जो कि आज की तारीख में देश का सबसे बड़ा होटल ग्रुप है। जिसका ब्रांड 'ताज' पूरी दुनिया में अपनी पहचान रखता है 1971 तक अगर आप ताज की प्रॉपर्टी में रुकते थे तो आप सिर्फ और सिर्फ डोनेट करते थे क्योंकि ताज की सारी कमाई समाज सेवा में खर्च की जाती थी। क्योंकि उसको एक्सपेंड करना था इसलिए 1971 में उसका पब्लिक इश्यू लाया गया। तो यह जो है परंपरा रही है इस ग्रुप की। इसको स्ट्रक्चर रूप देने के लिए ही टाटा ट्रस्ट नामक इंस्टीट्यूशन है जिसके अंदर यह दो मेजर ट्रस्ट है दोराबजी टाटा ट्रस्ट। केरसी भाई मैं आपसे जानना चाहता हूं कि नवसारी से इन्होंने अपनी शुरुआत की। क्या नवसारी में भी उन्होंने कोई स्कूल खड़ा किया?

केरसी कैखुशरू देबू: नवसारी में टाटा द्वारा संचालित दो स्कूल है। टाटा बॉय स्कूल और टाटा गर्ल्स स्कूल। जमशेदजी टाटा के नाम एक ऑडिटोरियम भी है। जमशेद जी का जन्म जहां हुआ था वहां घर में एक छोटा सा म्यूजियम भी बना गया है। टाटा की एक बहुत बड़ी प्रॉपर्टी भी नवसारी में है जिसे टाटा बाग कहा जाता है। नवसारी में टावर ऑफ साइलेंस के लिए जमीन भी टाटा ने ही दी है। जब वह नवसारी से बाहर गए तो नेशनल लेवल पर आ गए फिर इंटरनेशनल लेवल पर आ गए। आपने जो बताया कि उसकी जो कमाई है वह इलाज और शिक्षा में जाती है। टाटा का जो सिंबल है उसके नीचे लिखा है हुमंडा हुक्ता हावर्सतम। इसका मतलब सद्वचन, सदाचार और अच्छा आचरण होता है।

जमशेदजी टाटा जमशेदपुर में लोहे की फैक्टरी लगाना चाहते थे। उसके लिए साइंटिस्ट और कर्मचारियों की खोज में दुनिया घूम रहे थे। एकबार वह जापान से वैंकूवर जा रहे थे। उसी जहाज में विवेकानंद जी भी थे। तो जमशेदजी और विवेकानंद जी की बातचीत शुरू हुई। दोनों की एक ही इच्छा थी कि भारत में उच्च शिक्षण होना चाहिए। अगर भारत में जो उच्च शिक्षण नहीं होता तो आपको बाहर जाना नहीं पड़ता है। तो जमशेद जी के मन में एक बात आ गई कि मैं पहला काम भारत में उच्च शिक्षण करने का करूंगा। सत्संग में विवेकानंद जी ने जो उपदेश दिया था वो उसके सर में बिल्कुल उतर गया। और बाद में जब भारत आए उसकी प्रगति भी हो गई तो उसने सोचा कि चलो पहले साइंस इंस्टिट्यूट बनानी चाहिए इसके लिए तो बहुत बड़ा कैंपस चाहिए। तो मैसूर के महाराजा ने 513 एकर जमीन उसको इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस बनाने के लिए दी। लेकिन जब ये बना तो इसे देखने के लिए विवेकानंद जी नहीं रहे लेकिन उसने जो बोला था वो करके दिखाया। इस इंस्टिट्यूशन से कई साइंटिस्ट पैदा हुए। इंफोसिस के जो चेयरमैन हैं वो टाटा को आकर पांव छूते हैं। उनकी पत्नी सुधा मूर्ति की पढ़ाई वहां की है। आज उसका जो नतीजा और उसका जो फल होता है वह आज दिखाई देता है। यह उसके विजन से हुआ। दोराब जी टाटा की पत्नी को कैंसर हो गया था। तो बाद में सोचा कि चलो कैंसर हॉस्पिटल हो जाए। तो टाटा मेमोरियल अस्पताल बनवाया।

जैसा कि आपने पहले बताया था कि रतन टाटा के बच्चे नहीं थे। जमशेदजी के दो बेटे थे। रतन जी और दोराब जी लेकिन दोनों की कोई औलाद नहीं थी। नवल टाटा के दो बच्चे रतन ताता और जिमी टाटा हुए। इसके बाद नवल टाटा ने अपनी पत्नी से तलाक ले लिया और दूसरी शादी की। उनसे एक बेटा नोएल टाटा हुए। नोएल टाटा के तीन बच्चे हैं। एक लड़का और दो लड़की। नेविल ने क्रिलोसकर की बेटी से शादी की है लेकिन नवल टाटा की दोनों बेटियों ने शादी नहीं की है। खुद रतन टाटा ने भी शादी नहीं की। उसके नसीब में नहीं होगा।

ब्रजेश कुमार सिंह: केरसी भाई मैं आपसे यह समझना चाहता हूं कि एक तरफ पारसी कम्युनिटी का कंट्रीब्यूशन है। दूसरी तरफ एक बड़ी चुनौती यह है कि आबादी लगातार गिर रही है। अगर यह आबादी गिर रही है तो इंप्रूव कैसे किया जाए। इसके साथ मैं एक और चीज आपसे समझना चाहता हूं कि आखिर पारसी समुदाय के डीएनए में ऐसा क्या है कि भारत की सबसे छोटी कम्युनिटी एक तरह से भारत की एक्चुअल माइनॉरिटी यही है। आप अल्पसंख्यक आयोग के वा नेशनल माटी कमीशन के वाइस चेयरमैन हैं। पारसी कम्युनिटी के डीएनए में ऐसा क्या है कि इसका कंट्रीब्यूशन जो है चाहे राष्ट्र विकास में हो, डिफेंस में हो साइंटिफिक रिसर्च में हो सब में उदाहरणीय है। जबकि दूसरी कम्युनिटी में क्लैश भी देखने को मिलता है। यह कम्युनिटी ईरान छोड़ के आई और इसने इस देश को पूरी तरीके से अपना लिया और इस देश की ग्रोथ में अपना पूर्ण योगदान दिया हर तरीके से। क्या इससे सीख ले सकती हैं बाकी कम्युनिटीज और आखिर इस कम्युनिटी के डीएनए में यह चीज कैसे आई क्या इसकी भी कोई इंटरेस्टिंग हिस्ट्री है?

केरसी कैखुशरू देबू: ज़ोरास्ट्रियन सिविलाइजेशन है, जो करीब 6000 साल पुराना है। यह जो ईरान में पहले कई ऐसी योजनाएं बनाई गई थीं, वे सोचने की शक्ति, अपनाने की शक्ति और काम करने की जगत से संबंधित थीं। यह सब वहां से बहुत ज्यादा विकसित था। अन्य सिविलाइजेशन की तुलना में, वे कृषि के क्षेत्र में भी बहुत आगे थे। मटू प्रजा भारत में आई और किसी भी निराश्रित तरीके से आई तो उसमें ज्यादा काम करने की चाहत होती है। जब वे पहले भारत में आए, तो उन्होंने कृषि क्षेत्र को चुना और वहाँ की तकनीक से नई नई विधियाँ विकसित कीं। फिर, बाद में शिक्षा पर उन्होंने ध्यान दिया। आप देखिए कि पारसी समुदाय में 100% लिटरेसी है, और यह कई वर्षों से चला आ रहा था। फिर जब ब्रिटिश इंडिया में आए, तो उन्हें अंग्रेज़ी सीखने का मौका मिला। जो पहले गुजरात में बड़े हुए थे, वे माइग्रेट होकर बंबई आ गए। बंबई में अंग्रेज़ों के साथ मिलकर शिक्षा प्राप्त की। आप देखिए कि मेडिकल कॉलेज में पहला बैच सभी पारसी डॉक्टर्स का था, और बड़े-बड़े लॉयर्स और वैज्ञानिक भी बने। इसी तरह, शिक्षा के माध्यम से पारसी समुदाय ऊंचा उठा।

पारसी कौम में वाडिया नामक एक परिवार था, जो शिप बिल्डर थे। बंबई की जो गोदी है, वह भी वाडिया ने बनाई थी। वे सूरत के थे और वहां जहाज बनाते थे। जब ब्रिटिशर्स आए, तो उन्होंने देखा कि इतना अच्छा जहाज तो हमारे यहां नहीं बनता है। तब उन्हें सूरत से बंबई ले गए और वहां जहाजों का निर्माण शुरू किया। फिर, वे डायवर्सिफाई हुए और कई व्यवसायों में आगे बढ़े। आज भी वाडिया ग्रुप है, नुस्ली वाडिया, जेस वाडिया के नाम से प्रसिद्ध है। इसी तरह, जमशेदपुर का नाम पहले साकी था। वहां पर आयरन ओर थी, और जमशेद जी खुद और अपने बेटे के साथ घोड़े पर घूमते रहते थे। किसी ने उन्हें बताया कि यहां आयरन है। तो इस जगह को पसंद किया और साकी का नाम बदलकर जमशेदपुर रख दिया। जमशेदपुर अब पूरी दुनिया में प्रसिद्ध है, और आज झारखंड में है।

दूसरा जो उनका उसूल था, वह था कि जो भी उत्पादन हो, वह परफेक्ट होना चाहिए। इसमें कोई मिलावट नहीं होनी चाहिए। टाटा आज ईमानदारी का प्रतीक बन गया है। टाटा की कोई भी चीज है, तो वह गारंटी के साथ ली जाती है, चाहे वह ट्रक हो या नमक। आप देखिए कि टाटा नमक भी बनाते हैं, आयरन भी बनाते हैं, सब कुछ बनाते हैं। लेकिन एक बात और भी बताई थी कि टाटा ने लाखो टन आयरन बना दिया लेकिन एक बच्चा पैदा नहीं कर सके। एक कुदरती है। वे काम में इतने लगे रहते थे कि बच्चे पैदा करने का सोचना ही नहीं था। इसका कारण यह है कि यह समुदाय के सामने एक चुनौती है। वे बड़े-बड़े अचीवमेंट तो कर लेते हैं, लेकिन अपनी जनसंख्या पर ध्यान नहीं देते।

ब्रजेश कुमार सिंह: आप जिस नवसारी से आते हैं। सारी ईरान का एक प्राचीन शहर है। चूंकि सारी एक समय ईरान की राजधानी भी थी। और जब पारसी संजान से नवसारी आए, उस समय नवसारी नहीं था। नवसारी पारसियों ने बसाया। ईरान और भारत में जहां वो बसे थे दोनों का क्लाइमेट मैच करता था इसलिए उस जगह को नवसारी कहा गया। आज नवसारी में पारसियों की आबादी तो कम हो रही है, लेकिन जब ये आए थे, उस समय की परिस्थिति खास थी। जब हम कहते हैं कि भाई पहले दव आए फिर वहां से संजान आए, तो ईरान में जब इस्लाम आया, तो लोगों को परेशानी हुई, खासकर पारसी समुदाय के लोगों को। एक बड़ी इंटरेस्टिंग कहानी वहां के राजा की। बताते हैं और शायद वही पारसियों का मूल कैरेक्टर भी है कि कैसे समाज और देश में घुलमिल जाना जो जाड़ी राजा की कहानी है जिसमें

उन्होने कहा था कि हमारे पास कोई जगह नहीं है और फिर कैसे उन्हें समझाया गया। उसके बारे में थोड़ा बता सके।

केरसी कैखुशरू देबू: मैंने पहले बताया था कि कम्युनिटी का बसने का तरीका अलग था। इसे आश्रय की जरूरत थी, और इसके लिए वे जगह-जगह घूमते थे। वे संजान पर आ गए, जहां का हिंदू राजा जयदेव था। जिसका नाम अपभ्रंश होकर जाने राना हो गया। राजा ने देखा कि पारसी का कद 6 फीट ऊंचा होता है। जब वे राजा के पास गए और आश्रय की मांग की, तो राजा ने सोचकर बताया कि वह अपनी अक्ल का टेस्ट करेगा। उसने एक प्याला पूरा दूध से भर दिया हाई प्रीस्ट (बड़ा पुजारी) के पास ले गया। प्रीस्ट ने समझ लिया कि राजा क्या कहना चाहते हैं। फिर पुजारी ने उसमें चीनी डाल दी। अगर दूध से भरे प्याले में आप कुछ भी डालेंगे तो वह छलक जाएगा लेकिन चीनी डालेंगे तो वह अदंर चला जाएगा। इससे राजा को यह समझ में आया कि जैसे चीनी दूध में घुल गई, वैसे ही वे भी यहां मिल जाएंगे। फिर राजा ने कुछ शर्तें रखीं। अगर यहां रहना है, तो यहां का परिधान करना पड़ेगा। अपने धर्म में किसी को बदलाव नहीं करना होगा। जो धर्म है, वह चार दीवारों के बीच रहेगा। कोई डिस्टर्ब नहीं करेगा। पारसी शादी में संस्कृत लोक भी बोले जाते हैं। यहां की जो लैंग्वेज है, वह अपनानी होगी। हमने गुजराती लैंग्वेज अपनाई। इस प्रकार पारसी भारत में आगे बढ़े। कितने क्षेत्र में हैं, जैसे कितने डॉक्टर हैं, लॉयर्स हैं। डिफेंस में भी कितने लोग हैं। इस समय पारसी लोग सिर्फ आग की पूजा करते हैं, जो प्राकृतिक तत्वों में से एक है। पारसी पूजा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। जब कोई पारसी घर बनाता है, तो उसमें अग्नि के स्थान को अलग रखते हैं।

पारसियों में जो शादी होती है उसमें संस्कृत श्लोक भी बोले जाते हैं। आप जहां रहते हैं वहां की भाषा अपनानी पड़ती है। जिस तरह दूध में चीनी घुल गई। उसी तरह भारतवर्ष में पारसी आ गए।

ब्रजेश कुमार सिंह: आज भी अगर इंडोनेशिया में जाएं तो एक समय वहां हिंदू वैल्यू सिस्टम था। आज भी इंडोनेशिया की रामायण बहुत मशहूर है। क्या अब ईरान में खासतौर पर अयातुल्ला खुमैनी ने जो वहां पर इस्लामिक रेवोल्यूशन किया, जिसके बाद से वहां काफी रेडिकलिस्ट बढ़ा है। अब ईरान में कुछ पारसी बच गए हैं?

केरसी कैखुशरू देबू: अगर आप ईरान के पारसी पॉपुलेशन के बारे में बात करते हैं तो जोराष्ट्रियन सिर्फ ईरान में नहीं, ईरान से आगे अजरबैजान, अफगानिस्तान, ताजिकिस्तान, इराक, वो सभी जगह पर है। उसका जो स्थापत्य है वो बहुत पुराना है, करीब 3000 साल या 4000 साल। ईरान में पर्सी पोलिस नामका एक पैलेस था। पत्थर से बना हुआ था। लेकिन जब अरब के लोगों ने हमला किया तो वो लोग आइडल्स को तोड़ देते हैं। तो कई सारी मूर्तियां, कई मॉन्यूमेंट, फोर्ट, सब तोड़ने लगे।

पर कुछ साल पहले एक जर्मन साइंटिस्ट और वो जो पुरातत्वविद् थे, उन्होंने ईरान की सरकार को बताया कि ये तो आपके लिए एक ज्वेलर है। यह तो ज्वेल है, यह इतनी पुरानी संस्कृति और इतने पुराने स्कल्पचर कहीं भी नहीं है। इसलिए इसको रिवाइव करना चाहिए। तो उसको रिवाइव भी कर दिया। अभी भी आप देखोगे, मैं तो कुछ साल पहले ईरान जाकर भी आया हूं। वहां पर वह जो पर्सी पुलिस है, उसको रिवाइव करके जैसा 3000 साल पहले था वैसा ही बना दिया। तो वो टूरिज्म पॉइंट ऑफ व्यू भी शामिल हो गया। पूरी दुनिया से इसे देखने के लिए लोग आते हैं। वहां के लोग कहते हैं कि हम धर्म से मुस्लिम हैं लेकिन कल्चर हमारा पारसी है।

जो पारसियों का नवा वर्ष होता है उसे जमशेदी नवरोज कहते हैं। जमशेदी नवरोज बैन है लेकिन इसके बावजूद वो लोग कहते हैं कि यही हमारा नया साल है और हम लोग फेस्टिवल मनाएंगे। जमशेदी नरोज ईरान में, अफगानिस्तान में, ताजिकिस्तान में, अजरबैजान सहित कई एरिया में यह फेस्टिवल मनाया जाता है। कोई भी संस्कृति हो, उसको धर्म परिवर्तन हो सकता है लेकिन उसके अंदर जो जींस होते हैं वो नहीं बदलते हैं।

इसी तरह आप ईरान में देखेंगे तो वो लोग ऐसा मानता है कि हमारा जो कल्चर है वो तो पुराना कल्चर वही है। उसकी रक्षा करनी चाहिए। 1979 में मुस्लिम देश बनने के बाद जब आयातुल्ला खुमैनी आया तो ये पाबंदियां लगीं। पहले तो आप देखो तो स्त्री-पुरुष जब आजाद घूमते थे। लेकिन बाद में पाबंदियां लगने से पर्दा और बुरका आ गया। पारसी इस कल्चर में सूट नहीं हुए। उस वक्त एक लाख जोराष्ट्रियन बच गए थे। वो छिप-छिप कर अपना धर्म अपना रहे थे। बाहर से दिखाते थे कि हम इस्लाम हैं लेकिन अंदर से वह जोराष्ट्रियन थे। लेकिन जब देखा कि ईरान में रहने का मजा नहीं है तो धीरे-धीरे माइग्रेट होकर यूरोपीयन कंट्री, USA, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया चले गए। इससे ईरान का जोराष्ट्रियन आबादी इन जगहों पर फैल गया।

ईरान में रह गए जो पारसी जोराष्ट्रियन थे, उनके धर्म-कर्म अलग थे। यहां तो हमने कई धर्म-कर्म हिंदूओं से भी अपना लिया था, वहां पर थोड़ा अलग है। लेकिन बेसिकली ईरान से यह पूरी आबादी दुनिया भर में फैल गई। तो कई सारे देश ऐसे हैं कि जहां पारसी यूनाइट भी हो गए। तो करीब यूएसए में करीब 15,000 हो गए, ऑस्ट्रेलिया में करीब 5000 हो गए। सबसे ज्यादा कनाडा में हैं। वहां 12,000-15,000 हो गए।

ब्रजेश कुमार सिंह: यह बताइए कि लोगों की बड़ी जिज्ञासा रहती है इस कम्युनिटी के बारे में। पारसियों के मेजर संस्कार क्या हैं? उसकी क्या भूमिका होती है? जो लाइफ साइकिल जो चलती है।

केरसी कैखुशरू देबू: जो पारसी अग्नि की पूजा करते हैं, सिर्फ अग्नि की नहीं, जो पंच महाभूत बोलते हैं ना। हिंदू धर्म में, जो पंच है, उसमें सूर्य भी आता है, चंद्र भी आता है, पानी भी आता है, जमीन भी आती है और अग्नि भी आती है। वो पंच महाभूत हैं। तो यह सभी नेचर जो कुदरती है, उसकी पूजा होती है। तो अग्नि की पूजा क्यों शुरू हुई? तो जो 3000 साल, 5000 साल पहले ईरान की जो बात करें, तो जहां से यह उद्भव हुआ। तो अग्नि की पूजा करने के लिए उसके पास रीजन था। तो अग्नि एक ऐसी वस्तु है कि वह गर्मी देती है, ऊर्जा देती है। जब उसको खाना पकाना है, तो उसके ऊपर कर सकते हैं पकाने के लिए अग्नि चाहिए। फिर रोशनी के लिए अग्नि चाहिए। तो यह अग्नि का गुण हुआ, तो अग्नि की पूजा होने लगी। पानी तो चाहिए, तो जल की पूजा। जल को आवा बोलते हैं। सुबह-शाम पारसी सूर्य की पूजा करते हैं। जब ऊपर आता है सूर्य, तब भी पूजा करते हैं, सब नीचे जाते हैं, तब भी पूजा करते हैं। रात को अंधेरे में चंद्र की छाया मिलती है, चंद्र की भी पूजा करते हैं। इसी तरह जो पंच महाभूत हैं, सबकी पूजा होती है।

ब्रजेश कुमार सिंह: अब ये बताए कि जो जैसे की कुछ रस्म जैसे जनेऊ संस्कार। इसी तरह के संस्कार पारसी अभी फॉलो कर रहे हैं या आधुनिकता में भूल रहे हैं।

केरसी कैखुशरू देबू: 100% अभी भी चालू है। पारसी में नौजोत बोलते हैं। इसमे जनेई का संस्कार होता है। यह स्त्री और पुरुष दोनों को दिया जाता है। जो संस्कार का करते हैं, जनोई देते हैं। उसी तरफ जनोई पारसी, वो पुरुष और स्त्री दोनों को देते हैं। बच्चा मेल हो या फीमेल, दोनों के नौ जोते होते हैं। करीब सात साल से 10 साल के बीच में वह संस्कार दिया जाता है। उसमें हमारा प्रिस्ट हमें पारंपरिक परिधान धारण कराते हैं। जनोई के जोड़े को कुश्ती बोला जाता है, उसे विधि से धारण कराते हैं। अगर किसी की नवजोत नहीं हुई, तो जड़दोस्ती नहीं है। लेकिन नवजोत उसी बच्चे की होगी जो पारसी पुरुष और पारसी स्त्री का हो। बाद में जब कानून आ गया तो पारसी पुरुष और दूसरी समुदाय की महिला की शादी से पैदा हुए बच्चों की भी नवजोत होने लगी। लेकिन पारसी स्त्री किसी दूसरे कौम के पुरुष से शादी कर ले तो उसके बच्चों की नवजोत नहीं होती है। तो इसी तरह पुरातन साल चली आ रही विधि अभी चालू है।

ब्रजेश कुमार सिंह: आप राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के वाइस चेयरमैन हैं। इस कम्युनिटी के नंबर्स की हम लोग बारबार बात कर रहे हैं कि 50,000 से कम तादाद रह गई है। एक तरफ कई दूसरी माइनॉरिटीज हैं जिनके बढ़ते पॉपुलेशन को लेकर चिंता होती है। एक तरफ यह माइनॉरिटी है जो इस कंट्री से कुछ लेती नहीं है सब कुछ अपना दे देती है। जब रतन टाटा गए हैं इस कम्युनिटी की तरफ लोगों का ध्यान फिर गया है। यह कम्युनिटी इस देश में कैसे खुद बचा पाएगी अगर इसी तरह से आबादी घटती रहे तो?

केरसी कैखुशरू देबू: वो जो सवाल है उसका जवाब देना बहुत कठिन है। जो हमारे ऑर्थोडॉक्स लोग हैं वह बोलते हैं कि हमारी कम्युनिटी कभी भी खत्म नहीं होगी लेकिन जो फिगर्स देखा जाए, तो फिगर्स तो कम हो रहे हैं। जब एक लाख था फिगर, तब भी ऐसा ही बोलते थे। आज भी बोलता है कि भाई हमारी कम्युनिटी खत्म नहीं होगी। जब 25,000 पर आ जाएंगे तो भी एक ही बात करेंगे कि हम लोग खत्म होने वाले नहीं है। कहां से कुछ होगा। कुदरत का जो करिश्मा है वो कुछ होगा तो बढ़ेंगे।

ब्रजेश कुमार सिंह: पारसी समुदाय के साथ एक और चीज जो जुड़ी थी। सिनेमा में पारसी समुदाय का काफी कंट्रीब्यूशन रहा है। पारसी थिएटर अब खत्म होने की कगार पर है। पारसी थिएटर का एक बड़ा मशहूर प्ले है छल्लो पारसी वो जो दर्द है, कहीं वो रियल खतरा तो देख रहे हैं कि भारत से बिल्कुल नाम मिट जाए।

केरसी कैखुशरू देबू: नहीं, तो ऐसा तो नहीं हो सकता। अभी हमारे यहां एक नाटक बनाया है। नाटक में उसका टाइटल है छल्लो पारसी। इसका मतलब है लास्ट पारसी। ऐसा है कि 100-200 साल के बाद सिर्फ दो पारसी पृथ्वी पर बच जाते हैं। उन दोनों में यह टक्कर होती है कि दुनिया में लास्ट कौन बचेगा। लेकिन बाद में वो समझ जाता है कि हम कोशिश करेंगे फिर से बढ़ें। उस नाटक का यही थीम है। कुछ भी होगा, करिश्मा होगा और हमारी बस्ती जरूर बढ़ती रहेगी।

ब्रजेश कुमार सिंह: हम प्रयत्न करेंगे, वापस आएंगे यह जो है मूल स्वभाव है, यही वजह है कि एक कम्युनिटी जिसे ईरान से आठवीं नवीं सदी में निकलना पड़ा उसने भारत में आकर इतना बड़ा कंट्रीब्यूशन दिया। जिस कंट्रीब्यूशन को हम कई सारे नामों के जरिए याद करते हैं। जिसको याद करने का मौजूदा समय रतन टाटा की विदाई की वजह से है। रतन टाटा नहीं रहे। इसलिए इस कम्युनिटी की चर्चा हो रही है जिसका कंट्रीब्यूशन ज्यादा और आबादी कम है। और यह कम्युनिटी समाज के तमाम हिस्सों में अपना योगदान लगातार देती आ रही है जिसकी मिसाल टाटा ग्रुप के तमाम कार्य हैं। ऐसे में यह देश की एकमात्र माइनॉरिटी है जिसे लेकर कोई डर नहीं है बल्कि सब प्यार करते हैं।

MoneyControl News

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First Published: Oct 13, 2024 11:19 AM

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