कहानी मायावती और BSP की... कभी UP की राजनीति में मुलायम और BJP दोनों को दी टक्कर, अब अपना वोट मिलना भी हो गया मुश्किल
UP Lok Sabha Chunav 2024: ये कल्पना करना मुश्किल होता है कि आखिर बहुजन समाज पार्टी ने अपने 5 साल के शासन में यानी 2007 से 2012 तक ऐसा कौन सा काम कर दिया, जिसके चलते पार्टी का ग्राफ गिरता चला गया। बहुजन समाज पार्टी 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद समाजवादी पार्टी से चुनावी गठजोड़ किया और ये गठजोड़ इतना सशक्त साबित हुआ की उसने भारतीय जनता पार्टी को 1993 में उत्तर प्रदेश की सत्ता में आने से रोक दिया
कहानी मायावती और BSP की... कभी UP की राजनीति में मुलायम और BJP दोनों को दी टक्कर
2009 में जब अमेरिका के राष्ट्रपति के लिए अश्वेत बराक ओबामा चुने गए, तो तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती कार्यालय से कुछ अधिकारियों ने अखबार के दफ्तरों में फोन किया और कहा की यह तो शुरुआत भर है। पूरी दुनिया में दलित नेतृत्व उभर रहा है। ऐसा ही कुछ भारत में होने जा रहा है। उन अति उत्साहित अधिकारियों से यह जानना चाहा कि इसका असर भारत में क्या होगा? उन्होंने कहा देखते रहिए। मायावती जी देश की प्रधानमंत्री बनेंगी। वास्तव में तब उनके दावे में दम लगता था, क्योंकि ये चर्चाएं आए दिन होती थी कि काशीराम को देश का राष्ट्रपति बनाने के लिए कई दल अनुरोध भी कर चुके थे। ये दावा किया जा रहा था कि लोकसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी को उत्तर प्रदेश में भारी सफलता मिलेगी और मायावती देश की प्रधानमंत्री बन सकती हैं। इसका कारण यह भी था कि उस समय मायावती देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री थी और 2007 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने अपने बहुमत के बल पर सरकार बनाने में कामयाबी हासिल की थी।
वास्तव में अमेरिका में जीते थे बराक ओबामा, लेकिन जश्न लखनऊ में हो रहा था। मुख्यमंत्री मायावती के अफसर उत्साहित थे कि अब भारत में भी मायावती के सर पर प्रधानमंत्री पद का ताज सजेगा। इसके मजबूत कारण भी थे। अपने उत्थान के बाद 2012 तक बहुजन समाज पार्टी आगे ही बढ़ती रही, लेकिन ऐसा क्या हुआ की वर्ष 2012 का उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव बसपा के लिए जो संदेश लाया वो उसके पतन की गाथा थी।
ये कल्पना करना मुश्किल होता है कि आखिर बहुजन समाज पार्टी ने अपने 5 साल के शासन में यानी 2007 से 2012 तक ऐसा कौन सा काम कर दिया, जिसके चलते पार्टी का ग्राफ गिरता चला गया। बहुजन समाज पार्टी 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद समाजवादी पार्टी से चुनावी गठजोड़ किया और ये गठजोड़ इतना सशक्त साबित हुआ की उसने भारतीय जनता पार्टी को 1993 में उत्तर प्रदेश की सत्ता में आने से रोक दिया। यही नहीं जो बहुजन समाज पार्टी 1989 के विधानसभा चुनाव में 11 सीट लेकर आई थी, वो 1993 में समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन से सरकार में आ गई। लेकिन वो एक ऐसा दौर था, जब उत्तर प्रदेश की दलित राजनीति करवट बदल रही थी। जो बसपा के लिए उत्साहित करने वाला था।
मुलायम सिंह यादव के साथ आने से सरकार गिराने तक
बसपा के संस्थापक काशीराम दलितों के उत्थान के लिए हर किसी से समझौता करने को तैयार थे। मुलायम सिंह यादव के साथ सरकार चलाते हुए उन्होंने मुलायम सिंह पर तलवार लटकाए रखी। मायावती और काशीराम हर माह सरकार के कामकाज की समीक्षा के लिए लखनऊ आते थे और समाजवादी पार्टी के मुखिया और मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव को खरी खोटी भी सुनाते थे । लेकिन समाजवादी पार्टी के मुखिया और राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव प्रयास करते रहे कि किसी तरह बसपा से संबंध ठीक बने रहे ।।लेकिन ऐसा संभव नहीं हो सका और जिला पंचायत अध्यक्ष के चुनाव में यह खाई और भी बढ़ गई।
आखिरकार 2 जून 1995 का वो दिन भी आया जब मुलायम सिंह यादव राजधानी लखनऊ के होटल ताज में एक समारोह में भाग ले रहे थे और उसी समय उनके प्रमुख सचिव ने उनके सामने पर्ची बढ़ाई। पर्ची पढ़ते ही मुलायमसिंह यादव के चेहरे की हवाइयां उड़ गईं और वो हड़बड़ा कर उठे। उस पर्ची में लिखा हुआ था कि बसपा सुप्रीमो काशीराम और मायावती दोनों राज भवन में हैं और समाजवादी पार्टी सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया है।
यादव समारोह छोड़कर तुरंत मुख्यमंत्री आवास की तरफ बढ़े, लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। मायावती ने न सिर्फ समर्थन वापस लिया था, बल्कि भारतीय जनता पार्टी ने उनको समर्थन देकर सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करने का राज्यपाल से अनुरोध किया था। मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री आवास पहुंचे और वहां पर अपने पार्टी का नेताओं और मंत्रियों की बैठक बुलाई और कहा कि वो विधानसभा में अपना बहुमत साबित करेंगे। उन्होंने इसे विश्वास घात करार दिया और उनके कार्यकर्ता मीराबाई रोड स्थित स्टेट गेस्ट हाउस में पहुंच गए, जहां के कमरा नंबर एक में मायावती ठहरी हुई थीं।
गेस्ट हाउस कांड
वहां पर नारेबाजी शुरू हुई। समाजवादी पार्टी के बाहुबली पूरे मीराबाई गेस्ट हाउस में उत्पात कर रहे थे। सुरक्षा के पूरे उपाय नहीं थे। मायावती के बंद कमरे का दरवाजा तोड़ने का प्रयास किया गया। उसमें आग लगाने की कोशिश हुई। भारतीय जनता पार्टी और समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं के बीच कई बार झड़प हुई। लेकिन दिल्ली में बैठी नरसिम्हा राव सरकार वेट एंड वॉच की मुद्रा में थी।
आखिरकार जब भारतीय जनता पार्टी ने इस पर बहुत दबाव डालना शुरू किया, तो मुलायम सिंह यादव सरकार को बर्खास्त कर दिया गया और तत्कालीन राज्यपाल ने 3 जून 1995 को मायावती को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया। रात 12 बजे मायावती ने मुख्यमंत्री पद के शपथ ली और वो देश की पहली दलित महिला मुख्यमंत्री बनीं।
मायावती की BJP से भी नहीं बनी
भाजपा के समर्थन से सरकार बनाने के बावजूद मायावती के भारतीय जनता पार्टी से संबंध मधुर नहीं रहे। वह भाजपा पर तीखे हमले बोलती रहीं। वे घटनाएं याद आ रही हैं, जब मायावती के प्रेस कॉन्फ्रेंस के बीच ही उनके ही नजदीकी भाजपा नेता लाल जी टंडन यह पता किया करते थे कि आज बहन जी क्या बोलीं। भारतीय जनता पार्टी पर क्या हमला किया।
वास्तव में मायावती और काशीराम अपने मुद्दे को लेकर बिल्कुल स्पष्ट थे। वो किसी के दबाव में नहीं रहना चाहते थे और ना दिखाना चाहते थे। वह अपने कार्यकर्ताओं को संदेश देते थे की उनकी सरकार और बहुजन समाज पार्टी किसी के दबाव नहीं आती है।। भाजपा से भी उनका तनाव इस कदर बढ़ा की पार्टी के कई नेता मायावती सरकार से समर्थन वापस लेने का दबाव बनाने लगे।
आखिरकार भाजपा नेता कल्याण सिंह ने मायावती सरकार के खिलाफ बयान देना शुरू किया और वो दिन भी आया जब भारतीय जनता पार्टी ने मायावती सरकार के समर्थन वापस ले लिया। मायावती सरकार भाजपा के समर्थन से सिर्फ चार महीने चली। फिर विधानसभा चुनाव हुए और और किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला।
आखिरकार मार्च 1997 में भाजपा और बसपा के बीच एक ऐतिहासिक समझौता हुआ की छह महीने मायावती मुख्यमंत्री बनेगी और छह महीने कल्याण सिंह। 21 मार्च 1997 को मायावती ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली, लेकिन जब भाजपा को सत्ता सौंपने का मौका आया, तो उन्होंने शर्तें लगा दीं कि कल्याण सिंह मुख्यमंत्री नहीं बनेंगे।
आखिरकार तमाम प्रयास के बाद मायावती ने सत्ता तो सौंप दी, लेकिन दोनों दलों के बीच कटुता बढ़ चुकी थी। कल्याण मुख्यमंत्री बन गए। 21 सितंबर 1997,को कल्याण मुख्यमंत्री बने और ठीक एक महीने बाद बहुजन समाज पार्टी ने कल्याण सिंह सरकार से समर्थन वापस ले लिया।
राज्यपाल ने कल्याण सिंह को बहुमत साबित करने के लिए 36 घंटे का समय दिया और विधानसभा में कल्याण सरकार का बहुमत साबित करने के दौरान ही भारी हिंसा हुई। बहुजन समाज पार्टी दो टुकड़ों में बंट गई और मायावती कल्याण सिंह की सरकार नहीं गिरा सकीं।
विधानसभा में बहुमत साबित कर भारतीय जनता पार्टी ने न सिर्फ मायावती को बल्कि विपक्ष को मात दे दी। इसके बाद बहुजन समाज पार्टी, भारतीय जनता पार्टी और समाजवादी पार्टी 2002 के विधानसभा चुनाव में फिर बहुमत से दूर रहीं और भाजपा को सिर्फ 88 सीट ही मिल सकी। इस तरह किसी की भी सरकार नहीं बन सकती थी।
BSP के हाथों कई बार मात खाई भारतीय जनता पार्टी ने एक बार फिर मायावती यानी बसपा से चुनावी गठबंधन किया और मायावती मुख्यमंत्री बन गईं। उत्तर प्रदेश में BSP और BJP की सरकार बनी, लेकिन जल्द ही दोनों दलों के बीच जबरदस्त विवाद शुरू हुए। मायावती ने अकस्मात राज भवन जाकर विधानसभा भंग करने की सिफारिश की, लेकिन भारतीय जनता पार्टी उनके इस कदम को लेकर पहले से ही सतर्क थी और उसने राज्यपाल को लिख कर दिया कि मिलीजुली सरकार में मायावती का ये एकतरफा निर्णय है। जबकि प्रदेश में बसपा और भाजपा की मिली-जुली सरकार है।
राज्यपाल ने मायावती का त्यागपत्र स्वीकार कर लिया, लेकिन विधानसभा भंग नहीं की। मुलायम सिंह यादव ने सरकार बनाने का दावा किया और राज्यपाल ने उन्हें सरकार बनाने के लिए आमंत्रित भी कर लिया। यह बसपा के लिए गहरा झटका था, लेकिन भारतीय जनता पार्टी पर यह आरोप लगा कि वो मुलायम सिंह यादव से मिलकर उनकी सरकार बनवा दी।
मुलायम सिंह यादव ने जिस ढंग से सरकार चलाई और राज्य में अराजकता की स्थिति पैदा हुई, उससे जनता में आक्रोश पैदा हुआ और 2007 के विधानसभा चुनाव में मायावती ने अकेले दम पर बहुमत हासिल किया। राज्य में बसपा की पूर्ण बहुमत की सरकार में आ गई।
हर बार मायावती आरोप लगाया करती थीं कि भाजपा उन्हे काम करने नहीं देती। जबकि वह दलित हित में काम करना चाहती है लेकिन भाजपा उनके हर काम पर अड़ंगा डाल देती है। अब बसपा के पूर्ण बहुमत से सत्ता में आने से दलितों में एक नई चेतना और उम्मीदें बनी। दलितों को लगा कि अब मायावती के दलित हित के कामों को रोकने के लिए भाजपा बीच में नहीं है और दलितों के उत्थान के लिए वह न सिर्फ प्रयास करेंगी बल्कि उसका असर भी दिखेगा।
दलितों का जीवन बदल जाएगा क्योंकि पहली बार एक दलित महिला संकल्प के साथ में सत्ता में आई है, लेकिन जल्दी ये सपना टूट गया। मायावती की सरकार में भी उन लोगों की तूती बोलती थी, जो धन के बल पर अपना काम कराते थे।
थानों और तहसीलों में और सभी दूसरी संस्थाओं में कोई बदलाव नहीं आया। दलित के जीवन में न कोई बदलाव दिखा और न ही बिना घूस के नौकरी मिली। दलित जहां थे वहीं बने रहे। इसी जगह से बसपा की लोकप्रियता में गिरावट आने लगी। साल 2012 के विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी समाजवादी पार्टी के हाथों बुरी तरह हार गई और मुलायम सिंह यादव ने अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री बना दिया।
2014 के लोकसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी इस उम्मीद से उतरी कि उसे भारी सफलता हाथ लगेगी और वो देश की राजनीति में किंग मेकर भी बन सकती है और किंग भी। लेकिन इस चुनाव में बसपा को एक भी सीट नहीं मिली और ऐसे परिणाम आए, जिसकी किसी ने कल्पना नहीं की थी। 2
017 के विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आ गई और बसपा बुरी तरह से हार गई थी। यही नहीं अखिलेश यादव की पार्टी भी बुरी तरह चुनाव हारी । मायावती ने फिर सामाजिक समीकरण बनाना शुरू किया और 2019 के लोकसभा चुनाव में मोदी के खिलाफ बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी के बीच चुनावी गठजोड़ हो गया और इसने अपना असर दिखाया। लेकिन उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी को पराजित नहीं किया जा सका।
भाजपा अपने सहयोगी दलों के साथ 64 सीट जीतने में सफल रही। 10 सीट बहुजन समाज पार्टी जीती और पांच पर समाजवादी पार्टी। यह सपा के लिए भी बहुत बड़ा झटका था और बसपा के लिए इसलिए इतना बड़ा नहीं था, क्योंकि उसे काफी कुछ मिल गया था।
साल 2022 के विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी अकेले चुनाव लड़ी और उसे 403 विधानसभा सीटों में से सिर्फ एक सीट मिली, लेकिन समाजवादी पार्टी ने इसमें बहुत अच्छा प्रदर्शन किया और वो अपने गठबंधन के साथियों के साथ 125 सीट जीतने में सफल रही। इसमें से 111 सीट सिर्फ समाजवादी पार्टी की थी।
2024 के लोकसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी ने एक बार फिर अकेले दम पर मैदान में उतरी, लेकिन एक भी सीट नहीं जीत सकी। दिलचस्प तथ्य है कि मायावती ने अपने भतीजे आकाश आनंद को बहुत बड़ी जिम्मेदारी सौंपी और वो मायावती के बाद नंबर दो के नेता बनकर उभरे। लेकिन जब उन्होंने सपा और भाजपा पर सीधा हमला बोलना शुरू किया, तो उन्होंने आकाश आनंद को सभी पदों से मुक्त कर दिया। उनका यह कदम आश्चर्य जनक था।
ये सवाल उठे कि आखिर ऐसा क्यों किया। क्या कारण था? मायावती की रणनीति क्या है? वास्तव में मायावती का सजातीय वोट का बड़ा हिस्सा उनके साथ अभी भी है। लेकिन बसपा के ग्राफ में गिरावट जारी है।
बसपा अब अपने शुरुआत के दिनों से भी नीचे पहुंच गई है। 1989 में बहुजन समाज पार्टी को 9.90 प्रतिशत वोट मिले थे जबकि इस लोकसभा चुनाव में उसे लगभग 9.40 प्रतिशत ही वोट मिले। बसपा की रणनीति का अभी भी अंदाज लगाना कठिन है। आखिर दलितों के हित के नाम पर और उनके लिए लड़ते दिखने वाली बसपा इतनी कमजोर क्यों हो गई।। क्या बसपा एक बार फिर उसी तरह मजबूत बनकर उभर सकती है जैसी वह 2007 में थी। इसका जवाब समय ही देगा। फिलहाल बसपा बहुत हद तक लड़ाई से बाहर नजर आती है। और अब मायावती की आगे की रणनीति क्या होगी यह समय बताएगा। फिलहाल बसपा के लिए कठिन चुनौती है और निचले पायदान तक पहुंचती बसपा क्या अब उबर भी पाएगी यह कहना कठिन है।