महज 2-4 दिन में मार्केट की तस्वीर बदल गई है। अमेरिकी में मंदी की बात हो रही थी। एक्सपर्ट्स फेडरल रिजर्व के जल्द इंटरेस्ट रेट्स घटाने के अनुमान जता रहे थे। जापान में येन कैरी ट्रेड में अनवाइंडिंग ने फाइनेंशियल मार्केट्स पर दबाव बढ़ा दिया था। अब सब कुछ ठीक लग रहा है। सवाल है कि क्या मार्केट्स को लेकर अब कोई चिंता नहीं रह गई है, क्या इंडियन मार्केट्स में तेजी जारी रहेगी, क्या वैल्यूएशन पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत नहीं है? इन सवालों के जवाब जानने के लिए मनीकंट्रोल ने देविना मेहरा से बातचीत की। मेहरा फर्स्ट ग्लोबल की चेयरपर्सन हैं। उन्हें इंडियन और ग्लोबल मार्केट्स का तीन दशक से ज्यादा अनुभव है।
अमेरिकी इकोनॉमी में संकट नहीं
क्या अमेरिकी मार्केट (US Markets) में दिक्कत दिख रही है? इस सवाल के जवाब में उन्होंने कहा, "जहां तक मेरी बात है तो अमेरिकी मार्केट को लेकर मेरी राय निगेटिव नहीं है। पिछले एक साल से ज्यादा समय से फेडरल रिजर्व (Federal Reserve) अमेरिकी इकोनॉमी और लेबर मार्केट में सुस्ती लाने की कोशिश कर रहा था। अब उसके नतीजे दिखने लगे हैं। इसलिए इसे संकट नहीं कहा जा सकता।" येन कैरी ट्रेड के बारे में उन्होंने कहा कि हम यह भूल जाते हैं कि येन (Yen) और डॉलर (Dollar) के इंटरेस्ट रेट में कई दशकों से फर्क रहा है। जब येन में मजबूती आती है तो समस्या शुरू हो जाती है। हम पहले भी ऐसा देख चुके हैं। 1990 के दशक में एशियाई क्राइसिस और फिर 2008 में ग्लोबल फाइनेंशियल क्राइसिस के वक्त भी ऐसा हुआ था। लेकिन, कभी यह संकट की मुख्य वजह नहीं रहा।
सिर्फ लिक्विडिटी की वजह से तेजी नहीं टिक सकती
ग्लोबल इकोनॉमी और मार्केट्स का इंडिया पर कितना असर पड़ सकता है? इस सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि ग्लोबल जियोपॉलिटिकल इवेंट्स का आम तौर पर इंडियन मार्केट्स पर ज्यादा असर नहीं पड़ता है। इसका ज्यादा असर तभी पड़ता है जब उसके चलते कमोडिटी की कीमतें उछलती हैं। कमोडिटी की कीमतों में उछाल हमारे लिए अच्छा नहीं है। क्या मजबूत घरेलू निवेश की वजह से कुछ मुश्किलों के बावजूद शेयरों की कीमतें ऊंची बनी रहेंगी? इसके जवाब में मेहरा ने कहा है कि ऐसा नहीं है। आखिरकार शेयरों की कीमतें फंडामेंटल्स पर निर्भर करती हैं। सिर्फ लिक्विडिटी की वजह से शेयरों की कीमतें हाई लेवल पर बनी नहीं रह सकतीं।
इंडिया को लेकर कुछ बड़ी दिक्कतें
क्या इंडिया को लेकर आपको आगे कुछ मुश्किल दिख रही है? उन्होंने इसका जवाब हां में दिया। उन्होंने कहा कि एक बड़ी चिंता जीडीपी ग्रोथ को लेकर है। यह बहुत हद तक सरकार के खर्च पर निर्भर दिख रही है। प्राइवेट कंजम्प्शन अब भी स्ट्रॉन्ग नहीं है। फोकस बढ़ाने के बावजूद मैन्युफैक्चरिंग की ग्रोथ सुस्त है। जीडीपी में इसकी हिस्सेदारी सिर्फ 13-13.5 फीसदी है। यह 1969 के बाद से सबसे कम है। युवाओं में बेरोजगारी एक बड़ी समस्या है। नौकरी तलाशने वाले लोगों की स्किल और कंपनियों की जरूरतों के बीच मेल नहीं दिख रहा है।
मार्केट क्रैश करने की आशंका नहीं
अगले 1-2 साल को लेकर आपका क्या ख्याल है? उन्होंने कहा कि अगले एक-दो साल के लिए मेरी सोच पॉजिटिव है। 2010 के दशक की शुरुआत में 100 रुपये उस दशक के अंत में बढ़कर 230 रुपये हो गया। 1980 के दशक की शुरुआत में 100 रुपये उस दशक के अंत में बढ़कर 700 रुपये हो गया था। इससे बुलरन की संभावनाओं के बारे में पता चलता है। हम अब भी ट्रेंडलाइन से नीचे हैं। मार्केट जब इससे काफी ज्यादा ऊपर होता है तो बड़ा क्रैश देखने को मिलता है।
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स्मॉलकैप स्टॉक्स को लेकर बरतें सावधानी
रिटेल निवेशकों को आपकी क्या सलाह है? इसके जवाब में उन्होंने कहा कि कुछ खास सेगमेंट्स जैसे स्मॉलकैप, माइक्रो कैप और नए आईपीओ को लेकर हमें चिंता दिख रही है। हम आम तौर पर 13-15 फीसदी एलोकेशन 1,000 से 5,000 करोड़ वाली मार्केट कैपिटलाइजेशन वाली कंपनियों में करते हैं। कभी-कभी यह बढ़कर 20-22 फीसदी तक हो जाता है। लेकिन, हमारा एक्सपोजर सिर्फ 5-6 फीसदी है। नए निवेशकों को एक बात समझने की जरूरत है कि हर तेजी और मंदी की साइकिल में कई स्मॉलकैप स्टॉक्स लापता हो जाते है। फिर उनमें कभी रिकवरी नहीं आती हैं।