भारत का पड़ोसी देश नेपाल हाल के समय में सुर्खियों में रहा है। आज एक बार फिर इसके बारे में बात हो रही है। लेकिन इस बार इसका कारण धार्मिक परंपरा है, जो नेपाल और भारत में काफी हद तक समान है। भारत का ये पड़ोसी देश 21वीं सदी के शुरुआती वर्षों तक घोषित तौर पर हिंदू राष्ट्र था। हालांकि यहां राजशाही खत्म होने के बाद देश ने खुद को सेक्युलर घोषित किया। इसके बावजूद बड़े पैमाने पर यहां की आबादी हिंदू ही है और इनकी परंपराएं इस धर्म की सबसे प्राचीन वैदिक परंपराओं की झलक देती हैं। इन परंपराओं में से एक है इंद्रजात्रा, जिसे नेपाल में 'येन्या पुन्'हि कहते हैं।
10वीं सदी से आयोजित की जा रही है इंद्रजात्रा
इसकी शुरुआत नेपाल की राजधानी काठमांडू की स्थापना के उपलक्ष्य में राजा गुणकामदेव ने 10वीं सदी में की थी। हमारी पहाड़ी पड़ोसी देश की राजधानी के नाम पर इस आयोजन में एक बहुत अहम हिस्सा रहता है। दरअसल काठमांडू, जिसे स्थानीय भाषा में काठमांडौ कहा जाता है, अर्थ है काठ यानी लकड़ी और मांडौ यानी मंडप। यह एक तरह की शोभायात्रा है, जिसमें लोग अपने पूर्वजों की याद में सड़कों पर जुलूस की शक्ल में निकलते हैं। इंद्रजात्रा के समापन उत्सव के लिए एक बड़ा लकड़ी का मंडप जैसा बना या जाता था, जहां इस समारोह का समापन होता है।
काठमांडु के राजधानी बनने की खुशी में मनाई जाती है
येन्या पुन्'हि काठमांडू का ही पुराना नेपाली नाम है। इसमें "या " का अर्थ है "उत्सव", और "पुन्हि " का अर्थ है पूर्णिमा अर्थात काठमांडू शहर का पूर्णिमा को हुआ जन्मदिन। यह उत्सव दो आयोजनों, इंद्रजात्रा और कुमारीजात्रा से मिलकर बनता है। उत्सव का मुख्य स्थल काठमांडू दरबार स्क्वायर रहता है। यह उत्सव यनला (ञला), नेपाल संवत कैलेंडर के ग्यारहवें महीने की उजाले पक्ष की 12वीं तिथि से लेकर अंधेरे पक्ष की चौथी तिथि तक आठ दिनों तक चलता है।
यह लगभग वही समय होता है जब भारत में श्राद्ध पक्ष चल रहा होता है। श्रद्धालु अपने मृत परिजनों की याद में घी के दीपक जलाते हैं और जुलूस भी निकालते हैं। इस परंपरा को माता बिये कहते हैं। इसका अर्थ है मक्खन (घी) के दीपक अर्पित करना।
मृत परि जनों को श्रद्धांजलि देने का उत्सव
इंद्रजात्रा के पहले दिन उपाकु वनेगु (उपाकु वनेगु) होता है। इसमें लोग मृत परिजनों के सम्मान में जलती हुई अगरबत्ती लेकर तीर्स्थलों तक जाते हैं। वे रास्ते में छोटे-छोटे घी के दीपक भी रखते हैं। यह जुलूस लगभग सुबह 4 बजे से शुरू हो जाता है।
नाटक की प्राचीन विधा है इंद्रजात्रा
इंद्रजात्रा असल में नाटक का एक रूप है जिसकी जड़ें ऋग्वेद में मानी जाती हैं। ऋग्वेद में इंद्र देव के पराक्रम की कई कहानी हैं। इन्हीं कहानियों पर आधारित होती है इंद्रजात्रा, जिसमें इंद्र के इन्हीं युद्धों का प्रदर्शन मुखौटा लगाकर सड़क पर जुलूस की शक्ल में मंचन करते हैं।