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Ganesh Utsav 2025: आस्था के साथ राष्ट्रीयता का पर्व 27 से होगा शुरू, 132 साल से बिना बाधा चल रही है लोकमान्य तिलक की शुरू की परंपरा

Ganesh Utsav 2025: गणेश चतुर्थी पर ब्प्पा के आगामन का उत्सव बहुत धूमधाम से मनाया जाता है। हिंदू धर्म में आस्था के प्रतीक इस पर्व को स्वतंत्रता सेनानी बाल गंगाधर तिलक ने राष्ट्रीयता की अलख जगाने के लिए बड़े पैमाने पर शुरू किया था। उनकी शुरू की परंपरा आज 132 साल से लगातार जारी है।

अपडेटेड Aug 25, 2025 पर 12:12 PM
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गणेश चतुर्थी पर युवाओं को एकजुट करने की परंपरा बाल गंगाधर तिलक ने शुरू की।

Ganesh Chaturthi 2025: हिंदू धर्म में कई पर्व और उत्सव ऐसे हैं जिन्हें पूरे देश में पूरी श्रद्धा और उत्साह के साथ मनाया जाता है। गणेश चतुर्थी भी ऐसा ही पर्व है जिसका हिंदू धर्म में बहुत महत्व है। यूं तो ये धार्मिक आस्था का पर्व है, लेकिन देश के स्वाधीनता संग्राम में भी इसकी बड़ी भूमिका रही है। इस पर्व ने अंग्रेजों के खिलाफ लोगों को एक जुट करने में महत्वपूर्ण रोल निभाया है। 1893 में समाजसुधारक और स्वतंत्रतासेनानी बाल गंगाधर तिलक ने पुणे में गणेशउत्सव को इस तरह मामने की परंपरा शुरू की थी। गणेश उत्सव का धार्मिक आयोजन वर्षों से चला आ रहा था। लेकिन देश की आजादी के लिए जब देश के कोने-कोने से लोगों को एकजुट करने की जरूरत महसूस हुई तो तिलक से इस पर्व को बड़े पैमाने पर शुरू करने की पहल की। ये परंपरा 132 सालों से लगातार चली आ रही है।

रष्ट्रीयता की अलख जगाने में बप्पा कैसे बने सहायक

धार्मिक मान्यताओं के अनुसार भगवान गणेश की पूजा किसी भी शुभ काम में सबसे पहले की जाती है। वह ज्ञान, विवेक, बल-बुद्धि के देवता भी हैं। युवाओं के विशेष्ट नायक होने के कारण वह विनायक कहे जाते हैं। इसलिउ जब देश के युवाओं को आजादी की लड़ाई से जोड़ने की जरूरत महसूस हुई तो तिलक जी का गणपति बप्पा का स्मरण हुआ। वह गणों के स्वामी हैं, व्रातपति हैं, समूह के देवता हैं और समूह से प्यार करते हैं। इसलिए वह सच्चे लोकदेवता हैं। इसके अलावा दक्षिण भारत में गजानन को श्रम का देवता माना जाता है। गाणपत्य संप्रदाय भी श्रम की पूंजी को ही धर्म की पूंजी मानते हैं। यह संप्रदाय मानता है कि देश के विकास का आधार मेहनत अर्थात श्रम से ही संभव है। इसीलिए तिलक ने गणेश जी को राष्ट्र का आराध्य बनाया।

आज की तरह नहीं होता था गणेश उत्सव

देश की आजादी में युवाओं की एकजुटता और उनके उत्साह का बहुत बड़ा योगदान है। लोकमान्य तिलक जान चुके थे कि देश के युवाओं का स्वतंत्रा संग्राम से जोड़े बिना आजादी के सपने का पूरा होना मुमकिन नहीं है। लेकिन उस दौर में गणेशोत्सव का स्वरूप आज जैसा बिल्कुल नहीं था। गणेश जी की हाथ से बनी हुई मिट्टी की बहुत छोटी मूर्तियां विधिवत प्राण-प्रतिष्ठा कर बिठाई जाती थीं। 10 दिनों तक वहां अखंड दीप रहता था। गणेशोत्सव का सभामंडप राष्ट्र-प्रेम की भावनाओं से भरा होता था। उन दिनों गणाधिपति की अध्यक्षता में वैचारिक सभाएं होती थीं, राष्ट्रवादी विचारपत्र बांटे जाते थे। संगीत सभा, नृत्य-महोत्सव, शिवाजी की वीर गाथाओं से भरे हुए नाटक और आध्यात्मिक चर्चाएं भी होती थीं। युवाओं में जोश भरने वाली रचनाएं सुनाई जाती थीं और शारीरिक शक्ति प्रदर्शन भी होते थे। किसी बड़े राष्ट्रीय महोत्सव की तरह 10 दिनों तक यह आयोजन चलता था।

राष्ट्रीय उत्सव ने दिखाई एकजुटता की राह


1857 की क्रांति के विफल होने के बाद पूरे देश की उम्मीदें एक तरह से हतोत्साहित हो चुकी थी। ऐसे में अंग्रेजी सत्ता से टक्कर लेने की बात सोचने से भी लोग डरने लगे थे। यही वजह है कि तिलक ने देश की आजादी के आंदोलन में जान फूंकने के लिए गणेश उत्सव का सहारा लिया। उन्होंने युवाओं को एकजुट करने के लिए गणेश उत्सव को राष्ट्रीयता से जोड़कर गणेशोत्सव को राष्ट्रीय उत्सव बना दिया। ये एक ऐसा उत्सव है, जो लोक पर्व होने के साथ, सांस्कृतिक और सामाजिक सम्मेलन है और संगठन का अवसर देता है। गणपति से अच्छा शुभंकर कोई हो भी नहीं सकता। वे मंगलकर्ता हैं उनके लिए, जो सत्य के आग्रही हैं।

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