बिहार की राजनीति करीब साढ़े तीन दशकों से लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार की छाया में रही है। इस दौरान सत्ता कभी लालू प्रसाद यादव के परिवार के पास रही तो कभी नीतीश कुमार के पास रही। इस बार भी मुख्य मुकाबला महागठबंधन और एनडीए के बीच दिख रहा है। महागठबंधन की अगुवाई राजद कर रहा है तो एनडीए की ताकत के आधार जदयू और बीजेपी हैं। इस बार बिहार के विधानसभा चुनाव अगर पिछले विधानसभा चुनावों से अलग दिख रहे हैं तो इसका श्रेय प्रशांत किशोर को जाता है।
दोनों बड़े गठबंधन के वोटर्स में सेंध लगाने की कोशिश
49 साल के प्रंशात किशोर ने कई राज्यों में कई लोगों को मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाने में मदद की है। अब वह खुद मुख्यमंत्री की कुर्सी के दावेदार हैं। वह बिहार के मुख्यमंत्री बनेंगे या नहीं, यह तो दो-ढाई महीने बाद पता चलेगा। लेकिन, इतना तय है कि वह एनडीए और महागठबंधन को बड़ी चोट पहुंचाने जा रहे हैं। वह दोनों गठबंधन के मतदाताओं में सेंध लगाने की कोशिश कर रहे हैं।
चुनाव जीतने वाले कौशल का खुद के लिए इस्तेमाल
प्रशांत किशोर बिहार के विधानसभा चुनावों में हर उस कौशल को आजमाते दिख रहे हैं, जिसका इस्तेमाल इससे पहले उन्होंने दूसरे नेताओं को सत्ता की कुर्सी तक पहुंचाने के लिए किया है। ऐसा लगता है कि उन्होंने सोचसमझकर बिहार के विधानसभा चुनावों के लिए अपनी रणनीति तैयार की। पहले उन्होंने पूरे राज्य का दौरा कर खुद को लालू और नीतीश के विकल्प के रूप में पेश करने की कोशिश की। बाद में उन्होंने जन सुराज नाम से पार्टी बनाई। आज बिहार में प्रशांत किशोर के नाम की चर्चा शहर, गांव और गलियों में हो रही है।
बिहारियों की कमजोर नब्ज पकड़ने की कोशिश
किशोर की राजनीति से इसलिए एनडीए और महागठबंधन को बड़ी चोट लगने जा रही है, क्योंकि वे बेहतर स्कूल, सड़क, स्वास्थ्य आदि का दावा करने से पहले उस बीमारी पर चोट करते दिखते हैं, जिसका दंश एक आम बिहारी कई दशकों से झेलता आ रहा है। उनका निशाना बिहार से होने वाले पलायन पर है, बिहार में रोजगार के मौकों पर है। पिछले 3-4 सालों से वह बिहार के शहर और गांव में घूम-घूम कर उन स्थितियों पर चोट करते आ रहे हैं, जिन्होंने बिहारियों को पलायन के लिए मजबूर किया है। वह लोगों को भरोसा दिलाने की कोशिश कर रहे हैं कि उन्हें अगर मौका मिला तो 10,000-20,000 रुपये की नौकरी के लिए बिहारियों के दिल्ली-मुंबई जाने का चलन बंद हो जाएगा।
पिछले साढे तीन दशकों की राजनीति पिछड़ेपन के लिए जिम्मेदार
इस बार एनडीए घुसपैठियों के मसले को सबसे ऊपर रखता दिख रहा है तो महागठबंधन ने वोट चोरी के आरोपों को अपना सबसे बड़ा हथियार बनाया है। किशोर का कहना है कि एनडीए और महागठबंधन के एजेंडा में बिहार गायब है। उन्होंने दोनों गठबंधनों पर बिहार के बुनियादी मसलों की अनदेखी करने का आरोप लगाया है। किशोर बिहारियों को यह बताने की कोशिश करते हैं कि साढ़े तीन दशकों तक कभी लालू और तो कभी नीतीश की छाया में रहने वाला बिहार आज कितना पिछड़ चुका है। वह अपनी रैलियों में भाषण कम देते हैं और सवाल ज्यादा पूछते हैं।
मुस्लिम वोटर्स को लुभाने की कोशिश
बिहार में मुस्लिम मतदाताओं पर हर राजनीतिक दल और हर गठबंधन की खास नजर रहती है। मुस्लिम मतदाताओं ने लंबे समय तक नीतीश का साथ दिया है। लेकिन, बीजेपी की वजह से वह नीतीश पर कम और राजद के तेजस्वी यादव के ज्यादा करीब दिख रहे हैं। राज्य की आबादी में 17.7 फीसदी मुस्लिम की है। ऐसे में किशोर की नजरें भी मुस्लिम मतदाताओं पर है। उन्होंने राजद पर सत्ता में आने के लिए मुस्लिम मतदाताओं का इस्तेमाल करने का आरोप लगाया है। हाल में उन्होंने कहा कि बिहार में मुस्लिमों की आबादी के हिसापब से राज्य विधानसभा में करीब 40 मुस्लिम विधायक होने चाहिए।
40 मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट देने का वादा
किशोर ने राजद के तेजस्वी यादव को चैलेंज करते हुए कहा कि अगर वह मुस्लिमों के हितैषी हैं तो 40 मुस्लिमों उम्मीदवारों को अपनी पार्टी का टिकट देकर इसे साबित करें। उन्होंने यह भी कहा है कि उनकी पार्टी खुद 40 मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट देने जा रही है। एक्सपर्ट्स का कहना है कि किशोर ने मुस्लिमों को यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि किस पार्टी या गठबंधन के साथ जाने में उनका असल फायदा है। नीतीश पर मुस्लिम इसलिए भी भरोसा नहीं करना चाहता क्योंकि यह माना जा रहा है कि चुनाव जीतने के बाद बीजेपी नीतीश की जगह राज्य में मुख्यमंत्री की कुर्सी पर अपना उम्मीदावर बैठाने की कोशिश करेगी।
चुनावों से महीनों पहले चढ़ा राज्य का सियासी पारा
एक्सपर्ट्स का कहना है कि अभी बिहार विधानसभा चुनाव करीब दो महीने दूर हैं, लेकिन राज्य का सियासी पारा अभी से चढ़ा हुआ है। इस पारे को चढ़ाने में प्रशांत किशोर की बड़ी भूमिका है। वह जिन मसलों को लेकर जनता के बीच जा रहे हैं, उन्हें झुठलाना जनता के लिए मुश्किल हो रहा है। बेरोजगारी और पलायन के समाधान के उनके वादों में वे मतदाता भी दिलचस्पी दिखा रहे हैं, जो दशकों तक जाति के आधार पर अपनी राजनीतिक निष्ठा तय करते आए हैं। ऐसे में किशोर की राजनीति एनडीए और महागठबंधन को बड़ी चोट पहुंचाती दिख रही है।