2025 के बिहार विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद के दिनों में, RJD के भीतर चल रहे मंथन ने लालू प्रसाद यादव की बेटी रोहिणी आचार्य को फिर से चर्चा में ला दिया है। भाई तेजस्वी यादव की उनकी तीखी आलोचना और पार्टी से खुद को दूर करने के उनके फैसले ने राजनीति से दूर उनके जीवन के बारे में जिज्ञासा बढ़ा दी है। वर्तमान तूफान के पीछे दो दशक से भी ज्यादा समय पहले का ऐसा किस्सा छिपा, जो शायद बेहद ही कम लोगों को मालूम है। वो एक शादी, जिसे पुराने दोस्तों और अप्रत्याशित गठबंधनों ने आकार दिया था।
परिवार के करीबी लोग बताते हैं कि राव रणविजय सिंह के साथ लालू प्रसाद यादव की लंबे समय से चली आ रही दोस्ती ही वो पुल बन गई, जिसने आखिरकार एक दोस्ती को रिश्तेदारी में बदल दिया। बिहार के प्रशासनिक हलकों में एक सम्मानित नाम, राव रणविजय सिंह ने UPSC परीक्षा पास की और भारतीय राजस्व सेवा में काम किया, इनकम टैक्स विभाम में कई पदों पर रहे।
उनका परिवार, जो मूल रूप से औरंगाबाद के पास दौंगर का रहने वाला है, काफी प्रतिष्ठित है। इस परिवार के कई सदस्य सरकारी सेवा में हैं। उनकी पत्नी एक प्रोफेसर थीं, जो बताता है कि ये परिवार कितना पढ़ा-लिखा है।
इसी पारिवारिक के कारण 24 मई 2002 को रोहिणी आचार्य और राव रणविजय सिंह के बेटे समरेश सिंह की शादी हुई। यह रिश्ता बहुत पहले, 1999 में तय हो गई था, जब रोहिणी जमशेदपुर के MGM मेडिकल कॉलेज में MBBS की पढ़ाई कर रही थीं।
शादी के बाद उन्होंने अपनी मेडिकल की पढ़ाई पूरी की, लेकिन क्लीनिकल प्रैक्टिस में जाने का फैसला नहीं किया। 1 जून, 1979 को पटना में जन्मी रोहिणी ने अपनी मेडिकल डिग्री के बावजूद, अक्सर खुद को पहले एक गृहिणी बताया है।
उनके पति समरेश सिंह ने MBA करने के लिए सिंगापुर जाने से पहले मैकेनिकल इंजीनियर की ट्रेनिंग ली थी। IT सेक्टर में मिले मौके ने उन्हें वहीं रोक लिया और आखिरकरा इस जोड़े ने सिंगापुर को अपना घर बना लिया।
वे अब अपनी बेटी और दो बेटों के साथ सिंगापुर में रहते हैं, और बिहार में अपने परिवार के साथ होने वाली राजनीतिक हलचल से दूर ही रहते हैं।
पिछले कुछ सालों में रोहिणी का नाम कई अहम मौकों पर प्रमुखता से सामने आया है। 2022 में, उन्होंने अपने पिता को किडनी दान करके पूरे देश से प्रशंसा हासिल की, एक ऐसा निर्णय था, जिसे असाधारण पुत्री-धर्म के रूप में सराहा गया। दो साल बाद, उन्होंने सारण लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा, हालांकि उनका यह राजनीतिक डेब्यू जीत में बदल नहीं सका।