भारत के हर कोने में सरसों का नाम आते ही मन में देसी खाने की याद ताजी हो जाती है। चाहे गांव की मिट्टी में पका सरसों का साग हो या शहर की रसोई में तड़के की आवाज सरसों हर जगह अपनी मौजूदगी दर्ज कराती है। ये छोटा-सा बीज सिर्फ मसाला नहीं, बल्कि भारतीय खानपान, परंपरा और देसी औषधियों का मेल है। सरसों का तेल हो या इसके दाने दोनों ही रसोई के स्वाद और सेहत के साथी माने जाते हैं। दिलचस्प बात ये है कि सरसों एक नहीं, बल्कि दो रूपों में मिलती है पीली और काली। दोनों ही हमारे खाने में अलग-अलग रंग और स्वाद जोड़ती हैं।
एक तरफ जहां पीली सरसों हल्के और मृदु स्वाद की प्रतीक है, वहीं काली सरसों अपने तीखेपन और झनझनाहट से हर पकवान को जिंदादिल बना देती है। सच कहा जाए तो सरसों भारतीय रसोई की “देसी आत्मा” है, जो हर थाली में अपनी पहचान छोड़ जाती है।
उत्तर भारत की रसोई में सबसे ज्यादा इस्तेमाल होती है पीली सरसों। इसके छोटे-छोटे दाने हल्के पीले रंग के होते हैं और इसका स्वाद थोड़ा मृदु यानी कम तीखा होता है। यही वजह है कि इसे चटनी, अचार और सॉस में खूब प्रयोग किया जाता है। इससे निकला तेल भी हल्का होता है, जो खाने में स्वाद तो बढ़ाता ही है, साथ ही सेहत के लिए भी फायदेमंद है। पीली सरसों में विटामिन A, C, E, मैग्नीशियम और फाइबर भरपूर मात्रा में पाए जाते हैं। ये तत्व पाचन सुधारने, रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने और शरीर को ऊर्जावान बनाए रखने में मदद करते हैं।
अब बात करते हैं काली सरसों की, जिसे राई भी कहा जाता है। इसका रंग गहरा भूरा या काला होता है और स्वाद इतना तीखा कि तड़का लगते ही पूरी रसोई महक उठती है। दक्षिण भारत और बंगाल की रसोई में इसका खूब चलन है। राई का तेल न सिर्फ खाने में स्वाद बढ़ाता है बल्कि औषधीय गुणों से भी भरपूर है। ये तेल जोड़ों के दर्द, सर्दी-जुकाम और त्वचा संबंधी समस्याओं में राहत देता है। इसकी गर्म तासीर शरीर में रक्त संचार को बेहतर बनाती है और ठंड के मौसम में शरीर को गर्माहट देती है।
खेती में भी अलग-अलग पहचान
खेती के लिहाज से भी दोनों का स्वभाव अलग है। पीली सरसों को ठंडा मौसम ज्यादा पसंद है, जबकि काली सरसों हर तरह की परिस्थितियों में अच्छी तरह बढ़ जाती है।किसान पीली सरसों की खेती न सिर्फ तेल के लिए करते हैं, बल्कि इसके फूलों से मधुमक्खी पालन और शहद उत्पादन में भी लाभ उठाते हैं।