Apong Traditional Alcohol: हाल ही में टीवी सीरीज 'द फैमिली मैन' का तीसरा सीजन रिलीज हुआ। ये सीरीज पूर्वोत्तर भारत में फिल्मायी गई है। सीरीज के एक सीन में 'रुखमा' (जयदीप अहलावत) 'मीरा' (निम्रत कौर) को 'अपोंग' नामक स्थानीय चावल-बेस्ड मादक पेय परोसते हुए दिखाई देते हैं। पीने से पहले कुछ बूंदे छिड़कने का छोटा सा अनुष्ठान, जो आत्माओं को अर्पित किया जाता है, इस पेय के गहरे सांस्कृतिक महत्व को दर्शाता है। आइए आपको बताते हैं आखिर क्या है अपोंग का सांस्कृतिक महत्व।
अपोंग का सांस्कृतिक महत्व
'अपोंग' केवल एक मादक पेय नहीं है, बल्कि यह पूर्वोत्तर के जनजातीय समुदायों के बीच एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक स्थान रखता है। नॉर्थ ईस्ट इंडिया शेफ एसोसिएशन के उपाध्यक्ष शेफ अतुल लहकर के अनुसार, असम के मिशिंग समुदाय द्वारा तैयार किया गया यह पेय एक स्वागत पेय के रूप में परोसा जाता है और उनकी सामाजिक एवं पारंपरिक प्रथाओं में इसकी आवश्यक भूमिका होती है।
मिशिंग जनजाति की सांस्कृतिक पहचान है अपोंग
असम के मिशिंग, जिन्हें मैदानी इलाकों के लोग 'मिरी' भी कहते हैं, जोरहाट, शिवसागर और लखीमपुर जैसे जिलों में फैले हुए हैं। ये अरुणाचल प्रदेश की आदि जनजाति से जुड़े हुए हैं और इन्होंने कथित तौर पर अरुणाचल की पहाड़ियों से आकर सुबनसिरी और ब्रह्मपुत्र नदियों के किनारे डेरा जमाया। यह जनजाति सूर्य और चंद्रमा की पूजा करती है, जिसे 'दो-न्यी-पोलो' कहा जाता है।
मिशिंग लोग 'पारो-अपोंग' बनाते हैं, जिसका एक समान संस्करण अरुणाचल प्रदेश का आदि समुदाय भी तैयार करता है। यह साझा विरासत दोनों समुदायों के बीच सांस्कृतिक और ऐतिहासिक बंधन को दिखाती है।
कैसे बनती है ट्रेडिशनल अपोंग?
मिशिंग समुदाय दो प्रकार के चावल-बेस्ड मादक पेय तैयार करता है: पारो-अपोंग (साई मोद) और नोगिन-अपोंग।
खमीर केक: शेफ अतुल लहकर के अनुसार, पेय बनाने की शुरुआत 'अपोप पीठा' नामक खमीर केक बनाने से होती है। इसमें 16 से 39 प्रकार की जड़ी-बूटियां, छाल, पौधे और टहनियां शामिल होती हैं जिन्हें धोकर ताजा या धूप में सुखाकर उपयोग किया जाता है। बाद में, भीगे हुए चावल और जड़ी-बूटियों को अलग-अलग पीसा जाता है, पानी के साथ मिलाया जाता है, और गोल केक (लगभग 3 सेमी × 6 सेमी) का आकार देकर धूप में सुखाया जाता है।
नोगिन-अपोंग: इसके लिए चावल को उबालकर सुखाया जाता है और पिसे हुए 'अपोप पीठा' के साथ मिलाया जाता है। इस मिश्रण को एक मिट्टी के बर्तन में संग्रहित किया जाता है, पानी से भरा जाता है, और केले के पत्तों से ढककर सील कर दिया जाता है। 4-5 दिनों के किण्वन के बाद, यह कालापन लिए हुए लाल-भूरे रंग का नोगिन-अपोंग तैयार होता है, जिसे वसंत से शरद ऋतु तक पिया जाता है।
पारो-अपोंग: पके हुए चावल को सुखाकर राख पाउडर (जले हुए चावल के भूसे और भूसी से बना) और पिसे हुए 'अपोप पीठा' के साथ मिलाया जाता है। इस मिश्रण को मिट्टी के बर्तन में डालकर पुआल और पत्तों से ढककर 20 दिनों के लिए किण्वन हेतु सील कर दिया जाता है। इसके बाद, इसे बांस के बर्तन 'ता'शुक' से छाना जाता है।
अपोंग को बनाना एक पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही सामुदायिक कला है। शेफ अतुल लहकर के अनुसार, आज भी स्थानीय शराब बनाने वाले प्रामाणिकता बनाए रखते हुए इसे बोतलों में बेच रहे हैं। स्थानीय शराब बनाने वाले से आप लगभग ₹500 में एक लीटर अपोंग प्राप्त कर सकते हैं। शेफ लहकर सलाह देते हैं कि अपोंग को ग्रिल्ड नदी की मछली, स्मोक्ड पोर्क, चारग्रिल्ड मांस और लकड़ी पर पकाए गए चिकन के साथ पीना चाहिए।