मोरारजी देसाई की सरकार को बचाना चाहते थे ज्योति बसु लेकिन ऐसा नहीं कर पाए, जानिए क्यों
ज्योति बसु कोलकाता से दिल्ली पहुंचे तो प्रधान मंत्री की कुर्सी उनकी चौखट पर दस्तखत दे रही थी लेकिन पोलित ब्यूरो ने न सिर्फ प्रधानमंत्री का पद ठुकराने का निर्णय किया बल्कि सरकार से भी बाहर रहने का फैसला किया
प्रधानमंत्री बनने का सपना पूरा नहीं कर पाए ज्योति बसु, जानिए क्या रही वजह
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के नेता और पश्चिम बंगाल के मुख्य मंत्री ज्योति बसु चाहते थे कि मोरारजी देसाई सरकार को गिरने से बचाया जाए। लेकिन उनकी पार्टी माकपा इसके पक्ष में नहीं थी। नतीजतन सरकार गिर गई। और चरण सिंह की सरकार बन गई। इतना ही नहीं, माकपा ने बाद के वर्षों में अवसर मिलने के बावजूद ज्योति बसु को प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया था।
सन 1979 में राजनीतिक संकट की घड़ी में तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने ज्योति बसु से कहा था कि आप हमारी सरकार को गिरने से बचाइए। तब ज्योति बसु विदेश यात्रा पर थे। प्रधानमंत्री ने उन्हें फौरन स्वदेश आने को भी कहा था। ज्योति बसु ऐसा करने का मन भी बना चुके थे। लेकिन जब तक ज्योति बसु स्वदेश पहुंचे, उससे पहले ही उनकी पार्टी यह फैसला कर चुकी थी कि देसाई सरकार को गिरने से नहीं बचाना है।
इस मामले में माकपा के नेतृत्व ने ज्योति बसु से कुछ पूछने की जरूरत तक नहीं समझी। इतना ही नहीं, राजनीतिक दलों ने ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनने का ऑफर दिया लेकिन माकपा ने उन्हें यह ऑफर स्वीकार नहीं करने दिया।
बाद में ज्योति बसु ने कहा था कि केंद्र सरकार में शामिल होने के बारे में हमारी पार्टी ने अड़ियल रुख अपनाया। क्योंकि इस मामले में पोलित ब्यूरो और केंद्रीय कमेटी के साथियों में राजनीतिक समझ का अभाव था। नतीजतन वे स्थिति का सामना सकारात्मक ढंग से नहीं कर सके।
ज्योति बसु के अनुसार उनकी पार्टी ने भयंकर राजनीतिक भूल की। दिवंगत ज्योति बसु ने यह बात एक लेखक को बताई जिन्होंने उन पर किताब लिखी है। ज्योति बसु के अनुसार, "समूचा घटनाक्रम आज भी मेरे जेहन में घूमता रहता है। इस बात का हमें दिली अफसोस है कि सरकार में शामिल नहीं होने का निर्णय लेकर हमारी पार्टी के साथियों ने मेरे सुझाव को महत्वहीन माना और एक प्रकार से मेरे विवेक को अपमानित किया।"
सन 1996 में त्रिशंकु लोक सभा बनी थी। तलाश एक प्रधान मंत्री की थी। पूर्व प्रधान मंत्री वी.पी.सिंह पर अनेक दलों की नजर थी। पर, उन्होंने यह पद अस्वीकार कर दिया। फिर कोशिश हुई कि ज्योति बसु प्रधान मंत्री बनें। तब की राजनीतिक परिस्थितियों के बारे में ज्योति बसु ने बाद में बताया था कि "भाजपा का विरोध कांग्रेस भी कर रही थी और तीसरा मोर्चा भी। लेकिन मतभेद इतने अधिक थे कि इन दोनों का मिलन कठिन लग रहा था। तीसरे मोर्चे के नेताओं को उम्मीद थी कि कांग्रेस का एक धड़ा पार्टी छोड़कर उनके साथ आ जाएगा।"
दूसरी तरफ नरसिंह राव तोड़जोड़ के जरिए एक बार फिर सरकार बनाने की कोशिश में लगे थे। वामपंथी दल तब तक कोई स्पष्ट फैसला नहीं ले सके थे। DMK और असम गण परिषद जैसे क्षेत्रीय दल भी बिना अपना इरादा जाहिर किए कांग्रेस या तीसरे मोर्चे, दोनों में से किसी के भी पक्ष में जाने को तैयार थे। तीसरी तरफ इन राजनीतिक अंतरविरोधों का फायदा उठा कर भाजपा व उनके सहयोगी दल कुछ अन्य क्षेत्रीय शक्तियों की मदद से सरकार बनाने के लिए प्रयासरत थे।
इस बीच वी.पी.सिंह ने ज्योति बसु को फोन किया।कहा कि जनता दल समेत तीसरे मोर्चे के सभी सहयोगी एकमत उन्हें यानी बसु को प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं। ज्योति बसु की अधिकृत जीवनी के पन्ने बताते हैं कि "उसी क्षण ज्योति बसु ने प्रधान मंत्री पद का यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया था। शर्त केवल यह थी कि उनकी पार्टी को इसकी इजाजत देनी थी।" याद रहे कि ज्योति बसु की अधिकृत जीवनीकार सुरभि बनर्जी हैं। उन्होंने इस पर विस्तार से लिखा है।
ज्योति बसु कोलकाता से दिल्ली पहुंचे तो प्रधान मंत्री की कुर्सी उनकी चौखट पर दस्तखत दे रही थी।दिल्ली स्थित बंग भवन के उनके विशेष कक्ष में उस रात टेलिफोन की घंटी बंद होने का नाम ही नहीं ले रही थी। फोन करने वालों में सभी बड़े नेताओं से लेकर उद्योगपति भी शामिल थे। बसु के घनिष्ठ सहयोगी और माकपा के महा सचिव हरकिशन सिंह सुरजित भी इस परिस्थिति से उत्साहित थे। ज्योति बसु को यह उम्मीद थी कि वे इस प्रस्ताव पर पोलित ब्यूरो की मुहर लगवा लेंगे।
अगले दिन पोलित ब्यूरो बैठी। ब्यूरो की बैठकों में आम तौर पर कम भाग लेने वाले ईएमएस नम्बूदरीपाद भी इस बार वहां मौजूद थे। ज्योति बसु की उम्मीदों के विपरीत पोलित ब्यूरो के अधिकतर सदस्यों ने सरकार में माकपा की साझेदारी के खिलाफ राय जाहिर की। ब्यूरो ने न सिर्फ प्रधानमंत्री का पद ठुकराने का निर्णय किया बल्कि सरकार से भी बाहर रहने का फैसला किया। ब्यूरो के 14 सदस्यों में केरल और दक्षिण भारत का बहुमत था। लिहाजा बसु की पराजय हुई।
इस बारे में अरूण पांडेय लिखते हैं कि सरकार में न शामिल होने वाले धड़े का नेतृत्व नम्बूदरीपाद व प्रकाश करात ने किया। बसु को इस फैसले से बेहद निराशा हुई। बसु ने बाद में कहा, "पोलित ब्यूरो के अंतिम निर्णय के बावजूद मैंने वी.पी.सिंह, मुलायम सिंह यादव और मोर्चे के अन्य नेताओं के आग्रह को स्वीकार करने के लिए मन बनाया था।
आखिर हर राजनीतिक नेता के जीवन में ऐसे मौके आते ही हैं जब उसे लोगों की इच्छा का आदर करने तथा समय की मांग पर अपने पुराने इनकारों पर पुनर्विचार करने के लिए बाध्य होना पड़ता है। पोलित ब्यूरो द्वारा इनकार किए जाने के बाद भी मैंने अपना मन इसलिए बनाया। क्योंकि तीसरे मोर्चे को जीवित और भाजपा को सत्ता से दूर रखने के लिए यह जरूरी था। आज भी निजी तौर पर मैं पोलित ब्यूरो के उस निर्णय को सही नहीं मानता।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक मामलों के जानकार हैं)