One Nation One Election: 1971 से पहले एक साथ होते थे लोकसभा-विधानसभा चुनाव, फिर इंदिरा गांधी ने क्यों बदली ये व्यवस्था?
One Nation One Election: इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) की कांग्रेस का तब लोकसभा में अपना बहुमत नहीं था। सन 1969 में कांग्रेस में महा विभाजन के बाद अपनी सरकार को बचाने के लिए इंदिरा गांधी कुछ दलों पर निर्भर थीं। नतीजतन वह स्वतंत्र निर्णय नहीं कर पा रही थीं। ऐसे में इंदिरा को न सिर्फ गिरती कांग्रेस को संभालना था, बल्कि उसमें अपने कद को भी बरकरार रखने की चुनौती थी
कांग्रेस की इंदिरा गांधी सरकार ने 1971 में समय से एक साल पहले ही लोकसभा चुनाव करवा कर, विधानसभा चुनावों से लोकसभा चुनाव को अलग कर दिया
One Nation One Election: पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद (Ram Nath Kovind) की अध्यक्षता वाली एक हाई लेवल कमेटी ने गुरुवार को लोकसभा (Lok Sabha) और राज्य विधानसभाओं (Assembly) के लिए एक साथ चुनाव (Election) कराने की सिफारिश की। साथ ही इसमें 100 दिनों के भीतर एक साथ स्थानीय निकाय चुनाव कराने की भी सिफारिश की गई है। समिति ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को 18000 से ज्यादा पेज की अपनी रिपोर्ट सौंपी है। समिति ने इसमें कहा है कि एक साथ चुनाव कराए जाने से विकास प्रक्रिया और सामाजिक एकजुटता को बढ़ावा मिलेगा, लोकतांत्रिक परंपरा की नींव गहरी होगी और "इंडिया जो कि भारत है" की आकांक्षाओं को साकार करने में मदद मिलेगी।
समिति ने सिफारिश की है कि भारत निर्वाचन आयोग राज्य चुनाव अधिकारियों के परामर्श से सिंगल वोटर लिस्ट और मतदाता पहचान पत्र तैयार करे। इसके अलावा समिति ने कई संवैधानिक संशोधन की सिफारिश भी की है, जिनमें से ज्यादातर के लिए राज्यों की मंजूरी की भी जरूरत नहीं होगी।
आज 'एक देश एक चुनाव' को लेकर बहस काफी तेज हो गई है। इस फैसला का सबसे ज्यादा विरोध कांग्रेस करती है। क्योंकि उसका मानना है कि अगर ऐसा होता है, तो बचेकुचे राज्यों से भी उसकी सत्ता छिन सकती है। जबिक सत्ताधारी BJP का पक्ष है कि इससे अलग-अग चुनावों में होने वाले खर्च में कटौती की जा सकती है।
जब कांग्रेस ने बदल दिया एक साथ चुनाव का पैटर्न
तर्क सबके अपने-अपने हैं, लेकिन एक फैक्ट ये भी है कि देश में अलग-अलग चुनाव कराने का काम भी कांग्रेस सरकार ने ही किया था। दिसंबर 1951 और फरवरी 1952 के बीच, स्वतंत्र भारत में लोक सभा और राज्य विधान सभाओं दोनों के लिए पहला चुनाव एक साथ हुआ।
ये व्यवस्था 1960 के दशक के आखिर तक जारी रही, लेकिन उस दौरान जब अस्थिर गैर-कांग्रेसी राज्य सरकारें गिरने लगीं, तो मध्यावधि चुनाव हुए और इस तरह लोकसभा और राज्यों के एक साथ चुनाव का पैटर्न बिगड़ गया।
शायद कम ही लोगों को मालूम होगा कि कांग्रेस की इंदिरा गांधी सरकार ने 1971 में समय से एक साल पहले ही लोक सभा चुनाव करवा कर, विधानसभा चुनावों से लोकसभा चुनाव को अलग कर दिया था। तब अपनी सरकार के ऊपर CPI और कुछ दूसरे दलों के दबाव को कम करने के लिए तत्कालीन प्रधान मंत्री ने ऐसा किया था।
इंदिरा गांधी ने समय से पहले क्यों कराए चुनाव?
जब नेहरू और शास्त्री के निधन के बाद इंदिरा गांधी ने कांग्रेस की कमान संभाली, तो पार्टी में न केवल उनका कद कम हो रहा था, बल्कि पुराने नेता भी उन्हें खुली छूट देने को तैयार नहीं थे। उधर कांग्रेस का ग्राफ भी काफी तेजी से गिर रहा था। ऐसे में इंदिरा को न सिर्फ गिरती कांग्रेस को संभालना था, बल्कि उसमें अपने कद को भी बरकरार रखने की चुनौती थी।
1971 में एशियन सर्वे जर्नल में एक पेपर में, अमेरिका के एक राजनीतिक वैज्ञानिक मायरोन वेनर बताते हैं कि 1967 में कांग्रेस की पॉपुलैरिटी में आई गिरावट के कई कारण थे- जैस दो प्रधानमंत्रियों की मौत के बाद दो युद्ध झेलना, फिर सूखे की मार, बढ़ती महंगई, बढ़ता भ्रष्टाचार और भी बहुत कुछ...
1969 में, इंदिरा गांधी ने कांग्रेस को दो हिस्सों में तोड़ दिया और कांग्रेसियों का एक बड़ा हिस्सा अपने पक्ष में करके और संसद में CPI, DMK और अन्य के समर्थन से टिके रहकर पार्टी के भीतर गुटबाजी को प्रभावी ढंग से खत्म कर दिया।
उन्होंने लोकलुभावन रुख अपनाते हुए वामपंथ की ओर रुख कर लिया था, बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया था और एक कार्यकारी आदेश के जरिए पूर्व राजकुमारों को मिलने वाले प्रिवी पर्स यानी राजभत्ता को खत्म कर दिया था।
हालांकि, ये मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा और शीर्ष अदालत ने राजभत्ता पर रोक लगाने के फैसले को पलट दिया। तब इंदिरा ने अपनी नीतियों के समर्थन के लिए लोगों के पास जाने का रास्ता चुनते हुए लोकसभा को भंग करने की मांग की।
इसका एक राजनीतिक कारण और भी था। उस समय देश में हो रही राजनीतिक घटनाओं पर गौर करें, तो पता चलेगा कि तब कई राज्यों में आए दिन सरकारें गिर रही थीं। ऐसे में इंदिरा गांधी को लगा कि कहीं केंद्र में उनकी भी सरकार किसी भी समय गिर न जाए! इसलिए वह वामपंथियों के दबाव से मुक्ति भी चाहती थीं। एक बार केंद्र सरकार गिर जाती, तो राजनीतिक व प्रशासनिक पावर इंदिरा गांधी के हाथों से निकल जातीं। यह उनके लिए काफी चिंता वाली बात होती।
इसके अलावा ऐसा भी बताया जाता है कि कुछ अज्ञात-अघोषित कारणों से भी तत्कालीन प्रधानमंत्री को चुनाव कराने की जल्दीबाजी थी। उन्हें लगने लगा था कि ‘गरीबी हटाओ’ का उनका लुभावना नारा शायद एक साल बाद यानी 1972 तक वोटों की बरसात न कर पाए। इसीलिए 1971 में ही लोकसभा के मध्यावधि चुनाव कराए गए।
47 में से 32 राजनीतिक दलों ने किया समर्थन
वहीं अब पूर्व राष्ट्रपति के नेतृत्व वाली समिति ने राष्ट्रपति को भेजी सिफारिश में कहा है कि देश के ज्यादातर राजनीतिक दलों ने 'एक देश एक चुनाव' (One Nation One Election) व्यवस्था को अपना समर्थन दिया है।
रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि एक देश-एक चुनाव पर 47 राजनीतिक दलों ने कमेटी को अपनी राय दी। इनमें से 32 ने पक्ष में और 15 ने विपक्ष में अपना मत रखा है।
इसमें कहा गया, "समर्थन करने वाले 32 दलों ने सीमित संसांधनों की बचत, सामाजिक तालमेल बनाए रखने और आर्थिक विकास को रफ्तार देने के लिए भी 'एक देश एक चुनाव' का विकल्प अपनाने की जोरदार वकालत की है।"
इसके अलावा रिपोर्ट में विरोध करने वाले दलों का भी पक्षा रखा गया। कहा गया, "साथ-साथ इसका विरोध करने वाले दलों ने यह मुद्दा उठाया कि यह विकल्प अपनाना संविधान की मूल संरचना का उल्लंघन होगा। ये अलोकतांत्रिक, संघीय ढाचे के विपरीत, क्षेत्रीय दलों को अलग-थलग करने वाला और राष्ट्रीय दलों का वर्चस्व बढ़ाने वाला होगा और इसका परिणाम राष्ट्रपति शासन की ओर ले जाएगा।"