One Nation One Election: लोकसभा-विधानसभा चुनाव एक साथ कराया गया, तो इंदिरा गांधी की गलती सुधर जाएगी
One Nation One Election: इंदिरा गांधी सरकार ने 1971 में समय से एक साल पहले लोक सभा चुनाव करवाया था जिसकी वजह से विधान सभा और लोक सभा चुनाव अलग-अलग हो गए। CPI और कुछ अन्य दलों के प्रेशर से अपनी सरकार को बचाने के लिए इंदिरा गांधी ने ऐसा किया था
One Nation One Elections: इंदिरा कांग्रेस का तब लोक सभा में अपना बहुमत नहीं था। सन 1969 में कांग्रेस में महा विभाजन के बाद अपनी सरकार को बचाने के लिए इंदिरा गांधी कुछ दलों पर निर्भर थीं
One Nation One Election: कांग्रेस (Congress)ने लोक सभा और विधान सभा के चुनाव फिर एक साथ कराने के प्रस्ताव का विरोध किया है, लेकिन ये भी याद करने वाली बात है कि अलग-अलग चुनाव कराने का काम कांग्रेस सरकार ने ही किया था। जबकि 1971 में की गई गलती सुधारने की जिम्मेदारी कांग्रेस पर ज्यादा है। पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के नेतृत्व में बनाई गई उच्चस्तरीय समिति इस संभावना पर विचार कर रही है कि क्या एक साथ चुनाव कराना संभव है? याद रहे कि कांग्रेस की इंदिरा गांधी सरकार ने 1971 में समय से एक साल पहले लोक सभा चुनाव करवा कर, विधान सभा चुनावों से लोक सभा चुनाव को अलग कर दिया। CPI और कुछ दूसरे दलों के अपनी सरकार पर दबाव मुक्त कराने के लिए प्रधान मंत्री ने ऐसा किया था।
इंदिरा कांग्रेस का तब लोक सभा में अपना बहुमत नहीं था। सन 1969 में कांग्रेस में महा विभाजन के बाद अपनी सरकार को बचाने के लिए इंदिरा गांधी कुछ दलों पर निर्भर थीं। नतीजतन वह स्वतंत्र निर्णय नहीं कर पा रही थीं। 1971 के चुनाव के बाद इंदिरा कांग्रेस को बहुमत मिल गया।
कांग्रेस की जिम्मेदारी थी कि वह एक बार फिर एक साथ चुनाव करवाने की पहल करती। ताकि जनता के हजारों करोड़ रुपए बचते। पर, कांग्रेस का आज भी रुख एकसाथ चुनाव के पक्ष में नहीं है।
1971 का वह गैर जरूरी काम कांग्रेस ने अपने राजनीतिक फायदे के लिए किया था। लेकिन अब जब देश एक बार फिर एक साथ चुनाव कराने को तैयार हो रहा है तो कांग्रेस विरोध कर रही है। एक साथ चुनाव कराने में कांग्रेस अब अपना राजनीतिक नुकसान देख रही है।
1967 तक एक साथ होते थे लोक सभा-विधान सभा चुनाव
1967 तक लोक सभा और विधान सभा के चुनाव एक ही साथ होते थे। अब अलग-अलग होने से इस गरीब देश की सरकार को भारी अतिरिक्त और अनावश्यक खर्च उठाने पड़ रहे हैं। पूरी सरकारी मशीनरी चुनाव के कामों में लग जाती है और विकास रुक जाता है। अक्सर देश के किसी न किसी हिस्से में चुनाव होते ही रहते हैं। यानी जिस कांग्रेस ने दर्द दिया, वह अब भी दवा देने को तैयार नहीं है।
एक दफा तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने चुनाव आयोग से आग्रह किया था कि वह देश में एक साथ चुनाव कराने के प्रस्ताव पर राजनीतिक दलों से विचार विमर्श करे। चुनाव आयोग ने कहा कि आयोग इसके लिए तैयार है। पर इसके लिए संविधान में संशोधन करना होगा। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले दिनों कहा था कि एक साथ चुनाव के विचार को आगे बढ़ाने की जरूरत है। इसे कोई थोप तो नहीं सकता। पर, भारत के एक विशाल देश होने के कारण चुनाव की जटिलताओं और आर्थिक बोझ के मददेनजर सभी पक्षों को इस पर चर्चा करनी चाहिए।
पीएम ने मीडिया से भी इस चर्चा को आगे बढ़ाने की अपील की थी। संसद की स्थायी समिति एक साथ चुनाव कराने के पक्ष में अपनी राय दे चुकी है। पर कांग्रेस ‘व्यावहारिक समस्याओं’ का बहाना बना कर एक साथ चुनाव के लिए तैयार नहीं दिख रही है। हालांकि उसने कहा कि सैद्धांतिक रूप से तो सही सुझाव है।
संभवतः कांग्रेस को लगता है कि एक साथ चुनाव से बची खुची राज्य सरकारें भी उसके हाथों से निकल सकती है। कई दशक बाद अब इस पीढ़ी के लोगों को यह जानना जरूरी है कि इस देश में लोक सभा का पहला मध्यावधि चुनाव क्यों कराना पड़ा था ?
क्यों हुआ कांग्रेस का विभाजन?
1969 में कांग्रेस के महा विभाजन को इसका सबसे बड़ा कारण बताया गया। इस विभाजन के साथ ही तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी के सत्तारूढ़ दल इंदिरा कांग्रेस का संसद में बहुमत समाप्त हो चुका था। वह तो CPI और कुछ अन्य क्षेत्रीय दलों की मदद से चल ही रही थी। मध्यावधि चुनाव की कोई मजबूरी नहीं थी।
तब इंदिरा गांधी ने ‘गरीबी हटाओ’ का नारा देते हुए आरोप लगाया था कि गरीबी हटाओ के इस काम में संगठन कांग्रेस के नेतागण बाधक हैं। कांग्रेस के विभाजन को यह कह कर औचित्य प्रदान करने की कोशिश की गई थी। क्या उन्होंने गरीबी हटाओ के अपने नारे को कार्यरूप देने के लिए मध्यावधि चुनाव देश पर थोपा था ?
अगर सन् 1971 के चुनाव में पूर्ण बहुमत पा लेने के बाद उन्होंने सचमुच ‘गरीबी हटाने’ की दिशा में कोई ठोस काम किया होता तो यह तर्क माना जा सकता था।पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ कि इस देश से गरीबी वास्तव में हटती। बल्कि चुनाव के बाद यह आरोप लगने लगा कि केंद्र सरकार संजय गांधी के मारूति कार कारखाने की स्थापना और विकास के काम में सहयोग कर रही है। ऐसे कुछ अन्य आरोप भी लगे। फिर क्यों मध्यावधि चुनाव थोपा गया ? दरअसल कांग्रेस के विभाजन के बाद केंद्र सरकार के कभी भी गिर जाने के भय से वह चुनाव कराया गया था।या किसी अन्य अघोषित कारणों से?
कहीं गिर न जाए सरकार
1971 के मध्यावधि चुनाव के ठीक पहले देश में हो रही राजनीतिक घटनाओं पर गौर करें तो पता चलेगा कि तब कई राज्यों के मंत्रिमंडल आए दिन गिर रहे थे। इंदिरा गांधी को लगा कि कहीं उनकी सरकार भी किसी समय गिर न जाए ! वह वामपंथियों के दबाव से मुक्ति भी चाहती थीं। एक बार केंद्र सरकार गिर जाती तो राजनीतिक व प्रशासनिक पहल इंदिरा गांधी के हाथों से निकल जातीं। यह उनके लिए काफी असुविधाजनक होता।
लोक सभा के मध्यावधि चुनाव के साथ एक और गड़बड़ी हो गई। 1967 तक लोक सभा और विधान सभाओं के चुनाव एक ही साथ होते थे। इससे सरकारों, दलों और उम्मीदवारों को खर्चा कम होता था। 1971 के बाद ये चुनाव अलग-अलग समय पर होने लगे। इससे खर्चे काफी बढ़ गए। इसकी वजह से राजनीति में काले धन की आमद भी बढ़ गई।
कुछ अज्ञात-अघोषित कारणों से भी प्रधान मंत्री को चुनाव कराने की जल्दीबाजी थी। उन्हें लगा था कि ‘गरीबी हटाओ’ का उनका लुभावना नारा शायद एक साल बाद यानी 1972 तक वोटों की बरसात न कर सके। इसीलिए 1971 में लोक सभा के मध्यावधि चुनाव कराए गए।