सुरेंद्र किशोर
सुरेंद्र किशोर
पहले के बड़े-बड़े नेता चुनाव हार जाने के बावजूद आम तौर पर बौखलाते नहीं थे। उनमें से अधिकतर नेता उसे जनादेश मानकर स्वीकार कर लेते थे। किंतु आज शायद ही कोई नेता अपनी पराजय दिल से स्वीकार करता है। जनादेश स्वीकारने की जगह आज अधिकतर नेता अपनी हार पर तरह -तरह के आरोप लगाने लगते हैं। कोई कहता है कि प्रचार माध्यमों ने मतदाताओं को गुमराह कर दिया।
कोई अन्य आरोप लगाता है कि मेरे विरोधियों ने मुझे हराने के लिए अपार धन खर्च किया। मतदान कर्मचारियों को खरीद लिया गया। मतगणना गलत की गई। किसी नेता का आरोप होता है कि धार्मिक और जातीय भावनाएं भड़काकर मुझे हराया गया। यानी, पराजित नेता यह दिखाना चाहता है कि उसकी हार में उसकी अपनी कोई गलती या कमजोरी नहीं थी। या तो वोटिंग मशीन को जिम्मेदार ठहराया जाता है या प्रतिद्वंद्वी दल की धांधली को। या, कुछ और कह कर अपनी कमी छिपाने की कोशिश की जाती है।
आजादी के बाद के विभिन्न चुनावों में जो प्रमुख नेता समय -समय पर हारे ,उनमें मोरारजी देसाई,डा.राम मनोहर लोहिया,इंदिरा गांधी ,जार्ज फर्नांडिस,दीनदयाल उपाध्याय,अटल बिहारी वाजपेयी,डा.भीम राव आम्बेडकर और वी.के.कृष्ण मेनन प्रमुख थे। हारने वालों में आचार्य नरेंद्र देव,वी.पी.सिंह और कांसी राम भी शामिल थे। मुख्यमंत्री रहते हुए तो अनेक नेता चुनाव हारे।
अदालतों में चुनाव याचिकाएं भी पहले कम ही लगाई जाती थीं। मोरारजी देसाई सन 1952 में बंबई विधान सभा का चुनाव हार गए थे। उस समय वे निवर्तमान बी.जी.खेर मंत्रिमंडल के सदस्य थे। हालांकि पराजय के तत्काल बाद मोरारजी देसाई बंबई राज्य के मुख्य मंत्री बने थे। समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण के समकक्ष माने जाने वाले बिहार के एक अन्य समाजवादी नेता रामनंदन मिश्र सन 1952 में लोकसभा का चुनाव हार गए थे।
चुनाव हारने के बाद रामनंदन मिश्र राजनीति से संन्यास ले लिया था। याद रहे कि जयप्रकाश नारायण खुद कभी चुनाव नहीं लड़े। कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के संस्थापकों में से एक आचार्य नरेंद्र देव उत्तर प्रदेश विधान सभा का चुनाव हार गए थे। दरअसल वे सन 1946 में विधायक चुने गए थे। किंतु जब वे कांग्रेस से अलग हुए तो उन्होंने अपने दल के अन्य दर्जन भर विधायकों के साथ उत्तर प्रदेश विधान सभा की सदस्यता त्यागपत्र दे दिया। उन खाली सीटों पर उप उप चुनाव हुए।
उसमें समाजवादी आंदोलन के शीर्ष नेता आचार्य जी भी हार गए।तब कांग्रेस के पक्ष में लहर थी।याद रहे कि आजादी की लड़ाई के दिनों समाजवादी नेता कांग्रेस में शामिल थे।हालांकि उनकी अलग कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी काम कर रही थी। याद रहे कि जवाहरलाल नेहरू के आग्रह पर आचार्य जी ने ही राजीव का नाम "राजीव रत्न" रखा था। हालांकि बाद में रत्न शब्द उनके नाम से हटा दिया गया।
सन 1963 में एक उप चुनाव के जरिए डा.राम मनोहर लोहिया पहली बार लोक सभा में पहुंचे थे। उससे पहले वे लगातार चुनाव हारते रहे। अपनी हार पर लोहिया बौखला कर अनाप -शनाप बोल गए थे, ऐसी कोई जानकारी नहीं है। डॉक्टर लोहिया का नाम लेकर आज राजनीति करने वालों की राजनीतिक शैली ठीक उनसे विपरीत है। लोहिया ने सन 1962 में प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू के खिलाफ फुलपुर में लोक सभा का चुनाव लड़ा।
संभवतः डा.लोहिया यह मान कर चल रहे थे कि वे हारने के लिए ही लड़ रहे थे। उस चर्चित चुनाव के दौरान प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि "मैं अपना कीमती वोट लोहिया को दूंगा।" ऐसे बयान तब इसलिए भी आते थे क्योंकि राजनीति में तब आज जैसी आपसी कटुता नहीं थी। इसीलिए हारने पर आज जैसी बौखलाहट या बोली में अशालीनता और अश्लीलता नहीं आती थी।
कांग्रेसी नेता त्रिभुवन नारायण सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री रहते हुए भी विधान सभा का उप चुनाव हार गए थे। दिवंगत सिंह ने सन 1957 के लोक सभा चुनाव में चंदौली में डॉक्टर राम मनोहर लोहिया को हराया था। कहा जाता है कि डा.लोहिया फुल पुर में जीतने के लिए नहीं बल्कि अपनी पार्टी के प्रचार के लिए लड़े थे। यदि वे चाहते तो चुनाव की दृष्टि से अपने लिए किसी "सुरक्षित" सीट से लड़कर जल्द से जल्द लोक सभा में पहुंचने की कोशिश कर सकते थे।
लोहिया फुलपुर में हार जरूर गए किंतु उनका और उनके दल का व्यापक प्रचार हुआ। सन 1967 और 1977 में इस देश के अनेक दिग्गज कांग्रेसी चुनाव हार गए। तब कांग्रेस विरोधी हवा थी। कांग्रेस अध्यक्ष रहे के.कामराज तो एक छात्र नेता से सन 1967 में चुनाव हार गए। उसी साल बिहार के मुख्य मंत्री के.बी.सहाय भी चुनाव हार गए। सन 1977 में प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी के साथ -साथ उनके पुत्र संजय गांधी भी चुनाव हार गए।
संजय गांधी को तब सत्ता का संविधानेत्तर केंद्र कहा जाता था। कांग्रेस में उनकी तूती बोलती थी। सन 1977 के लोक सभा चुनाव में पूरे हिन्दी प्रदेशों में से कांग्रेस को सिर्फ एक सीट मिली थी। सन 1984 में अटल बिहारी वाजपेयी की कांग्रेस के माधवराव सिंधिया के हाथों हार भी चैंकाने वाली थी। किंतु उस साल तो कभी चुनाव न हारने वाले कर्पूरी ठाकुर भी बिहार के समस्तीपुर में लोक सभा चुनाव हार गए थे।
उससे पहले कर्पूरी ठाकुर दो बार मुख्य मंत्री और एक बार उप मुख्य मंत्री रह चुके थे। इंदिरा गांधी की हत्या के कारण उनके पुत्र राजीव गांधी और कांग्रेस पार्टी के प्रति देश में सहानुभूति लहर चल रही थी। 1984 में गैर कांग्रेसी दलों के अनेक नेता चुनाव हारे। लेकिन आज के नेताओं जैसे नहीं बौखलाए। गरीबी हटाओ के नारे के पृष्ठभूमि में 1971 में लोक सभा चुनाव हुआ था। तब इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस को भारी सफलता मिली थी।
तत्कालीन जनसंघ के बड़े नेता बलराज मधोक ने चुनाव में धांधली करने का इंदिरा गांधी पर आरोप लगाया। मधोक ने कहा कि प्रधानमंत्री सोवियत संघ से विशेष प्रकार की स्याही मंगवा कर मतपत्रों पर लगवाया था। पर खुद जनसंघ के अन्य बड़े नेता मधोक के इस आरोप से असहमत थे।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक मामलों के जानकार हैं)
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