नारे गढ़ने और उसका चुनावी लाभ उठाने की तरकीब राहुल गांधी ने न तो इंदिरा गांधी से सीखी और न राजीव गांधी से। मनमोहन सिंह जब प्रधानमंत्री थे तब राहुल गांधी ने सार्वजनिक रूप से अध्यादेश की कॉपी फाड़ कर मिस्टर क्लीन की छवि पेश करने की कोशिश जरूर की थी। लेकिन वे उसे स्थायी भाव नहीं बना सके। याद रहे कि सजायाफ्ता जन प्रतिनिधियों की सदन की सदस्यता बचाने के लिए वह अध्यादेश आया था।
इंदिरा गांधी और राजीव गांधी ने तरह -तरह के उपायों से कभी अपना और अपने दल का राजनीतिक कद बढ़ाया था। चुनावों में समय-समय पर कांग्रेस को भारी जीत दिलवाई थी। पर, राहुल गांधी अपने पिता और दादी से भी कुछ नहीं सीख सके। नतीजा ये रहा कि चुनावों में आम तौर पर कांग्रेस और राहुल फिस्सडी ही साबित होते रहे हैं। इक्के-दुक्के अपवादों से पूरे देश की राजनीति नहीं चलती।
भ्रष्टाचार के आरोप झेल रही कांग्रेस के खिलाफ जनता की मानसिकता को न तो राहुल पहचान सके और न ही उसे बदलने के उपाय कर सके। जबकि कभी- कभी वे मेहनत भी करते रहे।हाल में उन्होंने लंबी ‘भारत जोड़ो यात्रा’ तक की। कांग्रेस का जन समर्थन 1989 से घटना शुरू हुआ था। वह अब भी जारी है। उसके घटते जाने के ठोस कारण रहे हैं। जब तक उन कारणों को दूर नहीं किया जाएगा, तब तक पार्टी का पुनरुत्थान कैसे संभव है? लेकिन, राहुल को तो पतन के कारण तक नहीं मालूम।
हाल में कुछ प्रादेशिक चुनाव हुए। कांग्रेस के लिए परिणाम अच्छे नहीं रहे। इन चुनाव परिणामों का असर अगले लोक सभा चुनाव पर भी पड़ ही सकता है। कई बार राहुल गांधी दलितों के घर जरूर गये। पर ‘खाली हाथ। उनके लिए ठोस किया क्या? कांग्रेस की सरकार अल्पसंख्यकों के लिए घोषणाएं करती रही।पर,वह सरजमीन पर नहीं उतर सका। वैसे भी अल्पसंख्यक मतदातागण अब चुन-चुन कर दलों को वोट देने लगे हैं। जो जहां BJP को हराने की स्थिति में होता है,उसे ही वहां अधिकतर अल्पसंख्यकों के वोट मिलते हैं। उसके अनुसार कांग्रेस को अपनी रणनीति बदलनी चाहिए थी।
राहुल गांधी ने एक बार यह सवाल उठाया था कि ‘मैं गरीबों के घर जाता हूं तो लोग सवाल करते हैं। पर, हजारों राजनेता ऐसा नहीं करते तो लोग उनसे सवाल क्यों नहीं पूछते कि वे ऐसा क्यों नहीं करते ?’ इस सवाल का जवाब बिलकुल साफ है।राहुल गांधी खाली हाथ ही दलितों या फिर गरीबों के घर जाते रहे। जबकि वे गरीबों के यहां जाने से पहले उनके लिए दिल्ली की अपनी केंद्र सरकार से उनके हित में काफी कुछ करा सकते थे जो काम उन्होंने समय रहते नहीं किया।
अस्सी के दशक में राजीव गांधी ने कांग्रेस महा सचिव के रूप में ही ऐसे कुछ काम केंद्र की सत्ताधारी पार्टी से करवा दिए थे जिनसे उन्हें देश ने तत्काल ‘मिस्टर क्लिन ’ मान लिया । उन्होंने देश के तीन विवादास्पद कांग्रेसी मुख्य मंत्रियों को हटवा दिया था।राजीव गांधी ने ‘‘सत्ता के दलालों’’ के खिलाफ भी आवाज बुलंद की थी। प्रधानमंत्री के रूप में राजीव गांधी ने सार्वजनिक रूप से यह स्वीकार किया था कि दिल्ली से हम जो एक रुपया भेजते हैं, उनमें से 15 पैसे ही जनता तक पहुंचते हैं। बाकी पैसे बिचैलिये खा जाते हैं।
2G स्पेक्ट्रम और कॉमनवेल्थ घोटाले तथा अन्ना टीम के भ्रष्टाचारविरोधी आंदोलन की पृष्ठभूमि में राहुल गांधी अपने दल और सहयोगी दलों के कुछ विवादास्पद नेताओं को उनके पदों से हटवा कर अपनी बेहतर छवि बना सकते थे। तब मन मोहन सिंह प्रधान मंत्री थे। साथ ही, लोगों की आर्थिक कठिनाइयां कम करनेवाले कुछ बड़े निर्णय केंद्र सरकार से करवा कर कांग्रेस का जनाधार बढ़वा सकते थे। यह काम इंदिरा गांधी ने अपने कार्यकाल में किया था।
इंदिरा गांधी ने साठ के दशक में बैंकों के राष्ट्रीयकरण करके और राजवाड़ों के प्रिवी पर्स समाप्त करके गरीबों का दिल जीता था। नतीजतन ‘‘गरीबी हटाओ’’ के नारे के बीच सन 1971 के लोक सभा चुनाव में इंदिरा कांग्रेस को गरीबों ने बड़े पैमाने पर वोट भी दिए। खुद राहुल गांधी ने गत 15 अक्तूबर 2009 के झारखंड दौरे में कहा कि ‘देश में जहां -जहां की सरकारें पिछड़े इलाकों में विकास योजनाओं को पहुंचाने में फेल रही है, वहीं पर नक्सल समस्याएं ज्यादा बढ़ी हैं।’
पर इसका आखिर हल क्या है? दरअसल विकास योजनाओं को पहुंचाने में हर स्तर पर जारी सरकारी भ्रष्टाचार ही बाधक है। सरकारी भ्रष्टाचार पर कारगर और जोरदार हमला करने के लिए यदि चाहते तो राहुल गांधी ही मन मोहन सरकार पर दबाव बना सकते थे। पर उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया। उल्टे मनमोहन सरकार पर भ्रष्टाचार के गंभीरत्तम आरोप लगे। मनमोहन सरकार उन आरोपों के बचाव में ही लगी रही। उसका लाभ BJP और नरेंद्र मोदी ने उठा लिया।
2014 की हार के बाद एंटोनी कमेटी ने यह रिपोर्ट दी थी कि कांग्रेस अल्पसंख्यकों की ओर झुकी रही। हार का यह बड़ा कारण रहा। पर राहुल गांधी ने उस कारण को दूर करने की कोशिश तक नहीं की।बल्कि उससे उलट काम किया।और कर रहे हैं। इस तरह सन 2024 के लोस चुनाव को लेकर भी कांग्रेस के लिए कोई उम्मीद बनती दिखाई नहीं दे रही है।