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डोनाल्ड ट्रंप की जीत से इन देशों की टेंशन बढ़ना तय, चल रहे युद्ध और उठापटक पर भी पड़ेगा असर

अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में रिपब्लिकन उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप की जीत के बाद से दुनियाभर की निगाहें अब इस पर ही टिकी हैं, आखिर अमेरिका जैसे सुपरपावर की सत्ता की कमान बदलने से किस देश की चिंताएं ज्यादा बढ़ेंगी, या रूस-यूक्रेन और मिडिल ईस्ट में मौजादा तनाव पर क्या असर होगा

अपडेटेड Nov 07, 2024 पर 4:42 PM
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डोनाल्ड ट्रंप की जीत से इन देशों की टेंशन बढ़ना तय, चल रहे युद्ध और उठापटक पर भी पड़ेगा असर

व्हाइट हाउस में डोनाल्ड ट्रंप की वापसी से अमेरिका की विदेश नीति को नया आकार मिलने वाला है। ट्रंप ने कई मौकों पर कह चुके हैं कि वह दुनिया के कई हिस्सों में चल रहे युद्ध को खत्म कर सकते हैं। अपने चुनाव अभियान के दौरान, ट्रंप ने गैर-हस्तक्षेपवाद और व्यापार संरक्षणवाद के सिद्धांतों के आधार पर नई नीतियों का ऐलान। हालांकि, उन्होंने खुलकर इनके बारे में कुछ नहीं बताया, लेकिन ये नीतियां शायद उनके पुराने नारे 'अमेरिका फर्स्ट' के आधार पर ही होंगी।

ट्रंप की जीत के बाद से दुनियाभर की निगाहें अब इस पर ही टिकी हैं, आखिर अमेरिका जैसे सुपरपावर की सत्ता की कमान बदलने से किस देश की चिंताएं ज्यादा बढ़ेंगी, या रूस-यूक्रेन और मिडिल ईस्ट में मौजादा तनाव पर क्या असर होगा।

रूस, यूक्रेन और NATO


अपने चुनाव प्रचार के दौरान, ट्रंप ने बार-बार कहा कि वह रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध को "एक दिन में" खत्म कर सकते हैं। लेकिन जब उनसे पूछा गया कि कैसे? तो उन्होंने इस पर कुछ ज्यादा जानकारी तो नहीं दी, बस एक डील की ओर ही इशारा किया।

मई में ट्रंप के दो पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा प्रमुखों की ओर से लिखे गए एक रिसर्च पेपर में कहा गया था कि अमेरिका यूक्रेन को अपने हथियारों की सप्लाई करता रहे, लेकिन एक शर्त ये भी रखी जाए कि कीव रूस के साथ शांति समझौते के लिए आगे बढ़े।

BBC के मुताबिक, वहीं रूस को लुभाने के लिए, पश्चिम NATO में यूक्रेन को लाने में देरी करने का वादा करेगा। पूर्व सलाहकारों ने कहा कि यूक्रेन को रूसी कब्जे से अपने सभी इलाके वापस पाने की उम्मीद नहीं छोड़नी चाहिए, बल्कि उसे मौजूदा अग्रिम मोर्चों के आधार पर बातचीत करनी चाहिए।

ट्रंप के डेमोक्रेटिक प्रतिद्वंद्वी, जो उन पर रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के साथ सहयोग करने का आरोप लगाते हैं, कहते हैं कि उनका नजरिया यूक्रेन के लिए आत्मसमर्पण करने जैसा है, जो पूरे यूरोप को खतरे में डाल देगा।

उन्होंने लगातार कहा है कि उनकी प्राथमिकता युद्ध को खत्म करना और अमेरिकी संसाधनों की बर्बादी को रोकना है।

अब तक ये साफ नहीं है कि पूर्व सलाहकारों का ये पेपर, ट्रंप की अपनी सोच से कितना मेल खाता है, लेकिन ये उम्मीद जरूरी लगाई जा रही है, उन्हें इससे काफी सलाह मिलेगी।

युद्ध को खत्म करने के लिए उनका "अमेरिका फर्स्ट" का नारा NATO के भविष्य के रणनीतिक मुद्दे से भी जुड़ा है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद सोवियत संघ के खिलाफ NATO सैन्य गठबंधन की स्थापना इसी फॉर्मूले- ऑल-फॉर-वन और वन-फॉर-ऑल, पर हुई थी। इसका मतलब है कि NATO के किसी एक देश पर भी अगर हमला होता है, तो वो सभी गठबंधन देशों पर हमला माना जाएगा।

नाटो में अब 32 देश हैं, और ट्रंप लंबे समय से गठबंधन पर सवाल उठाते रहे हैं। उन्होंने आरोप लगाया कि अमेरिका के सुरक्षा के वादे पर यूरोप को खुली छूट दी गई है।

अब एक नई बहस ये शुरू हो गई है कि क्या ट्रंप के नेतृ्त्व में अमेरिका NATO से बाहर हो जाएगा? अगर ऐसा होता है, तो ये रक्षा संबंधों में सबसे महत्वपूर्ण बदलाव होगा।

BBC की रिपोर्ट के मुताबिक, ट्रंप का ये कड़ा रुख सिर्फ एक रणनीति है, जिससे NATO के सभी साथी देशों को गठबंधन के डिफेंस खर्च की गाइडलाइंस पर बातचीत करने के लिए एक साथ लाया जा सके।

लेकिन वास्तविकता यह है कि नाटो नेता इस बात को लेकर गंभीर रूप से परेशान होंगे कि ट्रंप की जीत का गठबंधन के भविष्य के लिए क्या मतलब है और इसका फायदा विरोधी किस तरह से उठाएगा।

मिडिल ईस्ट पर कैसा होगा असर?

यूक्रेन की तरह, ट्रंप ने मिडिल ईस्ट में भी "शांति" लाने का वादा किया है, जिसका मतलब है कि वह गाजा में इजरायल-हमास युद्ध और लेबनान में इजरायल-हिजबुल्लाह युद्ध को खत्म कर देंगे, लेकिन यहां भी उन्होंने यह नहीं बताया है कि कैसे।

उन्होंने बार-बार कहा है कि, अगर जो बाइडन के बजाय वह सत्ता में होते, तो ईरान हमास के दबाव में आकर इजरायल पर हमला नहीं करता। ईरान हमास को पैसे और दूसरी मदद भी देता है।

मोटे तौर पर, यह संभावना है कि ट्रंप उस नीति पर लौटने की कोशिश करेंगे, जिसके तहत उनके प्रशासन ने अमेरिका को ईरान परमाणु समझौते से बाहर निकाला, ईरान के खिलाफ बड़े प्रतिबंध लागू किए और ईरान के सबसे शक्तिशाली सैन्य कमांडर जनरल कासिम सुलेमानी को मार गिराया।

व्हाइट हाउस में, ट्रंप ने दृढ़ता से इजरायल समर्थक नीतियों को लागू किया, यरूशलेम को इजरायल की राजधानी के रूप में मान्यता और अमेरिकी दूतावास को तेल अवीव से वहां ट्रांसफर कर दिया। ये एक ऐसा कदम था, जिसने ट्रंप के क्रिश्चियन इवेंजेलिकल बेस को फिर से एक्टिव कर दिया, क्योंकि ये रिपब्लिकन का बड़ा वोटर समूह है।

इजरायली प्रधान मंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने ट्रंप को "व्हाइट हाउस में इजरायल का अब तक का सबसे अच्छा दोस्त" कहा।

लेकिन आलोचकों का तर्क है कि उनकी नीति का इलाके पर अस्थिर प्रभाव पड़ा।

फिलिस्तीनियों ने ट्रंप प्रशासन का बहिष्कार किया, क्योंकि वाशिंगटन ने यरूशलेम को लेकर फिलिस्तीन के दावे को नकार दिया। यह वो शहर है, जो फिलिस्तीनियों के लिए राष्ट्रीय और धार्मिक जीवन का ऐतिहासिक केंद्र है।

जब ट्रंप ने तथाकथित "अब्राहम एकॉर्ड" में मध्यस्थता की, तो फिलिस्तीनी और भी अलग-थलग पड़ गए, जिसमें इजरायल और कई अरब और मुस्लिम देशों के बीच राजनयिक संबंधों को सामान्य बनाने के लिए एक ऐतिहासिक समझौता हुआ।

ये समझौता एक स्वतंत्र फलस्तीन के भविष्य पर फैसला लिए बगैर किया गया था। अरब देशों के बीच ऐसा कोई भी समझौते की शर्त दो राष्ट्र का सिद्धांत था। यानी इजरायल और फिलिस्तीन दो आजाद देश होने चाहिए. फिलिस्तीन के स्वतंत्र अस्तित्व के बगैर इस तरह का समझौता नहीं हो सकता था।

ट्रंप ने अभियान के दौरान कई बयान दिए और कहा कि वह चाहते हैं कि गाजा युद्ध खत्म हो। नेतन्याहू के साथ उनके जटिल और कभी-कभी खराब संबंध रहे हैं, लेकिन निश्चित रूप से ट्रंप में उन पर दबाव बनाने की क्षमता है।

उनका हमास के साथ संपर्क रखने वाले प्रमुख अरब देशों के नेताओं के साथ मजबूत संबंधों का इतिहास भी है। यह साफ नहीं है कि वह युद्ध को खत्म करने की कोशिश के साथ-साथ इजरायली नेतृत्व के लिए मजबूत समर्थन दिखाने की अपनी इच्छा के बीच कैसे आगे बढ़ेंगे।

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