तालिबान की वापसी पर झूमने वाला पाकिस्तान, आज भुगत रहा करनी का फल, दो पुराने यारों के बीच कहां बिगड़ी बात?
Pakistan Taliban Conflict: पाकिस्तान को लगा था कि तालिबान के अफगानिस्तान में आने से उसे एक नया साथी और एक नया मजबूत पड़ोस मिल जाएगा, जो भारत के खिलाफ उसकी मंशा को कामयाब करने काफी मददगार साबित होगा, अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी को भारत और अमेरिका का समर्थक बताया जाता था
Pakistan Taliban: कभी तालिबान की वापसी पर खुशी से झूम उठा था पाकिस्तान, आज अफगानिस्तान सीमा पर लड़ रहे दो पुराने यार, कहां बिगड़ी बात?
जब अगस्त 2021 में तालिबान ने काबुल पर कब्जा कर लिया, तो पाकिस्तान के आंतरिक मंत्री शेख रशीद अहमद ने अफगानिस्तान के साथ लगने वाले तोरखम बॉर्डर पर एक विकट्री प्रेस कॉन्फ्रेंस की और तालिबान सरकार को मान्यता देने की बात कही। उन्होंने दावा किया कि तालिबान के तेजी से सत्ता में आने से "एक नया ब्लॉक" बनेगा। उस समय पाकिस्तान के प्रधान मंत्री इमरान खान ने कहा था कि अफगानिस्तान के लोगों ने गुलामी की जंजीर को तोड़ दिया है।
पाकिस्तान को लगा था कि तालिबान के अफगानिस्तान में आने से उसे एक नया साथी और एक नया मजबूत पड़ोसी मिल जाएगा, जो भारत के खिलाफ उसकी मंशा को कामयाब करने में काफी मददगार साबित होगा, क्योंकि अफगानिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति अशरफ गनी को भारत और अमेरिका का समर्थक बताया जाता था।
हालांकि, 3-4 सालों में ही पाकिस्तान की खुशफहमी का ये गुब्बारा भी फूट गया और आज हालात ये हैं कि पाकिस्तान अफगानिस्तान के भीतर घुस कर एयर स्ट्राइक कर रहा है और तालिबानी पाकिस्तान में घुस कर मार काट मचा रहे हैं।
इस आपसी संघर्ष की जड़ तक पहुंचने से पहले हमें ये जानना होगा कि पाकिस्तान और तालिबान के बीच के संबंध कितने गहरे थे और तभी आपके सामने आज की तस्वीर और भी अच्छे से साफ हो पाएगी।
पाकिस्तान में तालिबान की पैठ
लगभग 20 सालों तक, अफगान तालिबान ने सत्ता में आने के लिए लगातार विद्रोह किया, जिसे अफगानिस्तान में 40 से ज्यादा देशों के गठबंधन का सामना करना पड़ा, जिसका नेतृत्व अमेरिका कर रहा था।
इस दौरान तालिबान नेताओं और लड़ाकों को अफगानिस्तान की सीमा से लगे इलाकों में पाकिस्तान के भीतर शरण मिल गई। तालिबान नेताओं ने पाकिस्तान के प्रमुख शहरों जैसे क्वेटा, पेशावर और बाद में कराची में भी अपनी मौजूदगी दर्ज की और उनके साथ संबंध बनाए।
कई तालिबान नेता और कई लड़ाके पाकिस्तानी इस्लामिक धार्मिक स्कूलों से ही पढ़े हैं, जिनमें दारुल उलूम हक्कानिया भी शामिल है, जहां कथित तौर पर तालिबान आंदोलन के जनक मुल्ला मुहम्मद उमर ने पढ़ाई की थी।
पाकिस्तान में, तालिबान को पाकिस्तानी समाज के सभी वर्गों में आपसी संबंधों को बढ़ावा देने वाला एक इकोसिस्टम मिला, जिसकी मदद से गुट को फिर से तैयार करने का मौका मिला। इसी की मदद से 2003 के आसपास एक घातक विद्रोह भी शुरू हुआ। ऐसा माना जाता है कि अगर पाकिस्तान की मदद न मिलती, तो तालिबान फिर से खड़ा नहीं हो पाता।
तालिबान की अफगानिस्तान में वापसी
अफगानिस्तान का पाकिस्तान के साथ एक जटिल इतिहास रहा है। 2021 में पाकिस्तान ने काबुल में तालिबान की जीत पर खुशी मनाई और उम्मीद जताई कि उसे एक अच्छा सहयोगी मिल गया। हालांकि, तालिबान सरकार पाकिस्तान की उम्मीदों पर खरी नहीं उतर पा रही है।
तालिबान नेता अब खुद को एक लड़ाकू गुट से एक सरकार में बदलना चाहते हैं। इसके लिए उन्हें लोकल सपोर्ट, अपने दूसरे संगठनों और अफगान की जनता का भरपूर समर्थन चाहिए।
इस पूरी लड़ाई का एक अहम केंद्र है तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (TTP)... आगे बढ़ने से पहले जानते हैं कि ये तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान यानी TTP क्या है? TTP एक खूंखार आतंकी संगठन है, जो चाहता है कि अफगानिस्तान की तरह ही पाकिस्तान में भी शरिया कानून लागू होना चाहिए। TTP की विचारधारी काफी हद तक अफगान तालिबान से मिलती-जुलती है।
तालिबान के अफगानिस्तान की सत्ता में आने के बाद पाकिस्तान को उम्मीद थी कि उसे अब TTP को रोकने में मदद मिलेगी, जबकि हुआ इसका उलट क्योंकि पिछले कुछ सालों में TTP और भी ताकतवार हुआ है और वो लगातार पाकिस्तान में हमले कर रहा है।
पाकिस्तान की पूर्व प्रधानमंत्री बेनजरी भुट्टों की हत्या में भी TTP का नाम सामने आया था। इसके अलावा 2014 में नोबेल शांति पुरस्कार विजेता मलाला युसुफजाई पर हुआ हमला और दिसंबर 2014 में पेशावर में आर्मी पब्लिक स्कूल पर हुआ हमला भी TTP ने ही कराया था, जिसमें करीब 132 बच्चों और स्कूल के 9 कर्मचारियों की मौत हुई थी।
विशेषज्ञों का कहना है कि तालिबान ने कभी अपने मिलिटेंट सहयोगियों (अलकायदा) को पीठ नहीं दिखाई है, खास तौर पर जब वो TTP जैसे करीबी हों, तब तो बिल्कुल भी नहीं।
उनका कहना है, "अफगान तालिबान और पाकिस्तान तालिबान पहले से एक दूसरे का सहयोग करते आए हैं। पाकिस्तान ये भी चाहता है कि काबुल के साथ उसके संबंध अच्छे हों, लेकिन ये हमले भी मजबूरी बन जाते हैं, क्योंकि तालिबान सरकार, पाकिस्तान तालिबान के खिलाफ कदम नहीं उठा रही है। एक तरह से ये कहना गलत नहीं है कि पाकिस्तान की अफगानिस्तान नीति नाकाम हो गई।"
सीमा विवाद भी एक बड़ा कारण
पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच चल रही इस लड़ाई में एक बड़ा कारण सीमा विवाद भी है। दोनों देशों के बीच के इंटरनेशनल बॉर्डर को डूरंड लाइन कहा जाता है, जो करीब 2640 किलोमीटर लंबी है। इस सीमा को अफगानिस्तान नहीं मानता है।
डूरंड लाइन को इंटरनेशनल लेवल पर दोनों देशों के बीच की सीमा के रूप में मान्यता हासिल है। पाकिस्तान ने इस पर लगभग पूरी तरह से फेंसिंग की हुई है। हालांकि, अफगानिस्तान में डूरंड लाइन एक इमोशनल मुद्दा बन गया है, क्योंकि इसके दोनों ही ओर पश्तून रहते हैं, जो इस फेंसिंग को दीवार की तरह मानते हैं।
अंग्रेजों ने उत्तर-पश्चिमी हिस्सों पर नियंत्रण मजबूत करने के लिए 1893 ये सीमा तय की थी। ये समझौता काबुल में ब्रिटिश इंडिया के तत्कालीन विदेश सचिव सर मॉर्टिमर डूरंड और अमीर अब्दुर रहमान खान के बीच हुआ था, लेकिन अफगानिस्तान की किसी भी सरकार ने डूरंड लाइन को मान्यता नहीं दी। तालिबान का मानना है कि डूरंड लाइन के उस तरफ यानी पाकिस्तानी इलाके में जहां पश्तून रहते हैं, वो इलाका भी अफगानिस्तान का ही है।
फिलहाल दोनों ही तरफ से शांति का कोई संकेत नहीं दिख रहा है और अगर लड़ाई जारी रही, तो इलाके में तनाव बढ़ना संभव है।