Jitiya Vrat 2025: 13 सितंबर को नहाय खाय से शुरू होगा व्रत, यहां पढ़ें जिउतिया व्रत की कथा

Jitiya Vrat 2025: इस व्रत को हिंदू धर्म के सबसे कठिन व्रतों में से एक माना जाता है। इसकी शुरुआत आश्विन मान की सप्तिमी तिथि को नहाय खाय से होती है और मुख्य व्रत अष्टमी को किया जाता है। इस व्रत में एक कथा भी कही जाती है, जिसके बारे में यहां बता रहे हैं

अपडेटेड Sep 10, 2025 पर 8:32 PM
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जीतिया व्रत आश्विन मास की सप्तमी तिथि को नहाय खाय से शुरू होता है।

Jitiya Vrat 2025: इसे जिवितपुत्रिका और जिउतिया व्रत के नाम से भी जाना जाता है। ये व्रत महिलाएं अपनी संतान की अच्छी सेहत और सुख-समृद्धि के लिए करती हैं। साथ ही, इसे संतान प्राप्ति की कामना से किया जाने वाला व्रत भी कहते हैं। ये व्रत हिंदू धर्म के प्रमुख उपवास में से एक है और इसे विभिन्न कठिन व्रतों में से भी एक माना जाता है। इसे आश्विन मास की कृष्ण पक्ष में किया जाता है और इसकी शुरुआत सप्तमी तिथि को नहाय खाय के साथ होती है। मुख्य व्रत आश्विन मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को किया जाता है।

ये व्रत सप्तमी तिथि से शुरू होता है और नवमी तिथि को मातृ नवमी की पूजा के बाद इसका पारण होता है। इस तरह इसमें महिलाएं 36 घंटे का निर्जला उपवास करती हैं। इस साल जितिया व्रत 14 सितंबर को किया जाएगा, जबकि नहाय खाय 13 सितंबर को किया जाएगा। 15 सितंबर की सुबह इस व्रत का पारण होगा। इस व्रत में जिउतिया के धागे का बहुत महत्व होता है। व्रत करने वाली महिलाएं ये धागा पहनती हैं। माना जाता है यह धागा संतान पर आने वाले संकट को टाल देता है। एक तरह से इसे रक्षा सूत्र कहा जाता है।

कब रखा जा एगा व्रत

इस साल अष्टमी तिथि 14 सितंबर सुबह 8.41 बजे से शुरू होकर 15 सितंबर सोमवार सुबह 6.27 बजे तक रहेगी। इसलिए व्रती महिलाएं 14 सितंबर को निर्जला उपवास करेंगी और अगले दिन 15 सितंबर को सुबह 6:27 बजे के बाद व्रत का पारण करेंगी।

जितिया व्रत की कथा

धार्मिक कथाओं के अनुसार, एक विशाल पाकड़ के पेड़ पर एक चील रहती थी। उस पेड़ के नीचे एक सियारिन भी रहती थी। दोनों पक्की सहेलियां थी। दोनों ने कुछ महिलाओं को देखकर जितिया व्रत करने का संकल्प लिया और भगवान जीमूतवाहन पूजा करने का प्रण किया। लेकिन जिस दिन दोनों को व्रत रखना था, उसी दिन शहर के एक बड़े व्यापारी का निधन हो गया और उसके दाह संस्कार में सियारिन को भूख लगने लगी थी। खाना देखकर वह खुद को रोक न सकी और उसका व्रत टूट गया। पर चील ने संयम रखा और नियमपूर्वक व्रत करने के बाद अगले दिन व्रत का पारण किया। अगले जन्म में दोनों सहेलियों ने एक ब्राह्मण परिवार में पुत्री के रूप में जन्म लिया। उनके पिता का नाम भास्कर था। चील बड़ी बहन बनी और सियारिन ने छोटी बहन के रूप में जन्म लिया। चील का नाम शीलवती रखा गया। शीलवती की शादी बुद्धिसेन के साथ हुई, जबकि सियारिन का जन्म कपुरावती रखा गया और उसका विवाह उस नगर के राजा मलयकेतु के साथ हुआ।


भगवान जीमूतवाहन के आशीर्वाद से शीलवती के सात बेटे हुए। पर कपुरावती के सभी बच्चे जन्म लेते ही मर जाते थे। कुछ समय बाद शीलवती के सातों पुत्र बड़े हो गए और सभी राजा के दरबार में काम करने लगे। उन्हें देखकर कपुरावती को जलन होती थी, उसने राजा से कहकर सभी बेटों के सर कटवा दिए। उन्हें सात नए बर्तन मंगवाकर उसमें रख दिए और लाल कपड़े से ढककर शीलवती के पास भिजवा दिए। यह देखकर भगवान जीमूतवाहन ने मिट्टी से सातों भाइयों के सिर बनाए और सभी के सिरों को उसके धड़ से जोड़कर उन पर अमृत छिड़क दिया। इससे उनमें जान आ गई। सातों युवक जिंदा होकर घर लौट आए, जो कटे सिर रानी ने भेजे थे वह फल बन गए।

दूसरी ओर रानी कपुरावती, बुद्धिसेन के घर से समाचार पाने को व्याकुल थी। जब काफी देर तक सूचना नहीं आई तो कपुरावती खुद बड़ी बहन के घर गई। वहां सबको जिंदा देखकर वह सन्न रह गई। उसने सारी बात अपनी बहन को बताई। कपुरावती को अपने किए पर पछतावा हुआ, भगवान जीमूतवाहन की कृपा से शीलवती को पिछले जन्म की बातें याद आ गईं। वह कपुरावती को उसी पाकड़ के पेड़ के पास ले गई और उसे सारी बात बताई। कपुरावती बेहोश हो गई और मर गई। जब राजा को इसकी खबर मिली तो उन्होंने उसी जगह पाकड़ के पेड़ के नीचे कपुरावती का दाह-संस्कार किया।

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First Published: Sep 10, 2025 8:32 PM

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