Bihar Polls: 10 साल में 6 CM बदलकर बिहार की सत्ता से बाहर हुई थी कांग्रेस, ब्राह्मण थे आखिरी सीएम, अब कर रही OBC पॉलिटिक्स, लेकिन वर्तमान चेहरा भूमिहार
Bihar Election 2025: आज के वक्त में बिहार में कांग्रेस की स्थिति को देखकर किसी भी व्यक्ति को ताज्जुब हो सकता है कि 1985 के विधानसभा चुनाव में पार्टी ने अकेले 196 सीटों पर जीत हासिल की थी। तब झारखंड भी बिहार का हिस्सा था। लेकिन आज कांग्रेस की इमेज RJD की 'पिछलग्गू पार्टी' की बनकर रह गई है
Bihar Election 2025: बिहार में इस साल के आखिरी में विधानसभा चुनाव होना है
Bihar Election 2025: जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी (JNU) छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष और कांग्रेस नेता कन्हैया कुमार बिहार में पदयात्रा कर रहे हैं। पदयात्रा का नाम रखा गया है 'पलायन रोको-नौकरी दो'। इस यात्रा को कांग्रेस लीडरशिप का पूरा सपोर्ट मिल रहा है। खुद राहुल गांधी इसमें शामिल भी हो चुके हैं। इसे कांग्रेस की तरफ से कन्हैया कुमार को बिहार में 'चेहरा बनाए' जाने के रूप में भी देखा जा रहा है। हालांकि, इसकी कोई आधिकारिक घोषणा नहीं हुई है। लेकिन पोस्टर्स में राहुल गांधी के साथ कन्हैया दिख रहे हैं। पोस्टर्स में लिखा है- 'बदलाव का आगाज...'।
इस यात्रा को कांग्रेस की तरफ से खोए हुए जनाधार को पाने की कोशिश माना जा रहा है। लेकिन बेहद कम लोगों को यह मालूम होगा कि बिहार में कांग्रेस ने अपना जनाधार खोया कैसे? ऐसा क्यों हुआ कि 1990 के बाद कांग्रेस कभी अपने दम पर राज्य की सत्ता में नहीं आ सकी? पार्टी की इमेज राष्ट्रीय जनता दल (RJD) की 'पिछलग्गू पार्टी' की बनकर रह गई।
कभी बिहार में जीती थी 196 सीटें
आज के वक्त में बिहार में कांग्रेस की स्थिति को देखकर किसी भी व्यक्ति को ताज्जुब हो सकता है कि 1985 के विधानसभा चुनाव में पार्टी ने अकेले 196 सीटों पर जीत हासिल की थी। हालांकि तब बिहार और झारखंड एक ही राज्य हुआ करते थे। राज्य में कुल 324 सीटें थीं और बहुमत 163 सीटों पर हासिल होता था। लेकिन यह आखिरी चुनाव जब बिहार में कांग्रेस ने 3 अंकों का आंकड़ा हासिल किया था। इसके बाद कभी कांग्रेस बिहार में पुरानी ताकत नहीं हासिल कर सकी। बिहार में कांग्रेस के इन हालात के लिए लीडरशिप क्राइसिस एक बड़ा मुद्दा था। जिसका खामियाजा पार्टी आज तक भुगत रही है।
कब शुरू हुई लीडरशिप क्राइसिस?
कांग्रेस की इस लीडरशिप क्राइसिस की शुरुआत इंदिरा गांधी के जीवित रहते शुरू हो गई थी। उनके निधन के बाद यह और गंभीर होती चली गई। 1980 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने राज्य की 169 सीटों पर जीत हासिल की थी। जगन्नाथ मिश्रा राज्य के मुख्यमंत्री बनाए गए। मिश्रा का यह मुख्यमंत्री के रूप में दूसरा कार्यकाल था। इससे पहले भी वह मुख्यमंत्री रह चुके थे।
बिहार की राजनीति में डॉक्टर साहेब के नाम से अपनी पहचान रखने वाले जगन्नाथ मिश्रा की सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे। कांग्रेस के भीतर भी आंतरिक असंतोष बढ़ रहा था। केंद्र में इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार पर भी दबाव था कि राज्य में नेतृत्व परिवर्तन किया जाए। इन सब कारणों के चलते मिश्रा पर पद छोड़ने का दबाव बढ़ गया।
जगन्नाथ मिश्रा के इस्तीफे से शुरू हुआ 'बुरा दौर'
1983 में मिश्रा ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया और राज्य के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर सिंह बनाए गए। इसके बाद बिहार में कांग्रेस की लीडरशिप में अस्थिरता का जो दौर शुरू हुआ वह 1990 में सत्ता गंवाकर ही रुका। जगन्नाथ मिश्रा का कार्यकाल 3 साल 67 दिन का था। चंद्रशेखर सिंह करीब एक साल 7 महीने तक मुख्यमंत्री रहे। 1985 में राज्य में विधानसभा चुनाव एक बार फिर हुए। ये चुनाव इंदिरा की मौत के बाद हुए थे।
इस चुनाव में कांग्रेस ने प्रचंड जीत हासिल की। लेकिन राज्य के मुख्यमंत्री के रूप में अब बिंदेश्वरी दुबे थे। हालांकि करीब तीन साल बाद 1988 में दुबे को अपना पद छोड़ना पड़ा। इसके पीछे मुख्य कारण उनकी सरकार के खिलाफ बढ़ता असंतोष और कांग्रेस पार्टी के भीतर आंतरिक दबाव था। केंद्र में राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार भी 1989 के लोकसभा चुनावों से पहले बिहार में अपनी साख बचाने की कोशिश में थी।
दुबे के बाद राज्य के मुख्यमंत्री भगवत झा आजाद बनाए गए। लेकिन उन्हें भी 10 मार्च 1989 को बिहार के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा था। इसके पीछे मुख्य कारण उनकी सरकार का अल्पमत में आ जाना और कांग्रेस पार्टी के भीतर बढ़ती गुटबाजी थी। इसके बाद सत्येंद्र नारायण सिन्हा मुख्यमंत्री बने जो अपने पद पर महज 270 दिनों तक ही रहे। उन्हें भी इस्तीफा देना पड़ा।
1989 में जगन्नाथ मिश्रा को फिर मिली जिम्मेदारी
और फिर कहानी 1989 में वहीं पहुंच गई जहां से यह सबकुछ शुरू हुआ था। नवंबर 1989 में हुए लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को केंद्र में हार का सामना करना पड़ा, और राजीव गांधी की सरकार सत्ता से बाहर हो गई थी। अंत में 1990 के विधानसभा चुनाव से ठीक चार महीने पहले एक बार फिर राज्य की जिम्मेदारी जगन्नाथ मिश्रा के हाथों में सौंपी गई। मिश्रा ही राज्य में कांग्रेस के आखिरी मुख्यमंत्री साबित हुए।
1990 के विधानसभा चुनाव में जबदस्त समाजवादी लहर में लालू यादव राज्य के मुख्यमंत्री बने जिन्होंने आगे करीब डेढ़ दशक तक सत्ता की चाबी अपने पास रखी। 1990 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को महज 71 सीटें हासिल हुई थीं और फिर पार्टी इस आंकड़े को भी नहीं छू सकी। 1990 के दशक में ही कांग्रेस ने बीजेपी विरोधी राजनीति की मुहिम में RJD को रणनीतिक समर्थन दिया था। बाद में जब यूपीए के झंडे तले कांग्रेस और RJD साथ आए।
खोई हुई जमीन वापस पाने की कोशिश
बीते करीब साढ़े तीन दशक के दौरान राज्य में कांग्रेस लीडरशिप क्राइसिस से लगातार जूझती रही है। अब माना जा रहा है कि कन्हैया कुमार के जरिए कांग्रेस एक बार अपना पुराना गौरव वापस पाने की तलाश में है। लेकिन यह भी सच है कि अगर कांग्रेस राज्य में ज्यादा ताकत दिखाती है तो RJD के साथ भी उसके संबंधों पर असर पड़ सकता है।
लालू यादव या फिर तेजस्वी यादव यह जरूर चाहेंगे कि बिहार की राजनीति में उनका 'अपर-हैंड' बना रहे। RJD और कांग्रेस के सबंधों पर असर का एक और कारण यह भी हो सकता है कि राहुल गांधी भी लोकसभा चुनाव के बाद OBC वोटबैंक पर लगातार जोर रहे हैं।
यह वोटबैंक UPA के खेमे में मुख्य रूप से RJD का वोटर रहा है। देखना होगा कि राज्य में अपनी जमीन तलाश रही कांग्रेस क्या रणनीति अपनाती है। हालांकि, जिन कन्हैया कुमार को 'चेहरे' के रूप में देखा जा रहा है, वह भूमिहार समाज से ताल्लुक रखते हैं।