इस बार के बजट की परीक्षा इस बात से होनी है कि उसमें किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिए क्या उपाय किये गये
कहते हैं, जिस तरफ सूरज होता है, सूरजमुखी के फूल भी उसी तरफ होते हैं। इसी तर्ज पर कह सकते हैं कि इस बार के बजट को चुनावमुखी होना है। मतलब, केंद्रीय बजट में ऐसा लोक-लुभावन बहुत कुछ होना है, जिसे इस साल अप्रैल के पहले पांच राज्यों में होने जा रहे विधानसभा के चुनावों में भुनाया जा सके।
अगर कोविड की तीसरी लहर के मद्देनजर चुनाव आयोग ने कोई अप्रत्याशित फैसला ना लिया तो फिर माना जा सकता है कि अप्रैल की शुरुआत तक देश के पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव समाप्त हो जायेंगे। ये चुनाव जिन पांच राज्यों (गोवा, मणिपुर, पंजाब, उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड) में होने वाले हैं उनमें सिर्फ एक (पंजाब) को छोड़कर बाकी सबही में केंद्र में कायम सत्ताधारी गठबंधन के अगुआ दल बीजेपी या फिर उसके समर्थन वाले दल की सरकार है।
फिर इन राज्यों में वह उत्तरप्रदेश भी शामिल है, जहां मिली सीटों के दम पर देश की संसद में बीजेपी की बहुमत का सिक्का जमा हुआ है । यों चुनावों की तिथि घोषित नहीं हुई है फिर भी ये बात तो तय है कि बजट को इन पांच प्रदेशों में होने वाले चुनावों के पहले(1ली फरवरी) पेश होना है। ऐसे में, सरकार जरुर चाहेगी कि बजट से उसकी छवि कुछ ऐसी बने कि पांच राज्यों के विधानसभाई चुनावों में वह कह सके — `हम सबका विकास कर रहे हैं और इसी नाते अपने वोटों की झोली में सबका साथ चाहते हैं।`
वोटों की झोली और किसानों का साथः बरास्ते यूपी
`सबका विकास कर रहे हैं, इस नाते वोटों की झोली में सबका साथ चाहते हैं` — केंद्र में सत्ताधारी दल गठबंधन के अगुआ दल(बीजेपी) के लिए ऐसा कह पाना और लोगों को यकीन दिला पाना आसान नहीं। इसकी एक बड़ी वजह है साल भर से ज्यादा वक्त तक चला किसान-आंदोलन।
जिन तीन कृषि-कानूनों का उपहार केंद्र सरकार किसानों की झोली में सौंपना चाहती थी, वे कानून आंदोलन के जोर से अब निरस्त हो चुके हैं। आंदोलनकारी किसान फिर से अपने खेतों में लौट गये हैं लेकिन आंदोलन का एक प्रमुख सवाल कि किसानों को उनकी उपज का लाभकर मूल्य मिले— अब भी व्यावहारिक समाधान के लिए सामने पड़ा हुआ है। तो, पांच राज्यों में होने जा रहे विधानसभा चुनाव के नतीजों को प्रभावित करने के लिहाज से सोचें तो इस बार के बजट में केंद्र सरकार को किसानों की आमदनी बढ़ाने के एतबार से कुछ ऐसा जरुर करना होगा कि मुख्यधारा की मीडिया में उसकी डुगडुगी पिटी जा सके- दुहाइयां दी जा सकें कि `हमारी सरकार किसान-हितैषी` सरकार है.
अभी की स्थिति में केंद्र सरकार के लिए ऐसा कह पाना मुश्किल है। यों कहने में क्या है, यूपी में हो रहे चुनाव-प्रचार में कहा ही जा रहा है कि योगी सरकार के आने के बाद से किसानों की हालत में फर्क साफ नजर आ रहा है, खासकर गन्ना-किसानों की स्थिति में। लेकिन, किसान-आंदोलन में उठे सवालों के आईने में देखें और यह याद करते हुए देखें कि किसान-आंदोलन का एक गढ़ पश्चिमी उत्तरप्रदेश रहा तो दरअसल खेती-किसानी से जुड़े लोगों को ये यकीन दिला पाने में `डबल इंजीन की सरकार` को खासी कठिनाई आएगी कि सूबे के किसान पिछली सरकारों में बहुत दुखी थे लेकिन मौजूदा सरकार में बड़े खुशहाल हो गये हैं।
यूपी खेतिहरों लोगों का सूबा है जहां 47 फीसद आबादी की जीविका सीधे-सीधे खेती-किसानी से जुड़ी है। देश के खेतिहर परिवारों की दशा बताने वाले सिचुएशन असेसमेंट ऑफ एग्रीकल्चरल हाऊसहोल्डस् की पिछली(2012-13) रिपोर्ट के मुताबिक यूपी में खेती-किसानी वाले परिवार 1 करोड़ 80 लाख की तादाद में हैं जो कि देश के कुल खेतिहर परिवारों की तादाद का पंचमांश यानी 20 प्रतिशत है। यों राज्य के सकल घरेलू उत्पाद (जीएडीपी) में कृषि क्षेत्र का हिस्सा घटकर 12 प्रतिशत रह गया है फिर भी लोगों को रोजगार(कम आमदनी के) देने और देश के अन्न-भंडार में योगदान के मामले में अब भी सूबे में खेती-किसानी की अहमियत बरकरार है। देश के कुल गेहूं उत्पादन का लगभग एक चौथाई(28 प्रतिशत), चावल-उत्पादन का 12 प्रतिशत और गन्ना-उत्पादन का लगभग आधा (44 प्रतिशत) अकेले यूपी से आता है।
लेकिन रोजगार और अन्न-भंडार के मामले में ऐसी अहमियत के बावजूद सूबे में कृषि की वृद्धि राष्ट्रीय औसत से कम रही है। साल 2005-06 से 2018-19 के बीच सूबे में कृषि वृद्धि दर सालाना 3 प्रतिशत की रही जबकि राष्ट्रीय औसत 3.6 प्रतिशत का रहा है। अगर एनएसएस की पिछली रिपोर्ट (2012–13) को ही आधार मानें तो यूपी में खेतिहर परिवारों की मासिक औसत आमदनी पांच हजार रुपये से भी कम(4923 रुपये) थी यानी खेतिहर परिवारों की मासिक आमदनी के मामले में यूपी सूची में सर्वाधिक कम आमदनी वाले राज्य बिहार, झारखंड, उत्तराखंड और पश्चिम बंगाल के साथ नीचे से पांचवीं पायदान पर रहा।
अगर नाबार्ड की 2018 में प्रकाशित फायनेन्शियल इन्क्लूजन सर्वे को आधार मानें तो नजर आयेगा कि किसानों की आमदनी के मामले में यूपी सर्वाधिक पिछड़े राज्यों में एक है। नाबार्ड की इस रिपोर्ट के मुताबिक साल 2015-16 में राष्ट्रीय स्तर पर किसान-परिवारों की आमदनी 8931रुपये थी जबकि यूपी के किसान परिवारों की औसत मासिक आमदनी इससे एक चौथाई कम यानी 6668 रुपये थी.
खेती-किसानी और बजट
यूपी की खेती-किसानी की दशा को हम देश के खेतिहर परिवारों की दशा का एक प्रतिनिधि उदाहरण मानकर चल सकते हैं। हाल के सिचुएशन असेसमेंट सर्वे रिपोर्ट (एनएसएस की 77 वें दौर की गणना पर आधारित) को आधार मानकर देखें तो तीन बातें स्पष्ट नजर आती हैः एक तो ये कि बीते एक दशक(2012-13 से 2018-19) में खेती में लागत खर्च बढ़ा है और खेती करना पहले की तुलना में महंगा हुआ है। दूसरे ये कि बढ़ी हुई लागत का असर किसानों पर कायम कर्जदारी पर हुआ है, किसानों पर कर्ज भी पहले की तुलना में बढ़ गया है। और, तीसरी बात कि सरकार ने भले अपनी तरफ से खूब कोशिश की हो लेकिन वह अपने वादे को पूरा नहीं कर पायी— यह साल(2022) किसानों की आमदनी दोगुना करने का साल है, मगर ये वादा पूरा नहीं हो पाया।
नेशनल सैंपल सर्वे की नवीनतम रिपोर्ट(77 वें दौर की गणना पर आधारित सिचुएशन असेसमेंट सर्वे) के आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि खेतिहर उत्पादन से जुड़े हरेक परिवार का फसल-उत्पादन पर औसत मासिक खर्च छह सालों( 2012-13 और 2018-19) में लगभग 35 प्रतिशत बढ़ गया है। इसके उलट, फसल-उत्पादन में लगे किसान-परिवारों की औसत मासिक प्राप्ति में केवल 25.59 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो फसल-उत्पादन में लगे हर किसान परिवार की उपज पर जो लागत आयी और उपज को बेचने से जो रकम हासिल हुई उसका अन्तर यानी फसल उपजाने वाले परिवार की शुद्ध आमदनी फसल वर्ष 2012-13 और 2018-19 के बीच 3,350 रुपये से बढ़कर 4,001 रुपये हुई।
यह कुल 19.4 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी है और यह बढ़ोत्तरी इन छह सालों में हुई औसत मुद्रास्फीति की बढ़ोत्तरी की तुलना में कम है। यहां याद रहे कि छह सालों में मुद्रा-स्फीति में 30 प्रतिशत से ज्यादा का इजाफा हुआ। (उपभोक्ता मूल्य सूचकांक-संयुक्त के लिहाज से बढ़त 34.0 प्रतिशत की रही जबकि औसत मूल्य सूचकांक--ग्रामीण के लिहाज से देखें तो मुद्रास्फीति में छह सालों में 35.3 फीसद की बढोत्तरी हुई)।
जाहिर है, आमदनी अठन्नी-खर्चा रुपैया का ये जो हिसाब सरकारी रिपोर्ट में दिख रहा है उसकी बड़ी वजह है खाद, बीज, कीटनाशक, कृषि-उपकरण, सिंचाई, मजदूरी आदि मदों में आनेवाली लागत में बढ़ोत्तरी और किसान कहते हैं कि ऐसा कृषि के मद में दी जाने वाली सरकारी सहायता में हुई कटौती के कारण हुआ है।
बढ़े हुए खर्चे के हिसाब से देखें तो बीते छह सालों यानि 2013 से 2019 के बीच देश में खेती-किसानी करने वाले परिवारों पर औसत कर्जा 50 प्रतिशत से ज्यादा (कुल 57.7 प्रतिशत) बढ़ा है। नेशनल सैम्पल सर्वे के 70 वें दौर की गणना पर आधारित छह साल पुरानी रिपोर्ट से पता चला था कि देश के किसान-परिवारों पर 2013 में औसतन 47000 रुपये का कर्जा था. नई रिपोर्ट (एनएसएस के 77 वें दौर की गणना पर आधारित) बताती है कि कर्ज की यह औसत रकम 2019 में बढ़कर 74,121 रुपये हो गई है।
मतलब, किसान-परिवार अगर अपने ऊपर चढ़े कर्जे की रकम प्रधानमंत्री किसान-सम्मान निधि योजना के मार्फत मिलने वाली सहायता राशि के सहारे चुकाना चाहें तो उन्हें कर्जा (74,121 रुपये का) चुकता करने में लगभग 12 साल लग जायेंगे। किसान सम्मान-निधि के तहत किसान परिवारों को सालाना 6,000 रुपये दिये जाते हैं।
सो, इस बार के बजट में वित्तमंत्री निर्मला सीतारम के सामने बड़ी चुनौती किसानों में मौजूदा सरकार को लेकर बनी नकारात्मक छवि सुधारने की होगी, केंद्रीय सत्ता में काबिज रहने के लिए यूपी सहित अन्य राज्यों में होने वाले चुनाव के मद्देनजर यह चुनौती और भी संगीन हो जाती है। सो, इस बार के बजट की परीक्षा इस बात से होनी है कि उसमें किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिए क्या उपाय किये गये।