हिंदी चीनी भाई-भाई के नारे से लेकर सीमा विवाद तक कैसे पहुंचे भारत चीन के रिश्ते, दोनों देशों के लिए क्यों अहम है तवांग, 1962 युद्ध के बाद कब-कब बदली तस्वीर
यह नारा चीन (China) और भारत (India) के शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के पांच सिद्धांतों के निष्कर्ष के बाद दिया गया था। इसके तहत भारत ने तिब्बत (Tibet) में चीन के शासन को स्वीकार कर लिया था
आपको वो नारा याद है- 'हिंदी चीनी भाई भाई'? 1954 में दिवंगत प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू ( Jawaharlal Nehru) ने इस नारे का समर्थन किया था। यह नारा चीन (China) और भारत (India) के शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के पांच सिद्धांतों के निष्कर्ष के बाद दिया गया था। इसके तहत भारत ने तिब्बत (Tibet) में चीन के शासन को स्वीकार कर लिया था।
भारत की स्वतंत्रता और पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (PRC) बनने के बाद, भारत ने अपने पड़ोसी देशों के साथ सौहार्दपूर्ण राजनयिक संबंध बनाए रखे।
इसके बाद भी लगातार कई घटनाएं हुई, लेकिन भारत को सबसे बड़ा झटका तब लगा जब चीन ने 20 अक्टूबर, 1962 को हमला किया। इसे ही 1962 के चीन-भारत युद्ध के नाम से जाना जाता है।
इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट के अनुसार, चीन की तरफ से कभी हमला न करने के विश्वास ने भारतीय सेना को तैयार नहीं होने दिया और नतीजा 10,000-20,000 भारतीय सैनिकों और 80,000 चीनी सैनिकों के बीच गतिरोध जारी था।
लगभग एक महीने तक युद्ध चला और 21 नवंबर को चीन की तरफ से युद्ध विराम की घोषणा के बाद खत्म हो गया। 1962 के युद्ध के बाद जिसने कई चीजों पर भारत का नजरिया बदल दिया।
भारत-चीन सीमा संघर्ष का इतिहास
9 दिसंबर को, भारतीय और चीनी सैनिक अपनी विवादित हिमालयी सीमा पर भिड़ गए थे। लगभग दो सालों में दो देशों के बीच ये पहली घटना बन गई।
भारत के रक्षा मंत्रालय ने एक बयान में कहा कि दोनों पक्षों के सैनिकों को आमने-सामने की लड़ाई में मामूली चोटें आईं। ये लड़ाई शुक्रवार को भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र अरुणाचल प्रदेश के तवांग सेक्टर में हुई। ये एक दूरस्थ, दुर्गम इलाका है, जो दक्षिणी चीन की सीमा में है।
2,100 मील लंबी (3,379 किलोमीटर) विवादित सीमा लंबे समय से नई दिल्ली और बीजिंग के बीच संघर्ष हो रहा है। जून 2020 में तनाव तेजी से बढ़ गया, जब दोनों पक्षों के बीच आमने-सामने की लड़ाई में अक्साई चिन-लद्दाख में कम से कम 20 भारतीय और चार चीनी सैनिकों की मौत हो गई थी।
भारत और चीन के बीच सीमा विवाद आजादी से पहले के हैं। मैकमोहन रेखा 1914 में ब्रिटिश भारत और चीन के बीच सीमाओं को व्यवस्थित करने के लिए एक संधि पर बातचीत करने के प्रयास में ब्रिटेन, तिब्बत और चीन गणराज्य के प्रतिनिधियों द्वारा खींची गई थी। जबकि तिब्बत और ब्रिटिश भारत ने सीमा को स्वीकार किया, चीन ने नहीं किया।
भारत ने 1947 में अंग्रेजों से स्वतंत्रता हासिल की और 1949 में पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (PRC) की स्थापना की गई। मैकमोहन लाइन को नई चीनी सरकार की तरफ से भी अमान्य माना गया।
1950 के दशक में चीन की तरफ से तिब्बत पर कब्जा करने के बाद, चीन ने दावा किया कि यह कभी भी एक स्वतंत्र क्षेत्र नहीं था। जबकि भारत ने हमेशा कहा है कि तिब्बत पर चीन की कोई संप्रभुता नहीं है।
हालांकि, रिपोर्ट्स के मुताबिक, भारत ने चीन के साथ अपने संबंधों में मधुरता बनाए रखी। इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि 1962 से पहले भारत चीन के साथ अपने संबंधों को लेकर इतना चिंतित था कि उसने जापान के साथ शांति संधि के समापन के लिए एक सम्मेलन में भी हिस्सा नहीं लिया, क्योंकि चीन को आमंत्रित नहीं किया गया था।
रिपोर्ट में जिक्र किया गया है कि भारत ने दुनिया से संबंधित मामलों में चीन का प्रतिनिधि बनने का भी प्रयास किया, क्योंकि चीन कई मुद्दों से अलग-थलग पड़ गया था। हालांकि, यह तिब्बत में अपने शासन के लिए भारत के लिए चीन की धारणा थी, जो चीन-भारत युद्ध के पीछे मुख्य कारणों में से एक बन गया।
मार्च 1959 में दलाई लामा के भाग जाने पर भारत में मिले स्वागत से पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना के नेता माओत्से तुंग को अपमानित होना पड़ा। दोनों देशों के बीच तनाव तब बढ़ गया, जब माओ ने दावा किया कि तिब्बत में ल्हासा विद्रोह के लिए भारतीय जिम्मेदार थे।
वास्तविक नियंत्रण रेखा बनने के बाद 1962 का भारत-चीन युद्ध खत्म हो गया। दोनों देशों के बीच एक अनौपचारिक संघर्ष विराम रेखा है। हालांकि, युद्ध हारने के बाद, भारत ने अपनी सेना पर ध्यान देने के साथ अपनी विदेश और सुरक्षा नीति पर पुनर्विचार करना शुरू कर दिया, जिसके कारण रक्षा खर्च में भी बढ़ोतरी हुई।
सितंबर-अक्टूबर 1967 में, भारतीय सैनिकों की तरफ से सीमा पर कांटेदार तार लगाने के बाद नाथू ला और चो ला में दोनों देश फिर से भिड़ गए।
20 फरवरी, 1987 को, भारत ने अरुणाचल प्रदेश को राज्य का दर्जा दिया। इस फैसले चीन काफी चिढ़ गया। इसके चलते सीमा पर झड़पें हुईं। अरुणाचल प्रदेश की स्थापना 1954 में नॉर्थ-ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी (NEFA) के रूप में हुई थी। चीन ने हाल के सालों में तवांग पर अपना दावा किया है।
चीन के लिए क्यों अहम है तवांग?
तवांग गदेन नामग्याल ल्हात्से दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा तिब्बती बौद्ध मठ है। इसकी स्थापना 1680-81 में पांचवें दलाई लामा की इच्छाओं को पूरा करने के लिए की गई थी। चीन का दावा है कि इस मठ से साबित होता है कि ये जिला कभी तिब्बत का था।
राज्य पर अपने दावे का समर्थन करने के लिए, चीन ने तिब्बत में ल्हासा मठ और तवांग मठ के बीच ऐतिहासिक संबंधों का हवाला दिया है। इसके अलावा, जब दलाई लामा 1959 में तिब्बत से भागे, तो उन्होंने तवांग के रास्ते भारत में प्रवेश किया और कुछ समय के लिए मठ में ही रहे।
CNBC-TV18 की एक रिपोर्ट बताती है कि भारत ने बार-बार चीन की सरकार से कहा है कि तवांग भारत का अभिन्न अंग है। 2009 में थाईलैंड में दोनों प्रधानमंत्रियों की मुलाकात की बात को दोहराते हुए।
चीन ने अप्रैल 2017 में दलाई लामा की तवांग यात्रा का कड़ा विरोध किया था। इसने पहले भारत में अमेरिकी राजदूत की यात्रा पर आपत्ति जताई थी। किरेन रिजिजू ने उस रिपोर्ट का दृढ़ता से खंडन किया था, जिसमें कहा गया था कि चीनी सेना ने 2016 में अरुणाचल प्रदेश पर संक्षिप्त आक्रमण किया था।