अपनी आत्मकथा में उन्होंने भारतीय संविधान में निहित सेक्युलरिज्म और अपनी धार्मिकता के बारे में कोई विरोधाभास नहीं पाया था। उनका कहना था- “मेरे विचार से सत्य और तार्किक धर्म में भरोसा सेक्युलरिज्म के साथ गैर सम्मत नहीं है। पश्चिम में सेक्युलरिज्म को जिस तरह से लिया जाता है, वो मूल तौर पर धर्म विरोधी, ईश्वर विरोधी और चर्च विरोधी है। जबकि दूसरी तरफ हमारा संविधान ये साफ तौर पर कहता है कि सेक्युलरिज्म का अर्थ है सभी धर्मों को बर्दाश्त करना। हमारे संविधान में मौलिक अधिकारों में धर्म से जुड़े अधिकार हैं। हमारा संविधान ये भी कहता है कि कुछ लोगों की धर्म में बिल्कुल आस्था नहीं हो सकती, तब भी वो नागरिकता के अधिकारी हैं, और जो धर्म में आस्था रखते हैं, उनके भी नागरिक अधिकारों को कोई हानि नहीं पहुंच सकती। कुछ लोगों को लगता है कि सेक्युलरिज्म का अर्थ होता है धर्म विरोधी होना, लेकिन मेरे हिसाब से ये भारतीय संविधान की सेक्युलरिज्म की व्याख्या के खिलाफ है। आप विधर्मी हो सकते हैं, अधार्मिक हो सकते हैं, धार्मिक हो सकते हैं, फिर भी आप नागरिक हैं, नागरिक के नाते तमाम अधिकार आपके पास हैं और आपको हर किस्म के कर्तव्य का पालन करना है। भारतीय संविधान में धर्म नामक संस्था और भारतीय संस्कारों, जीवन पद्धति को उच्च स्थान दिया गया है, तमाम कवचों के साथ। सेक्युलरिज्म का अर्थ सिर्फ ये है कि किसी एक धर्म की धार्मिक ज्ञान के मामले में बपौती नहीं है। हमारी सेक्युलरिज्म भागवत गीता के सिद्धांतों पर आधारित है, जिसमें कहा गया है – हे कुंतीपुत्र, जो दूसरे भगवानों की भी आराधना करते हैं, पूरे भरोसे के साथ, वो भी एक तरह से मेरी ही उपासना करते हैं, भले ही वो प्राचीन नियमों के खिलाफ हो।”