कांग्रेस (Congress) ने कर्नाटक जीत लिया है। वह अपने दम पर राज्य में सरकार बनाएगी। विधायकों के पाला बदलने, उनकी खरीदफरोख्त की कोशिशें और सरकार गिरने और नई सरकार बनने से कर्नाटक को कम से कम पांच साल के लिए छुटकारा मिल गया है। भाजपा को अपनी गलितयों की कीमत चुकानी पड़ी है। जनता दल एस को इस बार कम सीटें मिली हैं। कांग्रेस को ज्यादा सीटें मिलने से जनता दल एस के लिए मोलभाव करने का मौका खत्म हो गया है। दक्षिण भारत में कर्नाटक इकलौता राज्य था, जहां BJP सत्ता में थी। ऐसा लगता है कि निम्नलिखित 5 वजहों से BJP की कर्नाटक में करारी हार हुई।
पूरे राज्य में पैठ का अभाव
BJP ने भले ही कर्नाटक में सरकार बनाई थी, लेकिन अब भी पूरे राज्य में पार्टी पैठ नहीं बना सकी है। इसके उलट कांग्रेस की मौजूदगी राज्य के हर जिले में है। सिर्फ 2-5 फीसदी वोट बढ़ने से कांग्रेस को भाजपा को हराना काफी आसान हो गया। यही वजह है कि जहां भाजपा को चुनाव प्रचार के लिए अपने सबसे बड़े चेहरे का इस्तेमाल करने पर मजबूर होना पड़ा, जबकि कांग्रेस में राज्य स्तर के नेताओं ने पार्टी का प्रचार करने की जिम्मेदारी संभाली।
शिवकुमार-सिद्धरमैया की एकजुटता
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता डीके शिवकुमार और पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धरमैया ने मिलकर चुनाव अभियान का नेतृत्व किया। उनकी एकजुटता ने कांग्रेस को बड़ी ताकत बना दी। दोनों ने मिलकर भाजपा पर हमले के लिए भ्रष्टाचार के आरोप को अपना बड़ा हथियार बनाया। लोगों तक वे अपनी बात पहुंचाने में सफल रहे। कांग्रेस का वोट शेयर 40 फीसदी से ऊपर निकल गया है। यह पिछले कुछ सालों में कर्नाटक में कांग्रेस का सबसे ज्यादा वोट शेयर है। मांड्या और हासन जैसे वोकलिंगा बहुल इलाकों में भी कांग्रेस के लिए सपोर्ट देखने को मिला। कई दशकों बाद कांग्रेस को कुछ लिंगायत वोट भी मिलने के संकेत है। मुस्लिम वोटरों ने भी भाजपा को हराने के लिए कांग्रेस को अपना समर्थन दिया।
कांग्रेस यह जानती थी कि 2013 से 2018 के दौरान कर्नाटक की जनता ने उसकी अन्न भाग्य स्कीम को बहुत पसंद किया था। उसने न सिर्फ इस संकेत को समझा बल्कि इसी तर्ज पर गारंटी वाली छह योजनाओं का ऐलान कर दिया। इनमें पहली गृह लक्ष्मी स्कीम है। इस योजना के तहत हर परिवार की महिला मुखिया को हर महीने 2000 रुपये सरकार की तरफ से दिए जाएंगे। इसी तरह गृह ज्योति स्कीम के तहत हर परिवार को हर महीने 200 यूनिट्स मुफ्त बिजली मिलेगी। बाकी योजनाएं भी लोगों को आकर्षक लगीं।
भाजपा के वरिष्ठ नेता और लिंगायत समुदाय के प्रतिनिधि बीएस यदियुरप्पा का चुनावी राजनीति से दूर रहने का ऐलान पार्टी के लिए नुकसानदायक साबित हुआ। दरअसल, कर्नाटक में भाजपा पर यदियुरप्पा जैसे कुछ नेताओं का वर्चस्व था। भाजपा और संघ परिवार पार्टी को इन नेताओं की छाया से बाहर निकालना चाहते थे। भाजपा राज्य के हर वर्ग के मतदाताओं के बीच अपनी पैठ बनाना चाहती थी। लेकिन वह इसमें नाकाम रही। भाजपा कभी अपने दम पर कर्नाटक में सरकार नहीं बना सकी है। इसका सबसे अच्छा प्रदर्शन 2008 में था, जब इसने 110 सीटें जीती थी। 2018 में इसने सिर्फ 104 सीटें जीती थी।
सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप
भाजपा की कर्नाटक सरकार पर लगातार भ्रष्टाचार के आरोपों से पार्टी को बहुत नुकसान हुआ। राज्य सरकार और इसके मंत्रियों के पास लोगों को अपनी उपलब्धियों के बारे में बताने के लिए कुछ भी नहीं था। यही वजह है कि भाजपा ने चुनाव प्रचार के लिए अपने केंद्रीय नेतृत्व का इस्तेमाल किया। लेकिन, लोगों पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जादू नहीं चला। गृह मंत्री अमित शाह भी लोगों का भरोसा हासिल करने में नाकाम रहे। बजरंगबली के इस्तेमाल से भी भाजपा को कोई फायदा नहीं मिला। सरकार के कई मंत्री अपनी सीट तक नहीं बचा सके हैं।