जब पूरे भारत में रंगों की बौछार और गुलाल उड़ाने के साथ होली मनाई जाती है, तब झारखंड के संथाल आदिवासी समाज में ये त्योहार एक अनोखे अंदाज में मनाया जाता है। यहां इसे "बाहा पर्व" कहा जाता है, जिसमें रंगों की जगह फूलों और पानी से होली खेली जाती है। इस समुदाय में रंग लगाने की एक खास परंपरा है—अगर किसी युवक ने किसी अविवाहित लड़की पर रंग डाल दिया, तो उसे या तो शादी करनी पड़ती है या फिर भारी जुर्माना भरना पड़ता है। यही कारण है कि संथाल समाज में पुरुष सिर्फ पुरुषों के साथ ही होली खेलते हैं।
बाहा पर्व केवल होली नहीं, बल्कि प्रकृति की पूजा का अवसर भी होता है। इस दिन तीर-धनुष की पूजा की जाती है और साल के फूलों को कान में लगाया जाता है, जो इस समाज की परंपराओं को दर्शाता है।
प्रकृति की पूजा और तीर-धनुष का उत्सव
बाहा पर्व केवल एक त्योहार नहीं, बल्कि प्रकृति की पूजा का भी अवसर है। इस दिन संथाल आदिवासी अपने पारंपरिक हथियार तीर-धनुष की पूजा करते हैं और साल के पत्तों और फूलों को कान में लगाकर इस पर्व को खास बनाते हैं। मान्यता है कि जैसे साल के पत्ते कभी अपना रंग नहीं बदलते, वैसे ही संथाल समाज अपनी परंपराओं को अडिग रूप से निभाता है। ढोल-नगाड़ों की गूंज के साथ पुरुष आपस में पानी से होली खेलते हैं और पूरे गांव में उत्सव का माहौल रहता है।
रंग खेलने के बाद होती है शिकार की परंपरा
संथाल समाज में बाहा पर्व के बाद एक और अनोखी परंपरा निभाई जाती है—शिकार और सामूहिक भोज। कुछ इलाकों में यह रिवाज है कि रंग खेलने के बाद वन्यजीवों का शिकार किया जाता है। जो भी शिकार किया जाता है, उसे पूरे गांव के लोग मिलकर पकाते हैं और सामूहिक भोज का आयोजन किया जाता है। इस परंपरा के पीछे मान्यता है कि ये समाज में एकता बनाए रखने और प्रकृति के प्रति धन्यवाद देने का तरीका है।