लोकसभा के नतीजों के अब तक जो ट्रेंड आए हैं, उसके मुताबिक बीजेपी के लिए नतीजे मिलेजुले हैं। बीजेपी का प्रदर्शन 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों जैसा नहीं है। हालांकि, कुछ राज्यों में इसका प्रदर्शन अच्छा रहा है। पार्टी ने दक्षिण के राज्यों में भी सेंध लगाई है। बीजेपी इससे पहले इससे मुश्किल वक्त का सामना कर चुकी है और इससे निकलने में सफल रही है। स्थिति उतनी खराब नहीं है, जितनी लग रही है। दरअसल, बीजेपी ने खुद अपने लिए इतने ऊंचे मानदंड तय किए हैं, जिससे थोड़ा भी दूर रह जाने पर कई लोग उसे असफलता के रूप में देखते हैं, जो सही नहीं है।
सबसे ज्यादा सीटें हासिल करना बड़ी उपलब्धि
यह बड़ी उपलब्धि से कम नहीं है कि लगातार 10 साल के शसन के बाद भी बीजेपी के सीटों की संख्या दूसरे सबसे बड़ी पार्टी की सीटों के मुकाबले करीब ढाई गुनी है। बीजेपी सरकार बनाने की स्थिति में नजर आ रही है। पार्टी खोई हुई जमीन आसानी से हासिल कर सकती है। लेकिन, इसके लिए पार्टी को अपने संगठन के ढांचे पर ध्यान देना होगा। बीजेपी को बाहर से आए लोगों और अपने कार्यकर्ताओं के बीच संतुलन बैठाना होगा। यह फैक्टर कई सीटों पर पार्टी को नुकसान पहुंचाता दिख रहा है।
संघ के साथ रिश्ते में नहीं आएगा बदलाव
अब एक चर्चा यह चल रही है कि लोकसभा चुनावों के नतीजों के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पार्टी पर पकड़ बढ़ जाएगी। सच्चाई यह है कि संघ और बीजेपी के संबंध में किसी तरह का बदलाव आने नहीं जा रहा है। संघ खुद को पार्टी के रोजाना के कामकाज से दूर रखने की कोशिश करता है। संघ के अगले साल 100 साल पूरे होने जा रहे हैं। ऐसे में उसका फोकस अपने आधार पर व्यापक बनाने पर है। संघ के कार्यकर्ता बीजेपी में राज्य या राष्ट्रीय स्तर पर संगठन के सचिव या संयुक्त सचिव की भूमिका निभा रहे हैं। ये कार्यकर्ता फुल टाइम वर्कर हैं जिन्हें प्रचारक कहा जाता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र खुद एक प्रचारक रह चुके हैं। वह बीजेपी में संगठन के सचिव का पद भी संभाल चुके हैं।
मुश्किल वक्त से बाहर निकलना बीजेपी को आता है
बीजेपी और संघ के बीच पावर को लेकर किसी तरह का टकराव या खींचतान नहीं रही है। इसकी वजह यह है कि दोनों अलग-अलग क्षेत्र में काम करते हैं। संघ का नेतृत्व यह बात अच्छी तरह से समझता है कि राजनीति की कुछ अपनी मजबूरियां हैं और भाजपा को इन मजबूरियों से बाहर निकलने का रास्ता खुद तलाशना है। अगर कोई बात बीजेपी नेतृत्व तक पहुंचानी है तो उसे संगठन के सचिवों के जरिए पहुंचाया जाता है।
संघ की बीजेपी को नियंत्रित करने में दिलचस्पी नहीं
संघ न तो शासन के कामकाज में हस्तक्षेप करता है और न ही बीजेपी की राजनीतिक गतिविधियों में उसकी हिस्सेदारी होती है। उसकी भूमिक विचारधारा के स्तर पर एक मार्गदर्शक की होती है। भारतीय जनसंघ के समय से ही संघ का राजनीति से रिश्ता इसी तरह से चला आ रहा है। इसलिए यह कहना ठीक नहीं है कि संघ और प्रधानमंत्री नरेंद्रे मोदी के बीच किसी तरह का विरोधाभास है। यह याद रखना होगा कि मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद ही संघ प्रचारक नानाजी देशमुख को भारत रत्न से सम्मानित किया गया।
संघ अपने कार्यक्रम में रहता है व्यस्त
जब कभी बीजेपी किसी मुश्किल में होती है, यह चर्चा शुरू हो जाती है कि संघ और पार्टी नेतृत्व के बीच खींचतान चल रही है। संघ की रोजाना 60,000 से ज्यादा शाखाएं लगती हैं और अलग-अलग संगठनों के जरिए दो लाख कल्याणकारी योजनाएं चलाई जाती है। संघ को इसके बाद कोई समय नहीं बचता है। उसकी बीजेपी को नियंत्रित करने की न तो कई इच्छा है और न ही कोई महत्वाकांक्षा।